सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की और यदि जनता को अधिकार होता तो अभियुक्तों का बेदाग छूट जाना निश्चित था, किन्तु अदालत जाब्ते और नियमों के बन्धन में जकड़ी हुई थी। वह जान कर अनजान बनने पर बाध्य थी। मनोहर के अन्तिम वाक्य बड़े मार्मिक थे– सरकार, माजरा यही है जो मैंने आपसे अरज किया। मैंने गौस खाँ को इसी कुल्हाड़ी से और इन्हीं हाथों से मारा। कोई मेरा साथी, मेरा सलाहकार, मेरा मददगार नहीं था। अब आपको अख्तियार है, चाहे सारे गाँव को फाँसी पर चढ़ा दें, चाहे काले-पानी भेज दें, चाहे छोड़ दें। फैजू, बिसेसर, दारोगा ने जो कुछ कहा है, सब झूठ है। दारोगा जी की बात तो मैं नहीं चलाता, पर सरकार, फैजू और बिसेसर को अपने घर बुलायें और दिलासा दें कि पुलिस तुम्हारा कुछ न कर सकेगी तो मेरी सच-झूठ की परख हो जाय और मैं क्या कहूँ। उन लोगों का काठ का कलेजा होगा जो इतने गरीबों को बेकसूर फाँसी पर चढ़वाये देते हैं। भगवान, झूठ-सच सब देखते हैं। बिसेसर और फैजू की तो थोड़ी औकात है और दारोगा जी झूठ की रोटी खाते है, पर डाक्टर साहब इतने बड़े आदमी और ऐसे विद्वान कैसे झूठी गंगा में तैरने लगे, इसका मुझे अचरज है। इसके सिवा और क्या कहा जाय कि गरीबों का नसीब ही खोटा है कि बिना कसूर किये फाँसी पाते हैं। अब सरकार से और पंचों से यही विनती है कि तुम इस घड़ी न्याय के आसन पर बैठे हो, अपने इन्साफ से दूध का दूध और पानी का पानी कर दो।
अदालत उठी। यह दुखियारे हवालात चले। और सभों ने तो मन को समझ लिया था कि भाग्य में जो कुछ बदा है वह होकर रहेगा, पर दुखरन भगत की छाती पर साँप लोटता रहता था। उसे रह-रह कर उत्तेजना होती थी कि अवसर पाऊं तो मनोहर को खूब आड़े हाथों लूँ, किन्तु मजबूर था, क्योंकि मनोहर सबसे अलग रखा जाता था। हाँ, वह बलराज को ताना दे-देकर अपने चित्त की दाह को शान्त किया करता था। आज मनोहर का बयान सुन कर उसे और भी चिढ़ हुई। जब चिड़ियाँ खेत चुग गयी तो यह हाँक लगाने चले हैं। उस घड़ी अकल कहाँ चली थी। जब एक जरा सी बात पर कुल्हाड़ा बाँध कर घर से चले थे। इस समय मार्ग में उसे मनोहर पर अपना क्रोध उतारने का मौका मिल गया। बोला– आज क्या झूठ-मूठ बकवाद कर रहे थे। आदमी को तीर चलाने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह किसको लगेगा। जब तीर कमान से निकल गया तो फिर पछताने से क्या होता है? तुम्हारे कारण सारा गाँव चौपट हो गया। अनाथ लड़कों और औरतों की कौन सुध लेनेवाला है? बेचारे रोटियों तो तरसते होंगे। तुमने सारे गाँव को मटियामेट कर दिया।
मनोहर को स्वयं आठों पहर यह शोक सताया करता था। गौस खाँ का वध करते समय उसे यही चिन्ता थी। इसलिए उसने खुद थाने में जाकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। गाँव को आफत से बचाने के लिए जो कुछ हो सकता था वह उसने किया उसे दृढ़ विश्वास था कि चाहे मुझे दुष्कृत्य पर कितना ही पश्चत्ताप हो रहा हो, अन्य लोग मुझे क्षम्य ही न समझते होंगे, मुझसे सहानुभूति भी रखते होंगे। मुझे जलाने के लिए अन्दर की आग क्या कम है कि ऊपर से भी तेल छिड़का जाय। वह दुखरन की ये कटु बातें सुनकर बिलबिला उठा, जैसे पके हुए फोड़े में ठेस लग जाय। कुछ जवाब न दे सका।
