सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के दिन नगर की जनता अदालत में आ जाती थी। जनता को अभियुक्तों की निर्दोषिता का पूरा विश्वास हो गया था। मनोहर के आत्मघात की विविध प्रकार से मीमांसा की जाती थी और सभी का तत्त्व यही निकलता था। कि वही कातिल था और लोग तो केवल अदालत के कारण फँसा दिये गये हैं। डॉक्टर प्रियनाथ और इर्फान अली की स्वार्थपरता पर खुली-खुली चोटें की जाती थीं। प्रेमशंकर की निष्काम सेवा की सभी सराहना करते थे। इस मुकदमे ने उन्हें बहुजनप्रियता बना दिया था।
आज फैसला सुनाया जाने वाला था, इसलिए जमाव भी और दिनों से भी अधिक था। लखनपुर के लोग तो आये ही थे, आस-पास के देहातों से लोग बड़ी संख्या में आ पहुँचे थे। ठीक चार बजे जज ने तजवीज सुनायी-बिसेसर साह रिहा हो गये, बलराज और कादिर खाँ को कालापानी हुआ, शेष अभियुक्तों को सात-सात वर्ष का सपरिश्रम कारावास दिया गया। बलराज ने बिसेसर को सरोष नेत्रों से देखा जो कह रहे थे कि अगर क्षण भर के लिए भी छूट जाऊँ तो खून पी लूँ, कादिर खाँ बहुत दुखी थे और उदास थे। यह तजवीज सुनी तो आँसू की कई बूँदें मूंछों पर गिर पड़ीं। जीवन का अन्त ही हो गया। कब्र से पैर लटकाये बैठे, सजा मिली कालेपानी की! चारों ओर कुहराम मच गया। दर्शकगण अभियुक्तों की ओर लपके, पर रक्षकों ने किसी को उनसे कुछ कहने-सुनने की आज्ञा न दी। मोटर तैयार खड़ी थी। सातों आदमी उसमें बिठाये गये, खिड़कियाँ बन्द कर दी गईं और मोटर जेल की तरफ चली।
प्रेमशंकर चिन्ता और शोक की मूर्ति बने एक वृक्ष के नीचे खड़े सकरुण नेत्रों से मोटर की ओर ताक रहे थे, जैसे गाँव की स्त्रियाँ सिवान पर खड़ी सजल नेत्रों से ससुराल जाने वाली लड़की की पालकी को देखती हैं। मोटर दूर निकल गयी तो दर्शकों ने उन्हें घेर लिया और तरह-तरह के प्रश्न करने लगे। प्रेमशंकर उनकी ओर मर्माहत भाव से देखते थे, पर कुछ उत्तर न देते थे। सहसा उन्हें कोई बात याद आ गयी। जेल की ओर चले। जनता का दल भी उनके साथ-साथ चला। सबको आशा थी कि शायद अभियुक्तियों को देखने का, उनकी बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय। अभी यह लोग कचहरी के अहाते से निकले ही थे कि डॉ० इर्फान अपनी मोटर पर दिखायी दिए। आज ही गोरखपुर से लौटे थे। हवा खाने जा रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही मोटर रोक ली और पूछा कहिए, आज तजबीज सुना दी गई?
