50.
श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की बात कहने लगीं, आपस में कोई पर्दा न रहा। दोनों आधी-आधी रात तक बैठी अपनी बीती सुनाया करतीं। श्रद्धा की बीती प्रेम और वियोग की करुण कथा थी जिसमें आदि से अन्त तक कुछ छिपाने की जरूरत न थी। वह रो-रो कर अपनी विरह व्यथा का वर्णन करती, प्रेमशंकर के सद्गुणों की अभिमान के साथ चर्चा करती। अपनी कथा कहने में, अपने हृदय के भावों को प्रकट करने में उसे शान्तिमय आनन्द मिलता था! इसके विपरीत गायत्री की कथा प्रेम से शुरू होकर आत्म-ग्लानि पर समाप्त होती थी। विश्वास के उद्गार में भी उसे सावधान रहना पड़ता था, वह कुछ-न-कुछ छिपाने और दबाने पर मजबूर हो जाती थी। उसके हृदय में कुछ ऐसे काले धब्बे थे जिन्हें दिखाने का उसे साहस न होता था, विशेषतः श्रद्धा को जिसका मन और वचन एक था। वह उसके सामने प्रेम और भक्ति का जिक्र करते हुए शरमाती थी। वह जब ज्ञानशंकर के उस दुस्साहस को याद करती जो उन्होंने रात को थियेटर से लौटते समय किया था तब उसे मालूम होता था कि उस समय तक मेरा मन शुद्ध और उज्ज्वल था, यद्यपि वासनाएँ अंकुरित हो चली थीं, उसके बाद जो कुछ हुआ वह सब ज्ञानशंकर की काम-तृष्णा और मेरी आत्मदुर्बलता का नतीजा था जिसे मैं भक्ति कहती थी। ज्ञानशंकर ने केवल अपनी दुष्कामना पूरी करने के लिए मेरे सामने भक्ति का यह रंगीन जाल फैलाया। मेरे विषय में उनका यह लेख लिखना, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में मुझे आगे बढ़ाना, उनकी वह अविरल स्वामि-भक्ति, वह आत्मसमर्पण, सब उनकी अभीष्ट-,सिद्धि के मंत्र थे। मुझे मेरे अंहकार ने डुबाया, मैं अपने ख्याति प्रेम के हाथों मारी गयी। मेरा वह धर्मानुराग, मेरी वह विवेकहीन मिथ्या भक्ति, मेरे वह आमोद-प्रमोद, मेरी वह आवेशमयी कृतज्ञता जिस पर मुझे अपने संयम और व्रत को बलिदान करने में लेशमात्र भी संकोच न होता था, केवल मेरे अहंकार की क्रीड़ाएँ थीं। इस व्याध ने मेरी प्रकृति के सबसे भेद्य स्थान पर निशाना मारा। उसने मेरे व्रत और नियम को धूल में मिला दिया, केवल अपने ऐश्वर्य-प्रेम के हेतु मेरा सर्वनाश कर दिया। स्त्री अपनी कुप्रवृत्ति का दोष सदैव पुरुष के सिर पर रखती है, अपने को वह दलित और आहत समझती है। गायत्री के हृदय में इस समय ज्ञानशंकर का प्रेमालाप, वह मृदुल व्यवहार, वह सतृष्ण चितवनें तीर की तरह लग रही थीं। वह कभी-कभी शोक और क्रोध से इतनी उत्तेजित हो जाती कि उसका जी चाहता कि उसने जैसे मेरे जीवन को भ्रष्ट किया है वैसे ही मैं भी उसका सर्वनाश कर दूँ।
एक दिन वह इन्हीं उद्दंड विचारों में डूबी हुई थी कि श्रद्धा आकर बैठ गयी और उसके मुख की ओर देखकर बोली– मुख क्यों लाल हो रहा है। आँखों में आँसू क्यों भरे हैं?
गायत्री– कुछ नहीं, मन ही तो है।
श्रद्धा– मुझसे कहने योग्य नहीं है?