आज अभियुक्तों के लिए प्रेमशंकर ने जेल के दारोगा की अनुमति से कुछ स्वादिष्ट भोजन बनवाकर भेजे थे। अपने उच्च सिद्धान्तों के विरुद्ध वह जेलखाने के छोटे-छोटे कर्मचारियों की भी खातिर और खुशामद किया करते थे, जिसमें वे अभियुक्तों पर कृपादृष्टि रखें। जीवन के अनुभवों ने उन्हें बता दिया था कि सिद्धान्तों की अपेक्षा मनुष्य अधिक आदरणीय वस्तु है। औरों ने तो इच्छा पूर्ण भोजन किया, लेकिन मनोहर इस समय हृदय ताप से विकल था। उन पदार्थों की रुचिवर्द्धक सुगन्धि भी उसकी क्षुधा को जागृत न कर सकी। आज वह शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे। जो अब तक केवल हृदय में ही सुनायी देते थे– तुम्हारे कारण सारा गाँव मटियामेट हो गया, तुमने सारे गाँव को चौपट कर दिया। हाँ, यह कलंक मेरे माथे पर सदा के लिए लग गया, अब यह दाग कभी न छूटेगा। जो अभी बालक हैं वे मुझे गालियाँ दे रहे होंगे। उनके बच्चे मुझे गाँव का द्रोही समझेंगे। जब मरदों के यह विचार हैं, जो सब बातें जानते हैं, जिन्हें भली-भाँति मालूम है कि मैंने गाँव को बचाने के लिए अपनी ओर से कोई बात उठा नहीं रखी और जो अन्धेर हो रहा है वह समय का फेर है, तो भला स्त्रियाँ क्या कहती होंगी, जो बेसमझ होती हैं। बेचारी बिलासी गाँव में किसी को मुँह न दिखा सकती होगी। उसका घर से निकलना मुश्किल हो गया होगा और क्यों न कहें? उनके सिर बीत रही है तो कहेंगे क्यों न? अभी तो अगहनी घर में खाने को हो जायगी, लेकिन खेत तो बोये न गये होंगे। चैत में जब एक दाना भी न उपजेगा, बाल-बच्चे दाने को रोयेंगे तब उनकी क्या दशा होगी। मालूम होता है इस कम्बल में खटमल हो गये हैं, नोचे डालते हैं, और यह रोना साल-दो साल का नहीं है, कहीं सब काले पानी भेज दिये गये तो जन्म भर का रोना है। कादिर मियाँ का लड़का तो घर सँभाल लेगा, लेकिन और सब तो मिट्टी में मिल जायेंगे और यह सब मेरी करनी का फल है।
सोचते-सोचते मनोहर को झपकी आ गयी। उसने स्वप्न देखा कि एक चौड़े मैदान में हजारों आदमी जमा हैं। फाँसी खड़ी है और मुझे फाँसी पर चढ़ाया जा रहा है। हजारों आँखें मेरी ओर घृणा की दृष्टि से ताक रही हैं। चारों तरफ से यही ध्वनि आ रही है, इसी ने सारे गाँव को चौपट किया। फिर उसे ऐसी भावना हुई कि मर गया हूँ और कितने ही भूत-पिशाच मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं और कह रहे हैं कि इसी ने हमें दाने-दाने को तरसा कर मार डाला, यही पापी है, इसे पकड़ कर आग में झोंक दो। मनोहर के मुख से सहसा एक चीख निकल आयी। आँखें खुल गयीं। कमरा खूब अँधेरा था, लेकिन जागने पर भी वह पैशाचिक भयंकर मूर्तियाँ उसके चारों तरफ मँडराती हुई जान पड़ती थीं। मनोहर की छाती बड़े वेग से धड़क रही थी जी चाहता था, बाहर निकल भागूँ, किन्तु द्वार बन्द थे।