प्रेमशंकर ने रुखाई से उत्तर दिया, जी हाँ।
इतने में सैकड़ों आदमियों ने चारों ओर से मोटर को घेर लिया और एक तगड़े आदमी ने सामने आ कर कहा– इन्हीं की गरदन पर बेगुनाहों का खून है।
सैकड़ों स्वरों से निकला– मोटर से खींच लो, जरा इसकी खिदमत कर दी जाये, इसने जितने रुपये लिये हैं, सब इसके पेट से निकाल लो।
उसी वृहद्काय पुरुष ने इर्फान अली का पहुँचा पकड़ कर इतने जोर से झटक दिया कि वह बेचारे गाड़ी से बाहर निकल पड़े। जब तक मोटर में थे क्रोध से चेहरा लाल हो रहा था। बाहर आ कर धक्के खाये तो प्राण सूख गये। दया प्रार्थी नेत्रों से प्रेमशंकर को देखा। वह हैरान थे कि क्या करूँ? उन्हें पहले कभी ऐसी समस्या हल नहीं करनी पड़ी थी और न उस श्रद्धा का ही कुछ ज्ञान था जो लोगों की उनमें थी। हाँ वह सेवा-भाव जो दीन जनों की रक्षा के लिए उद्यत रहता था, सजग हो गया। उन्होंने इर्फान अली का दूसरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा और क्रोधोन्मत्त हो कर बोले, क्या करते हो, हाथ छोड़ दो।
एक पहलवान युवक बोला, इनकी गर्दन पर गाँव भर का खून सवार है।
प्रेमशंकर– खून इनकी गर्दन पर नहीं, इनके पेशे की गर्दन पर सवार है।
युवक– इनसे कहिए, इस पेशे को छोड़ दें।
कई कंठों से आवाज आयी, बिना कुछ जलपान किये इनकी अकल ठिकाने न आयगी। सैकड़ों आवाजें आयीं– हाँ-हाँ, लगे! बेभाव की पड़े।
प्रेमशंकर ने गरज कर कहा– खबरदार, जो एक हाथ भी उठा, नहीं तो तुम्हें यहाँ मेरी लाश दिखाई पड़ेगी। जब तक मुझमें खड़े होने की शक्ति है, तुम इनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते।
इस वीरोचित ललकार ने तत्क्षण असर किया। लोग डॉक्टर साहब के पास से हट गये हाँ, उनकी सेवा-सत्कार के ऐसे सुन्दर अवसर के हाथ से निकल जाने पर आपस में कानाफूसी करते रहे। डॉक्टर साहब ने ज्यों ही मैदान साफ पाया, कृतज्ञ नेत्रों से प्रेमशंकर को देखा और मोटर पर बैठकर हवा हो गये। हजारों आदमियों ने तालियाँ बजायीं– भागा! भागा!!
प्रेमशंकर बड़े संकट में पड़े हुए थे। प्रति क्षण शंका होती थी कि ये लोग न जाने क्या ऊधम मचायें। किसी बग्घी फिटिन को आते देखकर उसका दिल धड़कने लगता कि ये लोग उसे रोक न लें। वह किसी तरह उनसे पीछा-छुड़ाना चाहते थे, पर इसका कोई उपाय न सूझता था। हजारों झल्लाएँ हुए आदमियों को काबू में लाना कठिन था। सोचते थे, अब की तो मेरी धमकी ने काम किया, कौन कह सकता है कि दूसरी बार भी वह उपयुक्त होगी। कहीं पुलिस आ गयी तो अनर्थ ही हो जायेगा। अवश्य दो-चार आदमियों की जान पर आ बनेगी। वह इन्हीं चिन्ताओं में डूबे हुए आगे बढ़े। रास्ते में डाक्टर प्रियनाथ का बँगला था। वह इस वक्त बरामदे में टहल रहे थे। टेनिस का रैकेट हाथ में था। शायद गाड़ी की राह देख रहे थे। यह भीड़-भाड़ देखी तो अपने फाटक पर आ कर खड़े हो गये।
सहसा किसी ने कहा– जरा इनकी खबर लेते चलो। सच पूछिए तो इन्हीं महाशय ने बेचारों की गर्दन काटी है।
कई आदमियों ने इसका अनुमोदन किया– हाँ-हाँ, पकड़ लो जाने न पाये।
जब तक प्रेमशंकर डाक्टर साहब के पास पहुँचे तब तक सैकड़ों आदमियों ने उन्हें घेर लिया। उसी बलिष्ठ युवक ने आगे बढ़कर डॉक्टर साहब के हाथ से रैकेट छीन लिया और कहा– बताइए साहब, लखनपुर के मामले में कितनी रिश्वत खायी है।
कई आदमियों ने कहा– बोलते क्यों नहीं; कितने रुपये उड़ाये थे?
