महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह नरमी से काम लेते थे। निर्दिष्ट लगान के अतिरिक्त प्रत्येक असामी से ठाकुरद्वारे और धर्मशाले का चन्दा भी लिया जाता था; पर इस रकम को वह इतनी नम्रता से वसूल करते थे कि किसी को शिकायत न होती थी। अब वह एखराज, इजाफा और बकाये के मुकदमें बहुत कम दायर करते। असामियों को बैंक से नाम-मात्र ब्याज ले कर रुपये देते और डेवढ़े-सवाई की जगह केवल अष्टांश वसूल करते। इन कामों से जितना अवकाश मिलता उसका अधिकांश ठाकुर द्वारे और धर्मशाले की निगरानी में व्यय करते। दूर-दूर से कुशल कारीगर बुलाये गये थे जो पच्चीकारी, गुलकारी, चित्रांकण, कटाव और जड़ाव की कलाओं में निपुण थे। जयपुर से संगमरमर की गाड़ियाँ भरी चली आती थीं। चुनार ग्वालियर आदि स्थानों से तरह-तरह के पत्थर माँगाये जाते थे। ज्ञानशंकर की परम इच्छा थी कि यह दोनों इमारतें अद्वितीय हों और गायत्री तो यहाँ तक तैयार थी कि रियासत की सारी आमदनी निर्माण कार्य के ही भेंट हो जाये तो चिंता नहीं। ‘मैं केवल सीर की आमदनी पर निर्वाह कर लूँगी।’ लेकिन ज्ञानशंकर आमदनी के ऐसे-ऐसे विधान ढूँढ़ निकालते थे कि इतना सब कुछ व्यय होने पर भी रियासत की वार्षिक आय में जरा भी कमी न होती थी। बड़े-बड़े ग्रामों में पाँच-छह बाजार लगवा दिये। दो-तीन नालों पर पुल बनवा दिये। कई जगह पानी को रोकने के लिए बाँध-बँधवा दिए। सिंचाई की कल मँगा कर किराये पर लगाने लगे। तेल निकालने का एक बड़ा कारखाना खोल दिया। इन आयोजनों से इलाके का नफा घटने के बदले कुछ और बढ़ गया। गायत्री तो उनकी कार्यपटुता की इतनी कायल हो गयी थी कि किसी विषय में जबान न खोलती।
ज्ञानशंकर के आहार-व्यवहार, रंग-ढंग में भी अब विशेष अन्तर दीख पड़ता था। सिर पर बड़े-बड़े केश थे, बूट की जगह प्रायः खड़ाऊँ, कोट के बदले एक ढीला-ढाला घुटनियों से नीचे तक का गेरूवे रंग में रँगा हुआ कुरता पहनते थे। यह पहनावा उनके सौम्य रूप पर बहुत खिलता था। उनके मुखारविन्द पर अब एक दिव्य ज्योति आभासित होती थी और बातों में अनुपम माधुर्यपूर्ण सरलता थी। अब तर्क और न्याय से उन्हें रुचि न थी। इस तरह बातें करते। मानों उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया है। यदि कोई उनसे भक्ति या प्रेम के विषय में शंका करता तो वह उसका उत्तर एक मार्मिक मुस्कान से देते थे, जो हजारों दलीलों से अधिक प्रभावोत्पादक होती थी।
उनके दीवानखाने में अब कुरसियों और मेजों के स्थान पर एक साफ-सुथरा फर्श था, जिस पर मसनद और गावतकिये लगे हुए थे। सामने चन्दन के एक सुन्दर रत्नजटित सिंहासन पर कृष्ण की बाल मूर्ति विराजमान थी। कमरे में नित्य अगर की बत्तिया जला करती थीं। उसके अन्दर जाते ही सुगन्धि से चित्त प्रसन्न हो जाता था। उसकी स्वच्छता और सादगी हृदय को भक्ति-भाव से परिपूर्ण कर देती थी। वह श्रीवल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। फूलों से, ललित गान से, सुरम्य दृश्यों से, काव्यमय भावों से उन्हें विशेष रुचि हो गयी थी, जो आध्यात्मिक विकास के लक्षण हैं। सौन्दर्योपासना ही उनके धर्म का प्रधान तत्त्व था। इस समय वह एक सितारिये से सितार बजाना सीखते थे और सितार पर सूर के पदों को सुना कर मस्त हो जाते थे।