अकस्मात मनोहर के मन में यह विचार अंकुरित हुआ– क्या मैं यही सब कौतुक देखने और सुनने के लिए जियूँ? सारा गाँव, सारा देश मुझसे घृणा कर रहा है। बलराज भी मन में मुझे गालियाँ दे रहा होगा। उसने मुझे कितना समझाया, लेकिन मैंने एक न मानी। लोग कहते होंगे सारे गाँव को बँधवाकर अब यह मुस्टंडा बना हुआ है। इसे तनिक भी लज्जा नहीं, सिर पटक कर मर क्यों नहीं जाता! बलराज पर भी चारों ओर से बौछारें पड़ती होंगी, सुन-सुनकर कलेजा फटता होगा। अरे! भगवान, यह कैसा उजाला है? नहीं, उजाला नहीं है। किसी पिशाच की लाल-लाल आँखें हैं, मेरी ही तरफ लपकी आ रही हैं! या नारायण! क्या करूँ? मनोहर की पिंडलियां काँपने लगीं। यह लाल आँखें प्रतिक्षण उसके समीप आती-जाती थीं। वह न तो उधर देख ही सकता था और न उधर से आँख ही हटा सकता था, मानो किसी आसुरिक शक्ति ने उसके नेत्रों को बाँध दिया हो। एक क्षण के बाद मनोहर को एक ही जगह कई आँखें दिखायी देने लगीं, नहीं, प्रज्विलत, अग्निमय, रक्तयुक्त नेत्रों का एक समूह है! धड़ नहीं, सिर नहीं, कोई अंग नहीं, केवल विदग्ध आँखें ही हैं, जो मेरी तरफ टूटे हुए तारों की भाँति सर्राटा भरती चली आती हैं। एक पल और हुआ, यह नेत्र- समूह शरीर-युक्त होने लगा और गौस खाँ के आहत स्वरूप में बदल गया। यकायक बाहर धड़ाक की आवाज हुई। मनोहर बदहवास हो कर पीछे की दीवार की ओर भागा, लेकिन एक ही पग में दीवार से टकरा कर गिर पड़ा, सिर में चोट आयी। फिर उसे जान पड़ा कोई द्वार का ताला खोल रहा है। तब किसी ने पुकारा, ‘मनोहर! मनोहर! मनोहर ने आवाज पहचानी। जेल का दारोगा था। उसकी जान में जान आयी। कड़क कर बोला– हाँ साहब, जागता हूँ। पैशाचिक जगत से निकलकर वह फिर चैतन्य संसार में आया। उसे अब नेत्र समूह का रहस्य खुला। दारोगा की लालटेन की ज्योति थी जो किवाड़ की दरारों से कोठरी में आ रही थी। इसी साधारण-सी बात ने उसे इतना सशंक कर दिया था। दारोगा आज गश्त करने निकला था।
दारोगा के चले जाने के बाद मनोहर कुछ सावधान हो गया। शंकोत्पादक कल्पनाएँ शान्त हुईं, लेकिन अपने तिरस्कार और अपमान की चिन्ताओं ने फिर आ घेरा। सोचने लगा, एक वह हैं जो उजड़े हुए गाँवों को आबाद करते हैं और जिनका यश संसार गाता है। एक मैं हूँ, जिसने गाँव को उजाड़ दिया। अब कोई भोर के समय मेरा नाम न लेगा। ऐसा जान पड़ता है कि सभी डामिल जायँगे, एक भी न बचेगा। अभी न जाने कितने दिन यह मामला चलेगा। महीने भर लगे, दो महीने लग जायें। इतने दिनों तक मैं सब की आँखों में काँटे की तरह खटकता रहूँगा, सब मुझे कोसेंगे, गालियाँ दिया करेंगे। आज दुखरन ने कह ही सुनाया, कल कोई ताना देगा। कादिर खाँ को भी यह कैद अखरती ही होगी। और तो और, कहीं बलराज भी न खुल पड़े। हा! मुझे उसकी जवानी पर भी तरस न आया, मेरा लाल मेरे ही हाथों...मैं अपने जवान बेटे को अपने ही हाथों....हा भगवान! अब यह दुःख नहीं सहा जाता। फाँसी अभी न जाने कब होगी? कौन जाने कहीं सब के साथ मेरा भी डामिल हो जाय, तब तो मरते दम तक इन लोगों के जले-कटे वचन सुनने पड़ेंगे! बलराज, तुझे कैसे बचाऊँ? कौन जाने हाकिम यही फैसला करे कि यह जवान है, इसी ने कुल्हाड़ा मारा होगा। हा भगवान! तब क्या होगा? क्या अपनी ही आँखों से यह देखूँगा? नहीं, ऐसे जीने से मरना ही अच्छा है। नकटा जिया बुरे हवाल! बस, एक ही उपाय है– हाँ!