डॉक्टर महोदय ने चिल्ला-चिल्ला कर नौकरों को पुकारना शुरू किया किन्तु नौकरों ने आना उचित न समझा।
एक आदमी बोला– यह बिना समझावन-बुझावन के न बतायेंगे।
प्रियनाथ– मैं तुम सबको जेल भिजवा दूँगा, रैसकल्स!
डॉक्टर साहब ने भय दिखला कर काम निकालना चाहा, पर यह न समझे कि साधारणतः जो लोग आँख के इशारे पर काँप उठते हैं वे विद्रोह के समय गोलियों की भी परवाह नहीं करते। उनके मुँह से इतना निकला था कि लोगों के तेवर बदल गये। शोर मचा, जाने न पाये, मार कर गिरा दो, देखा जायेगा।
इतने में प्रेमशंकर डॉक्टर साहब के पास कर खड़े हो गये। सैकड़ों लाठियां, छतरियाँ और छड़ियाँ उठ चुकी थीं। प्रेमशंकर को सम्मुख देखकर सब की-सब हवा में रह गईं, केवल एक लाठी न रुक सकी, वह प्रेमशंकर के कंधे में जोर से लगी।
उसी बलिष्ठ युवक ने डॉक्टर साहब को धिक्कार कर कहा, ‘उनके पीछे क्या चोरों की तरह छिपे खड़े हो। सामने आ जाओ तो मजा चखा दूँ। खूब रिश्वतें ले-ले कर खफीफ को शदीद और शदीद को खफीफ बनाया।
अभी यह वाक्य पूरा न होने पाया कि लोगों ने प्रेमशंकर को लड़खड़ा कर जमीन पर गिरते देखा। किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं, पर सबको किसी अनिष्ट की सूचना हो गयी। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लोगों की उद्दंडता शंका में परिवर्तित हो गयी। लोग पूछने लगे, यह किसकी लाठी थी, यह किसने मारा? उसके हाथ तोड़ दो, पकड़ कर गर्दन मरोड़ दो, किसकी लाठी थी? सामने क्यों नहीं आता? क्या ज्यादा चोट आयी?
सहसा डॉ. प्रियनाथ ने उच्च स्वर से कहा, अधमरा ही क्यों छोड़ दिया? एक लाठी और क्यों न जड़ दी कि काम तमाम हो जाता? मूर्खों! तुम्हारा अपराधी तो मैं था, ‘इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?
यह कहकर वह प्रेमशंकर के पास घुटनों के बल बैठ गये और घाव को भली भाँति देखा। कंधे की हड्डी टूट गयी थी। तुरन्त रूमाल निकाल कर कंधे में पट्टी बाँधी। तब अस्पताल जाकर एक चारपाई लिवा लाये और प्रेमशंकर को उठाकर ले गये। हजारों आदमी अस्पताल के सामने चिन्ता में डूब खड़े थे। सबको यही भय हो रहा था कि कहीं चोट ज्यादा न आ गयी हो। लेकिन जब डॉक्टर साहब ने मरहम पट्टी के बाद आ कर कहा, चोट तो बहुत ज्यादा आयी आयी है, कन्धे की हड्डी टूट गयी है; लेकिन आशा है कि बहुत जल्द अच्छे हो जायँगे तब लोगों के चित्त शान्त हुए। एक-एक करके सभी वहाँ से चले गये।