गायत्री– तुमसे छिपा ही क्या है जो मुझसे पूछती हो। मैंने अपनी तरफ से छिपाया है, लेकिन तुम सब कुछ जानती हो। यहाँ कौन नहीं जानता? उन बातों को जब याद करती हूँ तो ऐसी इच्छा होती है कि एक ही कटार से अपनी और उसकी गर्दन काट डालूँ। खून खौलने लगता है। मुझे जरा भी भ्रम न था कि वह इतना बड़ा धूर्त और पाजी है। बहिन, अब चाहे जो कुछ हो मैं उससे अपनी आत्महत्या का बदला अवश्य लूँगी। मर्यादा तो यही कहती है कि विद्या की भाँति विष खा कर मर जाऊँ, लेकिन यह तो उसके मन की बात होगी, वह अपने भाग्य को सराहेगा और दिल खोल कर विभव का भोग करेगा। नहीं, मैं यह मूर्खता न करूँगी। नहीं, मैं उसे घुला-घुला और रटा-रटा कर मारूँगी। मैं उसका सिर इस तरह कुचलूँगी जैसे साँप का सिर कुचला जाता है। हा! मुझ जैसी अभागिनी संसार में न होगी।
यह कहते-कहते गायत्री फूट-फूट कर रोने लगी। जरा दम लेकर फिर उसी प्रवाह में बोली– श्रद्धा तुम्हें विश्वास न आयेगा, यह मनुष्य पक्का जादूगर है। इसने मुझ पर ऐसा मन्त्र मारा कि मैं अपने को बिलकुल भूल गयी। मैं तुमसे अपनी सफाई नहीं कर रही हूँ। वायुमंडल में नाना प्रकार के रोगाणु उड़ा करते हैं। उनका विष उन्हीं प्राणियों पर असर करता है, जिनमें उसके ग्रहण करने का विकार पहले से मौजूद रहता है। मच्छर के डंक से सबको ताप और जूड़ी नहीं आती। वह बाह्य उत्तेजना केवल भीतर के विकार को उभाड़ देती है। ऐसा न होता तो आज समस्त संसार में एक भी स्वस्थ प्राणी न दिखायी देता। मुझमें यह विकृत पदार्थ था। मुझे अपने आत्मबल पर घमंड था। मैं ऐंद्रिक भोग को तुच्छ समझती थी। इस दुरात्मा ने उसी दीपक से जिससे मेरे अँधेरे घर में उजाला था घर में आग लगा दी, जो तलवार मेरी रक्षा करती थी वही तलवार मेरी गर्दन पर चला दी। अब मैं वही तलवार उसकी गर्दन पर चलाऊँगी। वह समझता होगा कि मैं अबला हूँ उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। लेकिन मैं दिखा दूँगी पानी भी द्रव हो कर भी पहाड़ों को छिन्न-भिन्न कर सकती है। मेरे पूज्य पिता आत्मदर्शी हैं। उन्हें उसकी बुरी नीयत मालूम हो गयी थी इसी कारण उन्होंने मुझे उससे दूर रहने की ताकीद की थी। उन्होंने अवश्य विद्या से यह बात कही होगी। इसीलिए विद्या वहाँ मुझे सचेत करने आयी थी। लेकिन शोक! मैं नशे में ऐसी चूर थी कि पिताजी की चेतावनी की कुछ परवाह न की। इस धूर्त ने मुझे उनकी नजरों में भी गिरा दिया। अब वह मेरा मुँह देखना भी न चाहेंगे।