गायत्री पर इस प्रेम-भक्ति का रंग भी और गाढ़ा चढ़ गया था। वह मीराबाई के सदृश कृष्ण की मूर्ति को स्नान कराती, वस्त्राभूषणों से सजाती, उनके लिए नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोग बनाती और मूर्ति के सम्मुख अनुराग मग्न हो कर घण्टों कीर्तन किया करती। आधी रात तक उनकी क्रीड़ाएँ और लीलाएँ सुनती और सुनाती। अब उसने पर्दा करना छोड़ दिया था। साधु-सन्तों के साथ बैठ कर उनकी प्रेम और ज्ञान की बातें सुना करती। लेकिन इस सत्संग से शान्ति मिलने के बदले उसका हृदय सदैव एक तृष्णा, एक विरहमय कल्पना से विकल रहता था। उसकी हृदय-वीणा एक अज्ञात आकांक्षा से गूँजती रहती थी। वह स्वयं निश्चय न कर सकती थी कि क्या चाहती हूँ। वास्तव में वह राधा और कृष्ण के प्रेम तत्त्व को समझने में असमर्थ थी। उसकी भौतिक दृष्टि उस प्रेम के ऐन्द्रिक स्वरूप से आगे न बढ़ सकती थी और उसका हृदय इन प्रेम-सुख कल्पनाओं से तृप्त न होता था। वह उन भावों को अनुभव करना चाहती थी। विरह और वियोग, ताप और व्यथा मान और मानवता, रास और विहार, आमोद और प्रमोद का प्रत्यक्ष स्वरूप देखना चाहती थी। पहले पति-प्रेम उसका सर्वस्व था। नदी अपने पेटे में ही हलकोरे लिया करती थी। अब उसे उस प्रेम का स्वरूप कुछ मिटा हुआ, फीका, विकृत मालूम होता था। नदी उमड़ गयी थी। पति-भक्ति का वह बाँध जो कुल-मर्यादा और आत्मगौरव पर आरोपित था। इस प्रेमभक्ति की बाढ़ से टूट गया। भक्ति लौकिक बन्धनों को कब ध्यान में लाती है? वह अब उन भावनाओं और कल्पनाओं को बिना किसी आत्मिक संकोच के हृदय में स्थान देती थी, जिन्हें वह पहले अग्नि-ज्वाला समझा करती थी। उसे अब केवल कृष्ण क्रीड़ा के दर्शन मात्र से सन्तोष न होता था। वह स्वयं कोई-न-कोई रास रचना चाहती थी। वह उन मनोभावों को वाणी से, कर्म से, व्यवहार से व्यक्त करना चाहती थी, जो उसके हृदयस्थल में पक्षियों की भाँति अबाध्य रूप से उड़ा करते थे। और उसका कृष्ण कौन था; वह स्वयं उसे स्वीकार करने का साहस न कर सकती थी, पर उसका स्वरूप ज्ञानशंकर से बहुत मिलता था। वह अपने कृष्ण को इसी रूप में प्रकट देखती थी।
गायत्री का हृदय पहले भी उदार था। अब वह और भी दानशीला हो गयी थी। उसके यहाँ अब नित्य सदाव्रत चलता था और जितने साधु-सन्त आ जायें सबको इच्छापूर्वक भोजन-वस्त्र दिया जाता था। वह देश की धार्मिक और पारमार्थिक संस्थाओं की भी यथासाध्य सहायक करती रहती थी। अब उसे सनातन धर्म से विशेष अनुराग हो गया। अतएव अब की सनातन धर्म-मंडल की वार्षिकोत्सव गोरखपुर में होना निश्चय किया गया तब सभासदों ने बहुमत से रानी गायत्री को सभापति नियुक्त किया। यह पहला अवसर था कि यह सम्मान एक विदुषी महिला को प्राप्त हुआ। गायत्री को रानी की पदवी मिलने से भी इतनी खुशी न हुई थी जितनी इस सम्मान पद से हुई। उसने ज्ञानशंकर को, जो सभा के मंत्री थे बुलाया और अपने गहनों का संदूक दे कर बोली, इसमें ५० हजार के गहने हैं। मैं इन्हें सनातन धर्मसभा को समर्पण करती हूँ