लाला प्रभाशंकर को ज्योंही यह शोक सम्वाद मिला वह दौड़े हुए आये और प्रेमशंकर के पास बैठ कर देर तक रोते रहे। प्रेमशंकर सचेत हो गये थे। हाँ, विषम-पीड़ा से विकल थे डॉक्टर ने बोलने या हिलने को मना कर दिया था, इसलिए चुपचाप पड़े हुए थे। लेकिन जब प्रभाशंकर को बहुत अधीर देखा तो धीरे से बोले आप घबरायें नहीं मैं जल्द अच्छा हो जाऊँगा। कन्धों में दर्द हो रहा है। इसके सिवा मुझे और कोई कष्ट नहीं है। ये बातें सुनकर प्रभाशंकर को तस्कीन हुई। चलते समय उन्होंने डॉक्टर साहब के पास जा कर बड़े विनीत भाव से कहा– बाबूजी, यह लड़का मेरे कुल का दीपक है। आप इस पर कृपा-दृष्टि रखिएगा। इसके प्राण बच गये तो यथाशक्ति आपकी सेवा करने में कोई बात उठा न रखूँगा। यद्यपि मैं किसी लायक नहीं हूँ तथापि अपने से जो कुछ हो सकेगा वह अवश्य आपकी भेंट करूँगा।
प्रियनाथ ने कहा– लाला जी, आप यह क्या कहते हैं? अगर मैं इनकी सेवा सुश्रुषा में तन-मन से न लगूँ तो मुझसे ज्यादा कृतघ्न प्राणी संसार में न होगा। मेरे ही कारण इन्हें यह चोट आयी है। अगर यह वहाँ न होते तो मेरी हड्डियों का भी पता न मिलता। इन्होंने जान पर खेल कर मेरी प्राण-रक्षा की। इनका एहसान कभी मेरे सिर से नहीं उतर सकता।
तीन-चार दिन में प्रेमशंकर इतने स्वस्थ हो गये कि तकिये के सहारे बैठ सकें। लकड़ी ले कर औषधालय के बरामदे में टहलने भी लगे। उनका कुशल समाचार पूछने के लिए प्रतिदिन शहर के सैकड़ों आदमी प्रतिदिन आते रहते थे। प्रेमशंकर सबसे डॉक्टर साहब की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते। प्रियनाथ के सेवा-भाव ने उन्हें मोहित कर दिया था। वह दिन में कई बार उन्हें देखने आते। कभी-कभी समाचार-पत्र पढ़ कर सुनाते, उनके लिए अपने घर में विशेष रीति से भोजन बनवाते। प्रेमशंकर मन में बहुत लज्जित थे कि ऐसे सज्जन, ऐसे देवतुल्य पुरुष के विषय में मैंने क्यों अनुचित सन्देह किये। वह अपनी विमल श्रद्धा से उस अभक्ति की पूर्ति कर रहे थे।
एक सप्ताह बीत चुका था। प्रेमशंकर उदास बैठे हुए सोच रहे थे कि उस दीन अभियुक्तों का अब क्या हाल होगा? मैं यहाँ पड़ा हूँ। अपीलों का अभी तक कुछ निश्चय न हो सका और अपील होगी कैसे? इतने रुपये कहाँ से आयेंगे? आजकल तो न्याय गरीबों के लिए एक अलभ्य वस्तु हो गया है। पग-पग पर रुपये का खर्च। और यह क्या मालूम कि अपील का नतीजा हमारे अनुकूल होगा। कहीं यें ही सजाएँ बहाल रह गयी तो अपील करना निष्फल हो जायेगा; लेकिन कुछ भी हो अपील करनी चाहिए। रुपए का कोई उपाय निकल ही आयेगा। और कुछ न होगा तो दूकान-दूकान और घर-घर घूमकर चन्दा मागूँगा। दीनों से स्वभावतः लोगों की सहानुभूति होती है। सम्भव है काफी धन हाथ आ जाय। ज्ञानशंकर को बुरा लगेगा लगे, इसमें मेरा कुछ बस नहीं। क्या उन्हें इस दुर्घटना की खबर न मिली होगी? आना तो दूर रहा, एक पत्र भी न लिखा कि मुझे तस्कीन होती।
वह इन विचारों में मग्न थे कि प्रियनाथ आ गये और बोले, आप इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। थोड़ी-सी चाय पी लीजिए, चित्त प्रसन्न हो जायें।
प्रेमशंकर– जी नहीं, बिलकुल इच्छा नहीं है। आप मुझे यहाँ से कब तक विदा करेंगे?