गायत्री यह कह कर फिर शोकमग्न हो गयी। श्रद्धा की समझ में न आता था कि इसे कैसे सांत्वना दूँ। अकस्मात गायत्री उठ खड़ी हुई। सन्दूक में से कलम, दवात, कागज निकाल लाई और बोली, बहिन, जो कुछ होना था हो चुका इसके लिए जीवन-पर्यन्त रोना है। विद्या देवी थी, उसने अपमान से मर जाना अच्छा समझा। मैं पिशचिनी हूँ, मौत से डरती हूँ। लेकिन अब से यह जीवन त्याग और पश्चात्ताप पर समर्पण होगा। मैं अपनी रियासत से इस्तीफा दे देती हूँ, मेरा उस पर कोई अधिकार नहीं है। तीन साल से उस पर मेरा कोई हक नहीं है। मैं इतने दिनों तक बिना अधिकार ही उसका उपभोग करती रही। यह रियासत मेरे पतिव्रत-पालन का उपहार थी। यह ऐश्वर्य और सम्पति मुझे इसलिए मिली थी कि कुल-मर्यादा की रक्षा करती रहूँ, मेरी पतिभक्ति अचल रहे। वह मर्यादा कितने महत्त्व की वस्तु होगी जिसकी रक्षा के लिए मुझे करोड़ों की सम्पत्ति प्रदान की गई। लेकिन मैंने उस मर्यादा को भंग कर दिया, उस अमूल्य रत्न को अपनी विलासिता की भेंट कर दिया। अब मेरा उस रियासत पर कोई हक नहीं है। उस घर में पाँव रखने का मुझे स्वत्व नहीं, वहाँ का एक-एक दाना मेरे लिए त्याज्य है। मैं इतने दिनों में हराम के माल पर ऐश करती रही।
यह कह कर गायत्री कुछ लिखने लगी, लेकिन श्रद्धा ने कागज उठा लिया और बोली– खूब सोच-समझ लो, इतना उतावलापन अच्छा नहीं।
गायत्री– खूब सोच लिया है। मैं इसी क्षण ये मँगनी के वस्त्र फेंकूँगी और किसी ऐसे स्थान पर जा बैठूँगी, जहाँ कोई मेरी सूरत न देखे।
श्रद्धा– भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी? लोग भाँति-भाँति की मनमानी कल्पनाएँ करेंगे। मान लिया तुमने इस्तीफा ही दे दिया तो यह क्या मालूम है कि जिनके हाथों में रियासत जायेगी वे उसका सदुपयोग करेंगे। अब तो तुम्हारे लोक और परलोक की भलाई इसी में है कि शेष जीवन भगवत भजन में काटो, तीर्था-यात्रा करो साधु-सन्तों की सेवा करो। सम्भव है कि कोई ऐसे महात्मा मिल जायें जिनके उपदेश से तुम्हारे चित्त को शान्ति हो। भगवान ने तुम्हें धन दिया है। उससे अच्छे काम करो। अनाथों और विधवाओं को पालो, धर्मशालाएँ बनवाओ, तालाब और कुएँ खुदवाओ, भक्ति को, छोड़ कर ज्ञान पर चलो। भक्ति का मार्ग सीधा है, लेकिन काँटों से भरा हुआ है। ज्ञान का मार्ग टेढ़ा है, लेकिन साफ है।
श्रद्धा का ज्ञानोपदेश अभी समाप्त न होने पाया था कि एक महरी ने आ कर कहा– बहूजी, वह डिपटियाइन आयी हैं, जो पहले यहीं रहती थीं। यहीं लिवा लाऊँ?
श्रद्धा– शीलमणि तो नहीं है?
महरी– हाँ-हाँ वही है साँवली! पहले तो गहने से लदी रहती थीं, आज तो एक मुँदरी भी नहीं है। बड़े आदमियों का मन गहने से भी फिर जाता है।
श्रद्धा– हाँ, यही लिवा लाओ।
एक क्षण में शीलमणि आ कर खड़ी हो गयीं। केवल एक उजली साड़ी पहने हुई थीं। गहनों का तो कहना ही क्या, अधरों पर पान की लाली भी न थी। श्रद्धा उठकर उनसे गले मिली और पूछा– सीतापुर से कब आयीं?