समाचार-पत्रों में यह खबर छप गयी। तैयारियाँ होने लगीं। मंत्री जी का यह हाल कि दिन को दिन और रात को रात न समझते। ऐसा विशाल सभा भवन कदाचित ही पहले कभी न बना हो। मेहमानों के आगत-स्वागत का ऐसा उत्तम प्रबन्ध कभी न किया गया था। उपदेशकों के लिए ऐसे बहुमूल्य उपहार न रखे गये थे और न जनता ने कभी सभा से इतना अनुराग ही प्रकट किया था। स्वयंसेवकों के दल के दल भड़कीली वर्दियाँ पहने चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। पंडाल के अहाते में सैकड़ों दूकानें सजी हुई नजर आती थीं। एक सरकस और दो नाटक समितियाँ बुलायी गयी थीं। सारे शहर में चहल-पहल देख पड़ती थी। बाजारों में भी विशेष सजावट और रौनक थी। सड़कों पर दोनों तरफ बन्दनवारें और पताकाएँ शोभायमान थीं।
जलसे के एक दिन पहले उपदेशकगण आने लगे। उनके लिए स्टेशन पर मोटरें खड़ी रहती थीं। इनमें कितने ही महानुभाव संन्यासी थे। वह तिलकधारी पंडितों को तुच्छ समझते थे और मोटर पर बैठने के लिए अग्रसर हो जाते थे। एक संन्यासी महात्मा, जो विद्यारत्न की पदवी से अलंकृत थे, मोटर न मिलने से इतने अप्रसन्न हुए कि बहुत आरजू-मिन्नत करने पर भी फिटन पर न बैठे। सभा भवन तक पैदल आये।
लेकिन जिस समारोह से सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ। वह और किसी को नसीब न हुआ। जिस समय वह पंडाल में पहुँचे, जलसा शुरू हो गया था और एक विद्वान पंडित जी विधवा-विवाह पर भाषण कर रहे थे। ऐसे निन्द्य विषय पर गम्भीरता से विचार करना अनुपयुक्त समझ कर वह इसकी खूब हँसी उड़ा रहे थे और यथोचित हास्य और व्यंग्य, धिक्कार और तिरस्कार से काम लेते थे।
‘‘सज्जनों, यह कोई कल्पित घटना नहीं मेरी आँखों देखी बात है। मेरे पड़ोस में एक बाबू साहब रहते हैं। एक दिन वह अपनी माता से विधवा-विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। माताजी चुपचाप सुनती जाती थीं। जब बाबू साहब की वार्ता समाप्त हुई तो माता ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, बेटा, मेरी एक विनती है, उसे मानो। क्यों मेरा भी किसी से पाणिग्रहण नहीं करा देते? देश भर की विधवाएँ सोहागिन हो जायँगी तो मुझसे क्योंकर रहा जायगा? श्रोताओं ने प्रसन्न होकर तालियाँ बजायीं, कहकहों से पंडाल गूँज उठा।’
