ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप्न इतनी जल्दी फलीभूत होगा उसकी उन्हें आशा न थी। विधाता ने एक बड़ी रियासत के स्वामी बनने का अवसर प्रदान कर दिया था। यदि अब भी वह इससे लाभ ना उठा सकें। तो उसका दुर्भाग्य।
किन्तु गोरखपुर जाने के पहले लखनपुर की ओर से निश्चिन्त हो जाना चाहते थे। जब से प्रेमशंकर ने उनसे अपने हिस्से का नफा माँगा था उनके मन में नाना प्रकार की शंकाएँ उठ रही थीं। लाला प्रभाशंकर का वहाँ आना-जाना और भी खटकता था। उन्हें सन्देह होता था कि वह बुड्ढा घाघ अवश्य कोई न कोई दाँव खेल रहा है। यह पितृवत् प्रेम अकारण नहीं। प्रेमशंकर चतुर हों, लोकिन इस चाणक्य के सामने अभी लौंडे हैं। इनकी कुटिल कामना यही होगी कि उन्हें फोड़कर लखनपुर के आठ आने अपने लड़कों के नाम हिब्बा करा लें या किसी दूसरे महाजन के यहाँ बय कराके बीच में दस-पाँच हजार की रकम उड़ा लें। जरूर यही बात है, नहीं तो जब अपनी ही रोटियों के लाले पड़े हैं तो यह पकवान बन-बन कर न जाते। अब तो श्रद्धा ही मेरी हारी हुई बाजी का फर्जी है। अब उसे यह पढ़ाऊँ कि तुम अपने गुजारे के लिए आधा लखनपुर अपने नाम करा लो। उनकी कौन चलाये; अकेले हैं ही, न जाने कब कहाँ चल दें तो तुम कहीं की न रहो। यह चाल सीधी पड़ जाये तो अब भी लखनपुर अपना हो सकता है। श्रद्धा को तीर्थयात्रा करने के लिए भेज दूँगा। एक न एक दिन मर ही जायेगी। जीती भी रही तो हरद्वार में बैठी गंगा स्नान करती रहेगी। लखनपुर की ओर से मुझे कोई चिन्ता न रहेगी।
यों निश्चय करके ज्ञानशंकर अन्दर गये; दैवयोग से श्रद्धा उनकी इच्छानुसार अपने कमरे में अकेली बैठी हुई मिल गयी। माया को कई दिन से ज्वर आ रहा था, विद्या अपने कमरे में बैठी हुई उसे पंखा झल रही थी।
ज्ञानशंकर चारपाई पर बैठकर श्रद्धा से बोले– चाचा साहब की धूर्तता! वह तो मैं पहले ही ताड़ गया था कि यह महाशय कोई न कोई स्वाँग रच रहे हैं। सुना लखनपुर के बय करने की बातचीत हो रही है।
श्रद्धा– (विस्मति होकर) तुमसे किसने कहा? चचा साहब को मैं इतना नीच नहीं समझती। मुझे पूरा विश्वास है कि वह केवल प्रेमवश वहाँ आते-जाते हैं।
ज्ञान– यह तुम्हारा भ्रम है। यह लोग ऐसे निःस्वार्थ प्रेम करने वाले जीव नहीं हैं। जिसने जीवन-पर्यन्त दूसरों को ही मूँडा हो वह अब अपना गँवाकर भला क्या प्रेम करेगा? मतलब कुछ और ही है। भैया का माल है, चाहे बेचें या रखें, चाहे चचा साहब को दे दें या लुटा दें, इसका उन्हें पूरा अधिकार है, मैं बीच में कूदनेवाला कौन होता हूँ? इतना अवश्य है कि तुम फिर कहीं की न रहोगी।
श्रद्धा– अगर तुम्हारा ही कहना ठीक हो तो इसमें क्या बस है?
ज्ञान– बस क्यों नहीं है? आखिर तुम्हारे गुजारे का भार तो उन्हीं पर है। तुम आठ आने लखनपुर अपने नाम लिखा सकती हो। भैया को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तुम्हें संकोच हो तो मैं स्वयं जाकर उसने मामला तै कर सकता हूँ। मुझे विश्वास है कि भैया इनकार न करेंगे और करें तो भी मैं उन्हें कायल कर सकता हूँ। जब गाँव तुम्हारे नाम हो जायेगा तब उन्हें बय करने का अधिकार न रहेगा और चचा साहब की दाल भी न गलेगी।
श्रद्धा विचारों में डूब गयी। जब उसने कई मिनट तक सिर न उठाया तब ज्ञानशंकर ने पूछा, क्या सोचती हो? इसमें कोई हर्ज है? जायदाद नष्ट हो जाये, वह अच्छा है या घर में बनी रहे, वह अच्छा है?