शीलमणि– आज ही आयी हूँ, इसीलिए आयी हूँ कि लाला ज्ञानशंकर से दो-दो बातें करूँ। जब से बेचारी विद्या के विष खाकर जान देने का हाल सुना है, कलेजे में एक आग-सी सुलग रही है। यह सब उसकी बहिन की करामात है जो रानी बनी फिरती है। उसी ने विष दिया होगा।
शीलमणि ने गायत्री की ओर देखा न था और देखा भी हो तो पहचानती न थीं। श्रद्धा ने दाँतों तले जीभ दबायी और छाती पर हाथ रख कर आँखों से गायत्री को इशारा किया। शीलमणि ने चौंक कर बायीं तरफ देखा तो एक स्त्री सिर झुकाये बैठी हुई थी। उसकी प्रतिभा, सौन्दर्य और वस्त्राभूषण देखकर समझ गई कि गायत्री यही है। उसकी छाती धक से हो गई, लेकिन उसके मुख से ऐसी बातें निकल गयी थीं कि जिनको फेरना या सँभालना मुश्किल था। वह जलता हुआ ग्रास मुँह में रख चुकी थी और उसे निगलने के सिवा दूसरा उपाय न था। यद्यपि उसका क्रोध न्याय-संगत था, पर शायद गायत्री के मुँह पर वह ऐसे कटु शब्द मुँह से न निकाल सकती। लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था इसलिए उसके क्रोध ने हेकड़ी का रूप धारण किया, लज्जित होने के बदले और उद्दंड हो गई। गायत्री की ओर मुँह करके बोली– अच्छा, रानी साहिबा तो यहीं विराजमान हैं। मैंने आपके विषय में जो कुछ कहा है वह आपको अवश्य अप्रिय लगा होगा, लेकिन उसके लिए मैं आपसे क्षमा नहीं माँग सकती। यही बातें मैं आपसे मुँह पर कह सकती थी और एक मैं क्या सारा संसार यही कह रहा है। मुँह से चाहे कोई न कहे, किन्तु सब के मन में यही बात है। लाला ज्ञानशंकर से जिसे एक बार भी पाला पड़ चुका है, वह उसे अग्राह्य नहीं समझ सकता। मेरे बाबू जी इनके साथ के पढ़े हुए हैं और इन्हें खूब समझते हैं।
जब वह मैजिस्ट्रेट थे, तो उन्होंने अपने असामियों पर इजाफा लगान का दावा किया था। महीनों मेरी खुशामद करते रहे कि मैं बाबू जी से डिगरी करवा दूँ। मैं क्या जानूँ, इनके चकमें में आ गयी। बाबू जी पहले तो बहुत आनाकानी करते रहे लेकिन जब मैंने जिद्द की तो राजी हो गये। कुशल यह हुई कि इसी बीच में मुझे उनके अत्याचार का हाल मालूम हो गया और डिगरी न होने पायी, नहीं तो कितने दीन असामियों की जान पर बन आती। दावा डिसमिस हो गया। इस पर यह इतने रूष्ट हुए कि समाचार-पत्रों में लिख-लिख कर बाबू जी को बदनाम किया। वह अब पत्रों में इनके धर्मोत्साह की खबरें पढ़ते थे, तो कहते थे, महाशय अब जरूर कोई-न-कोई स्वाँग रच रहे हैं। गोरखपुर सनातन-धर्म के उत्सव पर जो धूम-धाम हुई और बनारस में कृष्णलीला का जो नाटक खेला गया उनका वृत्तान्त पढ़कर बाबू जी ने खेद के साथ कहा था, यह महाशय रानी साहेबा को सब्ज बाग दिखा रहे हैं। इसमें आवश्य कोई-न-कोई रहस्य है। लाला जी मुझे मिल जाते तो ऐसा आड़े हाथों लेती कि वह भी याद करते।
गायत्री खिड़की की ओर ताक रही थी, यहाँ तक कि उसकी दृष्टि से खिड़की भी लुप्त हो गयी। उसके अन्तःकरण से पश्चात्ताप और ग्लानि की लहरें उठ-उठ कर कंठ तक आती थीं और उसके नेत्र-रूपी नौका को झकोरे दे कर लौट जाती थीं। वह संज्ञाहीन हो गयी थी। सारी चैतन्य शक्तियाँ शिथिल हो गयी थीं। श्रद्धा ने उसके मुख की ओर देखा, आँसू न रोक सकी। इस अभागिनी दुखिया पर उसे कभी इतनी दया न आयी। वहाँ बैठना तक अन्याय था। वह और कुछ न कर सकी, शीलमणि को अपने साथ ले कर दूसरे कमरे में चली गयी। वहाँ दोनों में देर तक बातचीत होती रहीं। श्रद्धा हत्या का सारा भार ज्ञानशंकर के सिर पर रखती थी। शीलमणि गायत्री को भी दोष का भागी समझती थी। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को स्थिर किया। अन्त में श्रद्धा का पल्ला भारी रहा। इसके बाद शीलमणि ने अपना वृत्तान्त सुनाया। सन्तानोत्पत्ति के निर्मित कौन-कौन से यत्न किये, किन-किन दाइयों को दिखाया, किन-किन डॉक्टरों के दवा करायी? यहाँ तक कि वह श्रद्धा को अपने गर्भवती हो जाने का विश्वास दिलाने में सफल हो गयी, किन्तु महाशोक! सातवें महीने में गर्भपात हो गया, सारी आशाएँ धूल में मिल गयीं! श्रद्धा! ने सच्चे हृदय से समवेदना प्रकट की। फिर कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। श्रद्धा ने पूछा– अब डिप्टी साहब का क्या इरादा है?