इतने में सैयद ईजाद हुसेन ने पंडाल में प्रवेश किया। आगे-आगे चार लड़के कतार में थे, दो हिन्दू, दो मुसलमान। हिन्दू बालकों की धोतियाँ और कुरते पीले थे, मुसलमान बालकों के कुरते और पाजामे हरे। इनके पीछे चार लड़कियों की पंक्ति थी– दो हिन्दू और दो मुसलमान, उनके पहनावे में भी वही अन्तर था। सभों के हाथों में रंगीन झंडियाँ थीं, जिन पर उज्ज्वल अक्षरों में अंकित था– ‘इत्तहादी यतीम-खाना।’ इनके पीछे सैयद ईजाद हुसेन थे। गौर गर्ण, श्वेत केश, सिर पर हरा अमामा, काले कल्पाके का आबा, सुफेद तंजेब की अचकन, सलेमशाही जूते, सौम्य और प्रतिभा की प्रत्यक्ष मूर्ति थे। उनके हाथ में भी वैसी ही झंडी थी। उनके पीछे उनके सुपुत्र सैयद इर्शाद हुसेन थे– लम्बा कद, नाक पर सुनहरी ऐनक, अल्बर्ट फैसल की दाढ़ी तुर्की टोपी, नीची अचकन, सजीवता की प्रत्यक्ष मूर्ति मालूम होते थे। सबसे पीछे साजिन्दे थे। एक के हाथ में हारमोनियम था, दूसरे के हाथ में तबले, शेष दो आदमी करताल लिये हुए थे। इन सबों की वर्दी एक ही तरह की थी और उनकी टोपियों पर ‘अंजुमन इत्तहाद’ की मोहर लगी हुई थी। पंडाल में कई हजार आदमी जमा थे। सब-के-सब ‘इत्तहाद’ के प्रचारकों की ओर टकटकी बाँध कर देखने लगे। पंडित जी का रोचक व्याख्यान फीका पड़ गया। उन्होंने बहुत उछल-कूद की, अपनी सम्पूर्ण हास्य-शक्ति व्यय कर दी, अश्लील कवित्त सुनाये, एक भद्दी-सी गजल भी बेसुरे राग से गायी, पर रंग न जमा। समस्त श्रोतागण ‘इत्तहादियों’ पर आसक्त हो रहे थे। ईजाद हुसेन एक शान के साथ मंच पर जा पहुँचे। वहाँ कई संन्यासी, महात्मा, उपदेशक चाँदी की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। सैयद साहब को सबने ईर्ष्यापूर्ण नेत्रों, से देखा और जगह से न हटे। केवल भक्त ज्ञानशंकर ही एक व्यक्ति थे जिन्होंने उनका सहर्ष स्वागत किया और मंच पर उनके लिए एक कुर्सी रखवा दी। लड़के और साजिन्दे मंच के नीचे बैठ गये। उपदेशकगण मन-ही-मन ऐसे कुढ़ रहे थे, मानो हंस समाज में कोई कौवा आ गया हो। दो-एक सहृदय महाशयों ने दबी जबान से फबतियाँ भी कसीं, पर ईजाद हुसेन के तेवर जरा भी मैले न हुए। वह इस अवहेलना के लिए तैयार थे। उनके चेहरे से वह शान्तिपूर्ण दृढ़ता झलक रही थी, जो कठिनाइयों की परवा नहीं करती और काँटों में भी राह निकाल लेती है।
पंडित जी ने अपना रंग जमते न देखा तो अपनी वक्तृता समाप्त कर दी और जगह पर आ बैठे। श्रोताओं ने समझा अब इत्तहादियों के राग सुनने में आयेंगे। सबने कुर्सियाँ आगे खिसकायीं और सावधान हो बैठे; किन्तु उपदेशक-समाज इसे कब पसन्द कर सकता था कि कोई मुसलमान उनसे बाजी ले जा? एक संन्यासी महात्मा ने चट अपना व्याख्यान न शुरू कर दिया। यह महाशय वेदान्त के पंडित और योगाभ्यासी थे। संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। वह सदैव संस्कृत में ही बोलते थे। उनके विषय में किंवदन्ती थी कि संस्कृत ही उनकी मातृ-भाषा है। उनकी वक्तृता को लोग उसी शौक से सुनते थे, जैसे चंडूल का गाना सुनते हैं। किसी की भी समझ में कुछ न आता था, पर उनकी विद्वता और वाक्य प्रवाह का रोब लोगों पर छा जाता था। वह एक विचित्र जीव ही समझे जाते थे और यही उनकी बहुप्रियता का मन्त्र था। श्रोतागण कितने ही ऊबे हुए हों, उनके