अब श्रद्धा ने सिर उठाया और गौरव-पूर्ण भाव से बोली– मैं ऐसा नहीं कर सकती। उनकी जो इच्छा हो वह करें, चाहे अपना हिस्सा बेच दें या रखें। वह स्वयं बुद्धिमान हैं जो उचित समझेंगे वह करेंगे, मैं उनके पाँव में बेड़ी क्यों डालूँ!
ज्ञानशंकर ने रुष्ट होकर उत्तर दिया, लेकिन यह सोचा है कि जायदाद निकल गयी तो तुम्हारा निर्वाह क्योंकर होगा? वह कल ही फिर अमेरिका की राह लें तो?
श्रद्धा– मेरी कुछ चिन्ता न करो! वह मेरे स्वामी हैं, जो कुछ करेंगे। उसी में मेरी भलाई है। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि वह मुझे निरवलम्ब छोड़ जायेंगे।
ज्ञान– तुम्हारी जैसी इच्छा। मैंने ऊँच-नीच सुझा दिया, अगर पीछे से कोई बात बने-बिगड़े तो मेरे सिर दोष न रखना।
ज्ञानशंकर बाहर आये, उनका चित्त उद्विग्न हो रहा था। श्रद्धा के सन्तोष और पतिभक्ति ने उन्हें एक नई उलझन में डाल दिया। यह तो उन्हें मालूम था कि श्रद्धा मेरे प्रस्ताव को सुगमता से स्वीकार न करेगी, लेकिन उसमें इतना दृढ़ त्याग-भाव है इसका उन्हें पता न था। अपने मानव-प्रकृति ज्ञान पर उन्हें घमण्ड था, श्रद्धा के त्याग भाव ने उसे चूर कर दिया। ओह! स्त्रियाँ कितनी अविवेकिनी होती हैं। मैंने महीनों इसे तोते का भाँति पढ़ाया, उसका यह फल! वह अपने कमरे में देर तक बैठे सोचते रहे कि क्योंकर यह गुत्थी सुलझे? वह आज ही इस दुविधा का अन्त करना चाहते थे। यदि वह श्रद्धा का भार मुझ पर छोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें लखनपुर उसके नाम लिखना पड़ेगा। मैं उन्हें मजबूर करूँगा। खूब खुली-खुली बातें होंगी। इसी असमंजस में वह घर से निकले और हाजीपुर की ओर चले। रास्ते-भर वह इसी चिन्ता में पड़े रहे। यह संकोच भी होता था कि इतने दिनों के बाद मिलने भी चला तो स्वार्थ-वश होकर। जब से प्रेमशंकर हाजी-पुर रहने लगे थे, ज्ञानबाबू ने एक बार भी वहाँ जाने का कष्ट न उठाया था कभी-कभी अपने घर पर ही उनसे मुलाकत हो जाती थी। मगर इधर तीन-चार महीनों से दोनों भाइयों से भेंट ही न हुई थी।
ज्ञानशंकर हाजीपुर पहुँचे, तो शाम हो गयी थी। पूस का महीना था। खेतों में चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। सरसों, मटर, कुसुम, अल्सी के नीले-पीले फूल अपनी छटा दिखा रहे थे। कहीं चंचल तोतों के झुंड थे, कहीं उचक्के कौव के गोल। जगह-जगह पर सारस के जोड़े अहिंसापूर्ण विचार में मग्न खड़े थे। युवतियाँ सिरों पर घड़े रखे नदी से पानी ला रही थीं, कोई खेत में बथुआ का साग तोड़ रही थी, कोई बैलों को खिलाने के लिए हरियाली का गट्ठा सिर पर रखे चली आती थी। सरल शान्तिमय जीवन का पवित्र दृश्य था। शहर की चिल्ल-पों, दौड़ धूम के सामने यह शान्ति अतीव सुखद प्रतीत होती थी।
ज्ञानशंकर एक आदमी के साथ प्रेमशंकर के झोंपड़े में आये तो वहाँ सुरम्य शोभा देखकर चकित हो गये। नदी के किनारे एक ऊँचे और विस्तृत टीलें पर लताओं और बेलों से सजा हुआ ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी उच्चात्मा का सन्तोषपूर्ण हृदय है। झोंपड़े के सामने जहाँ तक निगाह जाती थी, प्रकृति की पुष्पित और पल्लवित छटा दिखाई देती थी। प्रेमशंकर झोंपड़े के सामने खड़े बैलों को चारा डाल रहे थे। ज्ञानशंकर को देखते ही बड़े प्रेम से गले मिले और घर का कुशल-समाचार पूछने के बाद बोले, तुम तो जैसे भूल ही गये। इधर आने की कसम खा ली।