शीलमणि– अब तो इस्तीफा दे कर आये हैं और बाबू प्रेमशंकर के साथ रहना चाहते हैं। उन्हें इन पर असीम भक्ति है। पहले जब इस्तीफा देने की चर्चा करते तो समझती थी कि काम से जी चुराते हैं। राजी न होती थी, लेकिन इन तीन वर्षों में मुझे अनुभव हो गया कि इस नौकरी के साथ आत्मरक्षा नहीं हो सकती। जाति के नेतागण प्रजा के उपकार के लिए जो उपाय करते हैं सरकार उसी में विघ्न डालती है, उसे दबाना चाहती है। उसे भय होता है कि कहीं यहाँ के लोग इतने उन्नत न हो जायें कि उसका रोब न मानें। इसीलिए वह प्रजा के भावों को दबाने के लिए, उसका मुँह बन्द करने को नये-नये कानून बनाती रहती है। नेताओं ने देश को दरिद्रता के चंगुल से छुड़ाने के लिए चरखों और करघों की व्यवस्था की। सरकार उसमें बाधा डाल रही है। स्वदेशी कपड़े का प्रचार करने के लिए दूकानदारों और ग्राहकों को समझाना अपराध ठहरा दिया गया है। नशे की चीजों का प्रचार कम करने के लिए नशेबाजों और ठेकेदारों से कुछ कहना-सुनना भी अपराध है। अभी पिछले सालों जब यूरोप की लड़ाई हुई थी तो सरकार ने प्रजा से कर्ज लिया। कहने को तो कर्ज था, पर असल में जरूरी टैक्स था। अधिकारियों ने दीन-दरिद्र प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये, तरह-तरह के दबाव डाले, यहाँ तक कि उन्हें अपने हल-बैल बेच कर सरकार को कर्ज देने पर मजबूर किया। जिसने इन्कार किया उसे या तो पिटवाया था कोई झूठा इलजाम लगा कर फँसा दिया। बाबूजी ने अपने इलाके में किसी के साथ सख्ती नहीं की। कह दिया, जिसका जी चाहे कर्ज दे, जिसका न जी चाहे न दे। नतीजा यह हुआ कि और इलाकों से तो लाखों रुपये वसूल हुए, इनके इलाके से बहुत कम मिला। इस पर जिले के हाकिम ने नाराज होकर शिकायत कर दी। इनसे यह ओहदा छीन लिया गया, दर्जा घटा दिया गया। जब मैंने यह हाल देखा तो आप ही जिद्द करके इस्तीफा दिलवा दिया। जब प्रजा की कमाई खाते हैं तो प्रजा के फायदे का ही काम करना चाहिए। यह क्या कि जिसकी कमाई खायें, उसी का गला दबायें। यह तो नमकहरामी है, घोर नीचता। यह तो वह करे जिसकी आत्मा मर गई हो, जिसे पेट पालने के सिवा लोक-परलोक की कुछ भी चिन्ता न हो। जिसके हृदय में जाति-प्रेम का लेशमात्र है वह ऐसे अन्याय नहीं कर सकता। भला तो होता है सरकार का, रोब और बल तो उसका बढ़ता है, जेब तो अंग्रेज व्यापारियों के भरते हैं और पाप के भागी होते हैं यह पेट के बन्दे नौकर, यह स्वार्थ के दास अधिकारी और फिर हमें नौकरी की परवाह ही क्या है। घर में खाने को बहुत है। दो-चार को खिलाकर खा सकते हैं। अब तो पक्का इरादा करके आये हैं कि यहीं बाबू प्रेमशंकर के साथ रहें और अपने से जहाँ तक हो सके प्रजा की भलाई करें। अब यह बताओ तुम कब तक रूठी रहोगी? क्या इसी तरह रो-रो कर उम्र काटने की ठान ली है?