प्रियनाथ– अभी शायद आपको यहाँ एक सप्ताह और नजरबन्द रहना पड़ेगा, अभी हड्डी के जुड़ने के थोड़ी कसर है, और फिर ऐसी जल्दी क्या है। यह भी तो आपका ही घर है।
प्रेमशंकर– आप मेरे सिर पर उपकारों का इतना बोझ रखते जाते हैं कि मैं शायद हिल भी न सकूँ। यह आपकी कृपा, स्नेह और शालीनता का फल है कि मुझे पीड़ा का कष्ट कभी जान ही न पड़ा। मुझे याद नहीं आता कि इतनी शांति कहीं और मिली हो। आपकी हार्दिक समवेदना ने मुझे दिखा दिया की संसार में भी देवताओं का वास हो सकता है। सभ्य जगत् पर से मेरा विश्वास उठ गया था। आपने उसे फिर जीवित कर दिया।
प्रेमशंकर की नम्रता और सरलता डॉक्टर महोदय के हृदय को दिनोंदिन मोहित करती जाती थी। ऐसे शुद्धात्मा, साधु और निःस्पृह पुरुष का श्रद्धा-पात्र बन कर उनकी क्षुद्रताएँ और मलितनाएँ आप ही आप मिटती जाती थीं। वह ज्योति दीप की भाँति उनके अन्तःकरण के अँधेरे को विच्छिन्न किये देती थी। इस श्रद्धा रत्न को पा कर ऐसे मुग्ध थे, जैसे कोई दरिद्र पुरुष अनायास कोई सम्पत्ति पा जाये। उन्हें सदैव यही चिन्ता रहती थी कि कहीं यह रत्न मेरे हाथ से निकल न जाये। उन्हें कई दिनों से यह इच्छा हो रही थी कि लखनपुर के मुकदमे के विषय में प्रेमशंकर से अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दें, पर इसका कोई अवसर न पाते थे। इस समय अवसर पा कर बोले, आप मुझे बहुत लज्जित कर रहे हैं। किसी दूसरे सज्जन के मुँह से ये बातें सुनकर मैं अवश्य समझता कि वह मुझे बना रहा हैं। आप मुझे उससे कहीं ज्यादा विवेक-परायण और सचरित्र समझ रहे हैं, जितना मैं हूँ। साधारण मनुष्यों की भांति लोभ से ग्रसित, इच्छाओं का दास और इन्द्रियों का भक्त हूँ। मैंने अपने जीवन में घोर पाप किये हैं। यदि वह आपसे बयान करूँ तो आप चाहे कितने ही उदार क्यों न हो, मुझे तुरन्त नजरों से गिरा देंगे। मैं स्वयं अपने कुकृत्यों का परदा बना हुआ हूँ, इन्हें बाह्य आडम्बरों से ढाँके हुए हूँ, लेकिन इस मुकदमें के संबंध में जनता ने मुझे कितना बदनाम कर रखा है, उसका मैं भागी नहीं हूँ। मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि मुझ पर जो आक्षेप किये गये हैं वे सर्वथा निर्मूल हैं। सम्भव है हत्या निरूपण में मुझे भ्रम हुआ हो। और अवश्य हुआ है, लेकिन मैं इतना निर्दय और विवेकहीन नहीं हूँ कि अपने स्वार्थ के लिए इतने निरपराधियों का गला काटता। यह मेरी दासवृत्ति है। जिसने मेरे माथे पर अपयश का टीका लगा दिया।