मंच पर आते ही उठने वाले बैठ जाते थे, जाने वाले थम जाते थे। महफिल जम जाती थी। इसी घमंड पर इस वक्त उन्होंने अपना भाषण आरम्भ किया पर आज उनका जादू भी न चला। इत्तहादियों ने उनका रंग भी फीका कर दिया? उन्होंने संस्कृत की झड़ी लगा दी, खूब तड़पे, खूब गरजे, पर यह भादों की नहीं, चैत की वर्षा थी। अन्त में वह भी थक कर बैठ रहे और अब किसी अन्य उपदेशक को खड़े होने का साहस न हुआ। इत्तहादियों ने मैदान मार लिया।
ज्ञानशंकर ने खड़े होकर कहा, अब इत्तहाद संस्था के संचालक सैयद ईजाद हुसेन अपनी अमृत वाणी सुनायेंगे। आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करें।
सभा भवन में सन्नाटा छा गया। लोग सँभल बैठे। ईजाद हुसेन ने हारमोनियम उठा कर मेज पर रखा, साजिन्दों ने साज निकाले, अनाथ बालकवृन्द वृत्ताकार बैठे। सैयद इर्शाद हुसेन ने इत्तहाद सभा की नियमावली का पुलिन्दा निकाला। एक क्षण में ईश-वन्दना के मधुर स्वर पंडाल में गूँजने लगे। बालकों की ध्वनि में एक खास लोच होता है। उनका परस्पर स्वर में स्वर मिला कर गाना उस पर साजों का मेल, एक समाँ छा गया– सारी सभा मुग्ध हो गयी।
राग बन्द हो गये और सैयद ईजाद हुसेन ने बोलना शुरू किया– प्यारे दोस्तो, आपको यह हैरत होगी कि हंसों में यह कौवा क्योंकर आ घुसा, औलिया की जमघट में यह भाँड कैसे पहुँचा?
यह मेरी तकदीर की खूबी है। उलमा फरमाते हैं, जिस्म हाजिम (अनित्य) है, रूह कदीम (नित्य) है। मेरा तर्जुबा बिलकुल बरअक्स (उल्टा) है। मेरे जाहिर में कोई तबदीली नहीं हुई। नाम वही है, लम्बी दाढ़ी वही है, लिबास-पोशाक वही है, पर मेरे रूह की काया पलट गयी। जाहिर से मुगालते में न आइए, दिल में बैठ कर देखिए, वहाँ मोटे गरूफ में लिखा हुआ है : ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्ताँ हमारा।’
लड़कों और साजिन्दों ने इकबाल की गजल अलापनी शुरू की। सभा लोट-पोट हो गयी। लोगों की आँखों से गौरव की किरणें-सी निकलने लगीं, कोई मूछों पर ताव देने लगा, किसी ने बेबसी की लम्बी साँस खींची, किसी ने अपनी भुजाओं पर निगाह डाली और कितने ही सहृदय सज्जनों की आँखें भर आयीं। विशेष करके इस मिसरे पर– ‘हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा।’ तो सारी मजलिस तड़प उठी, लोगों ने कलेजे थाम लिये।, ‘वन्देमातरम्’ से भवन गूँज उठा। गाना बन्द होते ही फिर व्याख्यान शुरू हुआ–
‘भाइयों, मजहब दिल की तस्कीन के लिए है, दुनिया कमाने के लिए नहीं, मुल्की हकूम हासिल करने के लिए नहीं! वह आदमी जो मजहब की आड़ में दौलत और इज्जत हासिल करना चाहता है, अगर हिन्दू है जो मालिच्छ है, मुसलमान है तो काफिर है, हाँ काफिर है, मजदूर है, रूसियाह है।’’
करतल ध्वनि से पंडाल काँप उठा।
‘हम सत्तर पुश्तों से इसी सरजमीन का दाना खा रहे हैं, इसी सरजमीन के आब व गिल (पानी और मिट्टी) से हमारी शिरशिरी हुई है। तुफ है उस मुसलमान पर जो हिजाज और इराक को अपना वतन कहता है!