श्रद्धा– प्रारब्ध में जो कुछ है उसे कौन मिटा सकता है?
शील– कुछ नहीं, यह तुम्हारी व्यर्थ की टेक है। मैं अबकी तुम्हें घसीट ले चलूँगी। उस उजाड़ में मुझसे अकेले न रहा जायेगा। हम और तुम दोनों रहेंगी तो सुख से दिन काटेंगे। अवसर पाते ही मैं उन महाशय की भी खबर लूँगी। संसार के लिए तो जान देते फिरते हैं और घरवालों की खबर नहीं लेते। जरा सा प्रायश्चित करने में क्या शान घटी जाती है?
श्रद्धा– तुम अभी उन्हें जानती नहीं हो। वह सब कुछ करेंगे पर प्रायश्चित न करेंगे। वह अपने सिद्धान्त को न तोड़ेंगे! तिस पर भी वह मेरी ओर से निश्चित नहीं हैं। ज्ञानशंकर जब से गोरखपुर रहने लगे तब से वह प्रायः रोज यहाँ एक बार आ जाते हैं। अगर काम पड़े तो उन्हें यहाँ रहने में भी आपत्ति न होगी, लेकिन अपने नियम उन्हें प्राणों से भी प्रिय हैं।
शीलमणि ने आकाश की तरफ देखा तो बादल घिर आए थे। घबरा कर बोली– कहीं पानी न बरसने लगे। अब चलूँगी। श्रद्धा ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन शीलमणि ने न माना। आखिर उसने कहा, जरा चल कर उनके आँसू तो पोंछ दो। बेचारी तभी से बैठी रो रही होगी।
शीलमणि– रोना तो उनके नसीब में लिखा है। अभी क्या रोयी है! ऐसे आदमी की यही सजा है। नाराज होकर मेरा क्या बना लेंगी? रानी होंगी तो अपने घर की होंगी।
शीलमणि को विदा करके श्रद्धा झेंपती हुई गायत्री के पास आयी। वह डर रही थी, कहीं गायत्री मुझ पर सन्देह न करने लगी हो कि सारी करतूत इसी की है। उसने डरते-डरते अपराधी की भाँति कमरे में कदम रखा। गायत्री ने प्रार्थी दृष्टि से उसे देखा, पर कुछ बोली नहीं। बैठी हुई कुछ लिख रही थी। मुख पर शोक के साथ दृढ़ संकल्प की झलक थी। कई मिनट तक वह लिखने में ऐसी मग्न थी मानों श्रद्धा के आने का उसे ज्ञान ही न था। सहसा बोली– बहिन, अगर तुम्हें कष्ट न हो तो जरा माया को बुला दो और मेरी महरियों को भी पुकार लेना।
श्रद्धा समझ गयी कि इसके मन में कुछ और ठन गयी। कुछ पूछने का साहस न हुआ। जा कर माया और महरियों को बुलाया। एक क्षण में माया आकर गायत्री के सामने खड़ा हो गया। महरियाँ बाग में झूल रही थी। भादों का महीना था, घटा छाई थी, कजली बहुत सुहानी लगती थी।
गायत्री ने माया को सिर से पाँव तक देख कर कहा– तुम जानते हो कि किसके लड़के हो?
माया ने कुतूहल से कहा– इतना भी नहीं जानता?
गायत्री– मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ जिससे मुझे मालूम हो जाय कि तुम मुझे क्या समझते हो?