ज्ञानशंकर ने लज्जित होकर कहा– यहाँ आने का विचार तो कई दिन से था, पर अवकाश ही नहीं मिलता था। इसे अपने दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहूँ, आप मुझसे इतने समीप हैं, फिर भी हमारे बीच में सौ कोस का अन्तर है। यह मेरी नैतिक दुर्बलता और बिरादरी का लिहाज है। मुझे बिरादरी के हाथों जितने कष्ट झेलने पड़े, वह मैं ही जानता हूँ। यह स्थान तो बड़ा रमणीक है। यह खेत किसके हैं?
प्रेमशंकर– इसी गाँव के असामियों के हैं। तुम्हें तो मालूम होगा, सावन में यहाँ बाढ़ आ गयी थी। सारा गाँव डूब गया था, कितने ही बैल बह गये, यहाँ तक कि झोंपड़ों का भी पता न चला। तब से लोगों को सहकारिता की जरूरत मालूम होने लगी है। सब असामियों ने मिलकर बाँध बना लिया है और यह साठ बीघे का चक निकल आया। इसके चारों ओर ऊँची मेड़े खींच दी हैं। जिसके जितने बीघे खेत हैं, उसी परते से बीज और मजदूरी ली जायेगी। उपज भी उसी परते से बाँट दी जायेगी। मुझे लोगों ने प्रबन्धकर्ता बना रखा है। इस ढंग से काम करने से बड़ी किफायत होती है। जो काम दस मजूर करते थे वही काम छह-सात मजूरों से पूरा हो जाता है। जुताई और सिंचाई भी उत्तम रीति से हो सकती है। तुमने गायत्री देवी का वृत्तान्त खूब लिखा है, मैं पढ़कर मुग्ध हो गया।
ज्ञानशंकर– उन्होंने मुझे अपनी रियासत का प्रबन्ध करने को बुलाया है। मेरे लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है। लेकिन जाऊँ कैसे? माया और उनकी माँ को तो साथ ले जा सकता हूँ, किन्तु भाभी किसी तरह जाने पर राजी नहीं हो सकतीं। शिकायत नहीं करता, लेकिन चाची से आजकल उनका बड़ा मेलजोल है। चाची और उनकी बहू दोनों ही उनके कान भरती हैं। उनका सरल स्वभाव है। दूसरों की बातों में आ जाती हैं। आजकल दोनों महिलाएँ उन्हें दम दे रही हैं कि लखनपुर का आधा हिस्सा अपने नाम करा लो। कौन जाने, तुम्हारे पति फिर विदेश की राह लें तो तुम कहीं की न रहो। चचा साहब भी उसी गोष्ठी में हैं। आज ही कल में वह लोग यह प्रस्ताव आपके सामने लायेंगे। इसलिए आप से मेरी विनीत प्रार्थना है कि इस विषय में आप जो करना चाहते हों उससे मुझे सूचित कर दें। आपके ही फैसले पर मेरे जीवन की सारी आशाएँ निर्भर हैं। यदि आपने हिस्से को बय करने का निश्चय कर लिया हो, तो मैं अपने लिए कोई और राह निकालूँ।
प्रेमशंकर– चचा साहब के विषय में तुम्हें जो सन्देह है वह सर्वथा निर्मूल है। उन्होंने आज तक कभी मुझसे तुम्हारी शिकायत नहीं की। उनके हृदय में सन्तोष है और चाहे उनकी अवस्था अच्छी न हो, पर वह उससे असन्तुष्ट नहीं जान पड़ते। रहा लखनपुर के सम्बन्ध में मेरा इरादा। मैं यह सुनना ही नहीं चाहता कि मैं उस गाँव का ज़मींदार हूँ। तुम मेरी ओर से निश्चिंत रहो। यही समझ लो कि मैं हूँ ही नहीं। मैं अपने श्रम की रोटी खाना चाहता हूँ। बीच का दलाल नहीं बनना चाहता। अगर सरकारी पत्रों में मेरा नाम दर्ज ही हो गया हो तो मैं इस्तीफा देने को तैयार हूँ। तुम्हारी भाभी के जीवन-निर्वाह का भार तुम्हारे ऊपर रहेगा। मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सहायता करता रहूँगा।