फिर तालियाँ बजीं। एक घंटे तक व्याख्यान हुआ। सैयाद ने सारी पर मानो मोहिनी डाल दी। उनकी गौरवयुक्त विनम्रता, उनकी निर्भीक यथार्थवादिता, उनकी स्वदेशाभिमान, उस पर उनके शब्द-प्रवाह, भावोत्कर्ष और राष्ट्रीय गाने ने लोगों को उन्मत्त कर दिया। हृदयों में जागृति की तरंगे उठने लगीं। कोई सोचता था, न हुए मेरे पास एक लाख रुपये, नहीं तो इसी दम लुटा देता। कोई मन में कहता था, बाल-बच्चों की चिंता न होती तो गले में झोली लटका कर जाति के लिए भिक्षा माँगता।
इस तरह जातीय भाव को उभारकर भूमि को पोली बना कर सैयद साहब मतलब पर आये, बीज डालना शुरू किया।
‘‘दोस्तो, अब मजहबपरवरी का जमाना नहीं रहा। पुरानी बातों को भूल जाइए। एक जमाना था कि आरियों ने यहाँ के असली बाशिन्दों पर सदियों तक हुकूमत की, आज वही शूद्र आरियों में घुले-मिले हुए हैं। दुश्मनों को अपने सलूक से दोस्त बना लेना आपके बुजुर्गों का जौहर था। वह जौहर आप में मौजूद है। आप बारहा हमसे गले मिलने के लिए बढ़े, लेकिन हम पिदरम सुलताबूद के जोश में हमेशा आप से दूर भागते रहे। लेकिन दोस्तो, हमारी बदगुमानी से नाराज न हो, तुम जिन्दा कौम हो। तुम्हारे दिल में दर्द है, हिम्मत है, फैयाजी है। हमारी तंगदिली को भूल जाइए। उसी बेगाना कौम का एक फर्द हकीर आज आपकी खिदमत में इत्तहाद का पैगाम लेकर हाजिर हुआ है, उसकी अर्ज कबूल कीजिए। यह फकीर इत्तहाद का सौदाई है, इत्तहाद का दीवाना है, उसका हौसला बढ़ाइए। इत्तहाद का यह नन्हा सा मुर्झाया हुआ पौधा आपकी तरफ भूखी-प्यासी नजरों से ताक रहा है। उसे अपने दरियादिली के उबलते हुए चश्मों से सैराब कर दीजिए। तब आप देखेंगे कि यह पौधा कितनी जल्द तनावर दरख्त हो जाता है और उसके मीठे फलों से कितनों की जबानें तर होती हैं। हमारे दिल में बड़े-बड़े हौसले हैं। बड़े-बड़े मनसूबे हैं। हम इत्तहाद की सदा से इस पाक जमीन के एक-एक गोशे को भर देना चाहते हैं। अब तक जो कुछ किया है आप ही ने किया है, आइन्दा जो कुछ करेंगे आप ही करेंगे। चन्दे की फिहरिस्त देखिए, वह आपके ही नामों से भरी हुई है और हक पूछिए तो आप ही उसके बानी हैं। रानी गायत्री कुँवर साहब की सखावत की एक वक्त सारी दुनिया में शोहरत है। भगत ज्ञानशंकर की कौमपरस्ती क्या पोशीदा है? वजीर ऐसा, बादशाह ऐसा! ऐसी पाक रूहें जिस कौम में हों वह खुशनसीब है। आज मैंने इस शहर की पाक जमीन पर कदम रखा तो बाशिन्दों के एखलाक और मुरौवत, मेहमानबाजी और खातिरदारी ने मुझे हैरत में डाल दिया। तहकीक करने से मालूम हुआ कि यह इसी मजहबी जोश की बरकत है, यह प्रेम के औतार सिरी किरिश्नजी की भगती का असर है जिसने लोगों को इन्सानियत के दर्जे से उठा कर फरिश्तों का हमसफर बना दिया