माया पहले इस प्रश्न का आशय न समझता था। इतना इशारा पाकर सचेत हो गया।
बोला– पहले लाला ज्ञानशंकर का लड़का था, अब आपका लड़का हूँ।
गायत्री– इसीलिए तुम्हें प्रत्येक विषय में ईश्वर के पीछे मेरी इच्छा को मान्य समझना चाहिए।
माया– निस्सन्देह।
गायत्री– बाबू ज्ञानशंकर को तुम्हारे पालन-पोषण, दीक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह मेरा अधिकार है।
माया– आपके ताकीद की जरूरत नहीं, मैं स्वयं उनसे दूर रहना चाहता हूँ। जब से मैंने अम्माँ को अन्तिम समय उनकी सूरत, देखते ही चीख कर भागते देखा तभी से उनका सम्मान मेरे हृदय से उठ गया।
गायत्री– तो तुम उससे कहीं ज्यादा चतुर हो जितना मैं समझती थी। आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। कुछ पता नहीं कब तक लौटूँ। मैं समझती हूँ कि तुम्हें बाबू प्रेमशंकर की निगरानी में रखूँ। यह मेरी आज्ञा है कि तुम उन्हें अपना पिता समझो और उनके अनुगामी बनो। मैंने उनके नाम यह पत्र लिखा दिया है! इसे लेकर तुम उनके पास जाओ। वह तुम्हारी शिक्षा की उचित व्यवस्था कर देंगे। तुम्हारी स्थिति के अनुसार तुम्हारे आराम और जरूरत की आयोजना भी करेंगे। तुमको थोड़े ही दिनों में ज्ञात हो जायेगा कि तुम अपने पिता से कहीं ज्यादा सुयोग्य हाथों में हो। संभव है कि लाला प्रेमशंकर को तुमसे उतना प्रेम न हो जितना तुम्हारे पिता को है, लेकिन इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि तुम्हें अपने आनेवाले कर्तव्यों का पालन करने के लिए जितनी क्षमता उनके द्वारा प्राप्त हो सकती है, तुम्हारे आचार-विचार और चरित्र का जैसा उत्तम संगठन वह कर सकते हैं कोई और नहीं कर सकता। मुझे आशा है कि वह इस भार को स्वीकार करेंगे। इसके लिए तुम और मैं दोनों ही उनके बाध्य होंगे। यह दूसरा पत्र मैंने बाबू ज्ञानशंकर को लिखा है। मेरे लौटने तक वह रियासत के मैनेजर होंगे। उन्हें ताकीद कर दी है कि बाबू प्रेमशंकर के पास प्रति मास दो हजार रुपये भेज दिया करें। यह पत्र डाकखाने भिजवा दो।
>इतने में चारों महरियाँ आयीं। गायत्री ने उनसे कहा– मैं आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। तुममें से कौन मेरे साथ चलती है?
महरियों ने एक स्वर से कहा– हम सब की सब चलेंगी।
‘नहीं, मुझे केवल एक की जरूरत है। गुलाबों तुम मेरे साथ चलोगी?’
‘सरकार जैसे हुक्म दें। बाल-बच्चों को महीनों से नहीं देखा है।’
‘तो तुम घर जाओ। तुम चलोगी केसरी?’
‘कब तक लौटना होगा?’
‘यह नहीं कह सकती।’
‘मुझे चलने की कोई उजुर नहीं है पर सुनती हूँ वहाँ का पहाड़ी पानी बहुत लगता है।’
‘तो तुम भी घर जाओ। तू चलेगी अनसूया?’
‘सरकार, मेरे घर कोई मर्द-मानुष नहीं है। घर चौपट हो रहा है। वहाँ चलूँगी तो छटाँक भर दाना भी न मिलेगा।’
‘तो तुम भी घर जाओ। अब तो तुम्हीं रह गयीं राधा, तुमसे भी पूछ लिया चलोगी मेरे साथ?’
‘हाँ, सरकार चलूँगी।’
‘आज चलना होगा।’
‘जब सरकार का जी चाहे, चलें।’
‘तुम्हें बीस बीघे मुआफी मिलेगी।’
तीन महरियों ने लज्जित हो कर कहा– सरकार, चलने को हम सभी तैयार हैं। आपका दिया खाती हैं तो साथ किसके रहेंगी?
‘नहीं, मुझे तुम लोगों की जरूरत नहीं। मेरे साथ अकेली राधा रहेगी। तुम सब कृतघ्न हो, तुमसे अब मेरा कोई नाता नहीं।’
यह कह कर गायत्री यात्रा की तैयारी करने लगी। राधा खड़ी देख रही थी, पर कुछ बोलने का साहस न होता था। ऐसी दशा में आदमी अव्यवस्थित सा हो जाता है। जरा सी बात पर झुँझला पड़ता है और जरा सी बात पर प्रसन्न हो जाता है।