ज्ञानशंकर भाई की बातें सुनकर विस्मित हो गये। यद्यपि इन विचारों में मौलिकता न थी। उन्होंने साम्यवाद के ग्रन्थों में इसका विवरण देखा था, लेकिन उनकी समझ में यह केवल मानव-समाज का आदर्श-मात्र था। इस आदर्श को व्यावहारिक रूप में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वह अगर इस विषय पर तर्क करना चाहते तो अपनी सबल युक्तियों से प्रेमशंकर को निरुत्तर कर देते। लेकिन यह समय इन विचारों के समर्थन करने का था, न कि अपनी वाक्पटुता दिखाने का। बोले, भाई साहब! यह समाज-संगठन का महान् आदर्श है, और मुझे गर्व है कि आप केवल विचार से नहीं व्यवहार से भी उसके भक्त हैं। अमेरिका की स्वतन्त्र भूमि में इन भावों का जाग्रत होना स्वाभाविक है। यहाँ तो घर से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आयी। आत्म-बल और बुद्धि-सामर्थ्य से भी वंचित हूँ। मेरे संकल्प इतने पवित्र और उत्कृष्ट क्योंकर हो सकते हैं, मेरी संकीर्ण दृष्टि में तो यही जमींदारी, जिसे आप (मुस्कराकर) बीच की दलाली समझतें हैं, जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है। हाँ, सम्भव है आगे चलकर आपके सत्संग से मुझमें भी सद्विचार उत्पन्न हो जायँ।
प्रेम– तुम अपने ही मन में विचार करो। यह कहाँ का न्याय है कि मिहनत तो कोई करे, उसकी रक्षा का भार किसी दूसरे पर हो, और रुपये उगाहें हम?
ज्ञान– बात तो यथार्थ है, लेकिन परम्परा से यह परिपाटी ऐसी चली आती है। इसमें किसी प्रकार का संशोधन करने का ध्यान ही नहीं होता।
प्रेम– तो तुम्हारा गोरखपुर जाने का कब तक इरादा है?
ज्ञान– पहले आप मुझे इसका पूरा विश्वास दिला दें कि लखनपुर के सम्बन्ध में आपने जो कहा है वह निश्चयात्मक है।
प्रेम– उसे तुम अटल समझो। मैंने तुमसे एक बार अपने हिस्से का मुनाफा माँगा था। उस समय मेरे विचार पक्के न थे। मेरा हाथ भी तंग था। उस पर मैं बहुत लज्जित हूँ। ईश्वर ने चाहा तो अब तुम मुझे इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ पाओगे।
ज्ञान– तो होली तक गोरखपुर चला जाऊँगा। कोई हर्ज न हो तो आप भी घर चलें। माया आपको बहुत पूछा करता है।
प्रेम– आज तो अवकाश नहीं, फिर कभी आऊँगा।
ज्ञानशंकर यहाँ से चले तो उनका चित्त बहुत प्रसन्न था। बहुत दिनों के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई! अब मैं पूरे लखनपुर का स्वामी हूँ। यहाँ अब कोई मेरा हाथ पकड़ने वाला नहीं। जो चाहूँ निर्विघ्न कर सकता हूँ। भैया के बचन पक्के हैं, अब वह कदापि दुलख नहीं सकते। वह इस्तीफा लिख देते तो बात और पक्की हो जाती, लेकिन इस पर जोर देने से मेरी क्षुद्रता प्रकट होगी। अभी इतना ही बहुत है, आगे चल कर देखा जायेगा।