प्रेमशंकर ने ग्लानिमय भाव से कहा– भाई साहब, आपकी इस बदनामी का सारा दोष मेरे सिर है। मैं ही आपका अपराधी हूं। मैंने ही दूसरों के कहने में आकर आप पर अनुचित सन्देह किये। इसका मुझे जितना दुःख और खेद है वह आप से कह नहीं सकता। आप जैसे साधु पुरुष पर ऐसा घोर अन्याय करने के लिए परमात्मा मुझे न जाने क्या दंड देंगे। पर आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि मेरी अल्पज्ञता पर विचार कर मुझे क्षमा कीजिए।
प्रियनाथ के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। प्रेमशंकर इसके दो-चार दिन बाद हाजीपुर लौट आये, पर डॉक्टर साहब रोज सन्ध्या समय उनसे मिलने आया करते। अब वह पहले से कहीं ज्यादा कर्त्तव्य-परायण हो गये थे। दस बजे के पहले प्रातःकाल चिकित्सा भवन में आ बैठते, रोगियों की दशा ध्यान से देखते, उन्हें सान्त्वना देते। इतना ही नहीं, पहले वह पूरी फीस लिये बिना जगह से हिलते न थे, अब बहुधा गरीबों को देखने बिना फीस लिये ही चले जाते। छोटे-छोटे कर्मचारियों से आधी ही फीस लेते। नगर की सफाई का नियमानुसार निरीक्षण करते। जिस गली या सड़क से निकल जाते, लोग बड़े आदर से उन्हें सलाम करते। चन्द ही महीनों में सारे नगर में उनका बखान होने लगा। काशी का प्रसिद्ध समाचार-पत्र ‘गौरव’ उनका पुराना शत्रु था। पहले उन पर खूब चोटें किया करता था। अब वह भी उनका भक्त हो गया। उसने अपने अपने एक लेख में यह आलोचना की, ‘काशी’ के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि बहुत दिनों के बाद उसे ऐसा प्रजावत्सल, ऐसा सहृदय, ऐसा कर्त्तव्यपरायण डॉक्टर मिला। चिकित्सा का लक्ष्य धनोपार्जन नहीं, यशोपार्जन होना चाहिए और महाशय प्रियनाथ ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया है कि वह इस उच्चादर्श का पालन करना अपना ध्येय समझते हैं।’ डॉक्टर साहब को सुकीर्ति का स्वाद मिल गया। अब दीनों की सेवा से उनका चित्त जितना उल्लसित होता था उतना पहले संचित धन की बढ़ती हुई संख्याओं से भी न हुआ था। यद्यपि धन की तृष्णा से वह अभी मुक्त नहीं हुए थे, पर कीर्ति-लाभ की सदिच्छा ने धन-लिप्सा को परास्त कर दिया था। प्रेमशंकर के सम्मुख जाते ही उनका हृदय ओस बिन्दुओं से धुले हुए फूलों के सदृश निर्मल हो जाता, निखर उठता। उस सरल सन्तोषमय, कामना-रहित जीवन के सामने उन्हें अपनी धन-लालसा। तुच्छ मालूम होने लगती थी। सन्तान की चिन्ता का बोझ कुछ हलका हो जाता था। जब इस दशा में भी हम सन्तुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं, यशस्वी बन सकते हैं, दूसरों की सहायता कर सकते हैं, प्रेम औऱ श्रद्धा के पात्र बन सकते हैं, तो फिर धन पर जान देना व्यर्थ है। उन्हें ज्ञात होता था कि सफल जीवन के लिए धन कोई अनिवार्य साधन नहीं है। उन्हें खेद होता था कि मेरी आवश्यकताएँ क्यों इतनी बढ़ी हुई हैं, मैं डॉक्टर हो कर रसना का दास क्यों बना हूँ, सुन्दर वस्त्रों पर क्यों मारता हूँ! इन्हीं के कारण तो मैं सारे नगर में बदनाम था। लोभी, स्वार्थी निर्दय बना हुआ था और अब भी हूँ। लोगों को शंका होती थी कि कहीं यह रोग को बढ़ा न दें, इसलिए जल्दी कोई मुझे बुलाता न था। इन विचारों का डॉक्टर साहब के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ने लगा।