है। हजरात, मैं अर्ज नहीं कर सकता कि मेरे दिल में सिरी किरिश्नजी की कितनी इज्जत है। इससे चाहे मेरी मुसलमानी पर ताने ही क्यों न दिए जायँ, पर मैं बेखौफ कहता हूँ कि वह रूहे पाक उलूहियत (ईश्वरत्व) के उस दर्जे पर पहुँची हुई थी जहाँ तक किसी नवी या पैगम्बर को पहुँचना नसीब न हुआ। आज इस सभा में सच्चे दिल से अंजुमन इत्तहाद को उसी रूहेपाक के नाम मानून (समर्पित) करता हूँ। मुझे उम्मीद ही नहीं, यकीन है कि उनके भगतों के सामने मेरा सवाल खाली न जायेगा! इत्तहादी यतीमखाने के बच्चे ओर बच्चियाँ आप ही की तरफ बेकस निगाहों से देख रही हैं। यह कौमी भिखारी आपके दरवाजे पर खड़ा दोआएँ दे रहा है। इस लम्बी दाढ़ी पर निगाह डालिए, इन सुफेद बालों की लाज रखिए।
फिर हारमोनियम बजा, तबले पर थाप पड़ी, करताल ने झंकार ली और ईजाद हुसेन की करुण-रस-पूर्ण गजल शुरू हुई। श्रोताओं के कलेजे मसोस उठे। चन्दे की अपील हुई तो रानी गायत्री की ओर से १००० रुपये की सूचना हुई, भक्त ज्ञानशंकर ने यतीमखाने के लिए एक गाय भेंट की, चारों तरफ से लोग चन्दा देने को लपके। इधर तो चन्दे की सूची चक्कर लगा रही थी, उधर इर्शाद हुसेन ने अंजुमन के पम्फलेट और तमगे बेचने शुरू किए। तमगे अतीव सुन्दर बने हुए थे। लोगों ने शौक से हाथों-हाथ लिये। एक क्षण में हजारों वक्षस्थलों पर यह तमगे चमकने लगे। हृदयों पर दोनों तरफ से इत्तहाद की छाप पड़ी गयी। कुल चन्दे का योग ५००० रुपये हुआ। ईजाद हुसेन का चेहरा फूल की तरह खिल उठा। उन्होंने लोगों को धन्यवाद देते हुए एक गजल गायी और आज की कार्यवाही समाप्त हुई रात के दस बजे थे।
जब ईजाद हुसेन भोजन करके लेटे और खमीरे का रस-पान करने लगे तब उनके सुपुत्र ने पूछा, इतनी उम्मीद तो आपको भी न थी।
ईजाद– हर्गिज नहीं। मैंने ज्यादा से ज्यादा १००० रुपये का अन्दाज़ किया था, मगर आज मालूम हुआ कि ये सब कितने अहमक होते हैं। इसी अपील पर किसी इस्लामी जलसे में मुश्किल से १०० रुपये मिलते थे। इन बछिया के ताऊओं की खूब तारीफ कीजिए। हर्जोमलीह की हद तक हो तो मुजायका नहीं, फिर इनसे जितना चाहें वसूल कर लीजिए।
इर्शाद– आपकी तकरीर लाजवाब थी।
ईजाद– उसी पर जो जिन्दगी का दारोमदार है न किसी के नौकर, न गुलाम। बस, दुनिया में कामयाबी का नुस्खा है तो वह शतरंजबाजी है। आदमी जरा लस्सान (वाक्-चतुर) हो, जरा मर्दुमशनास हो और जरा गिरहबाज हो, बस उसकी चाँदी है। दौलत उसके घर की लौंडी है।
इर्शाद– सच फरमाइएगा अब्बा जान, क्या आपका कभी यह खयाल था कि यह सब दुनियासाजी है?
ईजाद– क्या मुझे मामूली आदमियों से भी गया-गुजरा समझते हो? यह दगाबाजी है, पर करूँ क्या? औलाद और खानदान की मुहब्बत अपनी नजात की फिकर से ज्यादा है।