एक दिन डॉक्टर साहब किसी मरीज को देखकर लौटते हुए प्रेमशंकर की कृषिशाला के सामने से निकले। दस बजे गये थे। धूप तेज थी। सूर्य की प्रखर किरणें आकाश मंडल को वाणों से छेदती हुई जान पड़ती थीं। डॉक्टर साहब के जी में आया, देखता चलूँ क्या कर रहे हैं? अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह अपने झोंपड़े के सामने वृक्ष के नीचे खड़े गेहूँ के पोले बिखेर रहे थे। कई मजूर छौनी कर रहे थे। प्रियनाथ को देखते ही प्रेमशंकर झोंपड़े में आ गये और बोले धूप तेज है।
प्रियनाथ– लेकिन आप तो इस तरह काम में लगे हुए हैं मानों धूप है ही नहीं।
प्रेम– उन मजूरों को देखिए! धूप की कुछ परवाह नहीं करते।
प्रिय– वे मजूर हैं, इसके आदी हैं।
प्रियनाथ– हमें इस कृत्रिम जीवन ने चौपट कर दिया, नहीं तो हम भी ऐसे ही आदमी होते और श्रम को बुरा न समझते।
प्रेमशंकर कुछ और कहना चाहते थे कि इतने में दो वृद्धाएँ सिर पर लकड़ी के गट्ठे, रखे आयीं और पूछने लगीं– सरकार, लकड़ी ले लो। इन स्त्रियों के पीछे-पीछे लड़के भी लकड़ी के बोझ लिये हुए थे। सबों के कपड़े तरबतर हो रहे थे। छाती पर पसली की हड्डियाँ निकली हुई थीं। ओठ सूखे हुए, देह पर मैल जमी हुई उस पर सूखे हुए पसीने की धारियाँ सी बन गयी थीं। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम पूछे, सबके गट्ठे उतरवा लिये, लेकिन देखा तो सन्दूक में पैसे न थे। गुमाश्ता को रुपया भुनाने को दिया। दोनों वृद्धाएँ वृक्ष के नीचे छाँह में बैठ गईं और लड़के बिखरे हुए दाने चुन-चुन कर खाने लगे। प्रेमशंकर को उन पर दया आ गयी। थोड़े-थोड़े मटर सब लड़कों को दे दिये। दोनों स्त्रियाँ आशीष देती हुई बोलीं– बाबू जी, नारायण तुम्हें सदा सुखी रखें। इन बेचारों ने अभी कलेवा नहीं किया है।
प्रेम– तुम्हारा घर कहाँ है?
एक बुढ़िया– सरकार, लखनपुर का नाम सुना होगा।
प्रियनाथ– आपने गट्ठे देखे नहीं, सबों ने खूब कैची लगायी है।
प्रेमशंकर– दरिद्रता सब कुछ करा देती है। (वृद्धा से) तुम लोग इतनी दूर लकड़ी बेचने आ जाती हो?
वृद्धा– क्या करें मालिक, बीच कोई बस्ती नहीं है। घड़ी रात के चले हैं, दुपहरी हो गयी, किसी पेड़ के नीचे पड़े रहेंगे, दिन ढलेगा तो साँझ तक घर पहुँचेंगे। करम का लिखा भोग है! जो कभी न करना था, वह मरते समय करना पड़ा!
प्रेम– आजकल गाँव का क्या हाल है?
वृद्ध– क्या हाल बतायें सरकार, ज़मींदार की निगाह टेढ़ी हो गयी, सारा गाँव बँध गया, कोई डामिल गया, कोई कैद हो गया। उनके बाल-बच्चे अब दाने-दाने को तरस रहे हैं। मेरे दो बेटे थे। दो हल की खेती होती थी। एक तो डामिल गया। दूसरे ही साल भर से कुछ टोह ही नहीं मिली। बैल थे, वे चारे बिना टूट गये। खेती-बाड़ी कौन करे? बहुएँ हैं, वे बाहर आ-जा नहीं सकतीं। मैं ही उपले बेंच कर ले जाती हूँ तो सबके मुँह में दाना पड़ता है। पोते थे, उन्हें भगवान् ने उन्हें पहले ही ले लिया। बुढ़ापे में यही भोगना लिखा था।
प्रेम– तुम डपटसिंह की माँ तो नहीं हो?
वृद्धा– हाँ सरकार, आप कैसे जानते हो?
प्रेम– ताऊन के दिनों में जब तुम्हारे पोते बीमार थे तब मैं वहीं था। कई बेर और हो आया हूँ तुमने मुझे पहचाना नहीं? मेरा नाम प्रेमशंकर है।
वृद्धा ने थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया। दीनता की जगह लज्जा का हल्का-सा रंग चेहरे पर आ गया बोली हाँ बेटा, अब मैंने पहचाना। आँखों से अच्छी तरह सूझता नहीं। भैया, तुम जुग-जुग जियो। आज सारा गाँव तुम्हारा यश गा रहा है। तुमने अपनी वाली कर दी, पर भाग में जो कुछ लिखा था वह कैसे टलता? बेटा! सारे गाँव में हाहाकार मचा हुआ है। दुखरन भगत को तो जानते ही होगे? यह बुढ़िया उन्हीं की घरवाली है। पुराना खाती थी, नया रखती थी। अब घर में कुछ नहीं रहा। यह दोनों लड़के बंधू के हैं, एक रंगी का लड़का है और ये दोनों कादिर मिया के पोते हैं। न जाने क्या हो गया कि घर से मरदों के जाते ही जैसे बरक्कत ही उठ गयी। सुनती थी कि कादिर मियाँ के पास बड़ा धन है; पर इतने ही दिनों में यह हाल हो गया कि लड़के मजदूरी न करें तो मुँह में मक्खी आये-जाये। भगवान् इस कलमुँह फैजू का सत्यानाश करे, इसने और भी अन्धेर मचा रखा है! अब तक तो उसने गाँव-भर को बेदखल कर दिया होता, पर नारायण सुक्खू चौधरी का भला करे जिन्होंने सारी बाकी कौड़ी पाई-पाई चुका दी। पर अबकी उन्होंने ने भी खबर न ली और फिर अकेला आदमी सारे गाँव को कहाँ तक सँभाले? साल-दो साल की बात हो तो निबाह दे, यहाँ तो उम्र भर का रोना है। कारिन्दा अभी से धमका रहे हैं कि अबकि बेदखल करके दम लेंगे। अबकी साल तो कुछ आधे-साझे में खेती हो गयी थी। खेत निकल जायेंगे तो न जाने क्या गति होगी?
यह कहते-कहते बुढ़िया रोने लगी। प्रेमशंकर की आँखें भी भर गईं, पूछा-बिसेसर साह की क्या हाल है?
बुढ़िया– क्या जानूँ भैया, मैंने तो साल भर से उसके द्वार पर झाँका भी नहीं। अब कोई उधर नहीं जाता। ऐसे आदमी का मुँह देखना पाप है। लोग दूसरे गाँव से नोन-तेल लाते हैं। वह भी अब घर से बाहर नहीं निकलता। दूकान उठा दी है। घर में बैठा न जाने क्या-क्या करता है? जो दूसरे को गड्ढा खोदेगा, उसके लिए कुँआ तैयार है। देखा तो नहीं पर सुनती हूँ, जब से यह मामला उठा है उसके घर में किसी को चैन नहीं है। एक न एक परानी के सिर भूत आया ही रहता है। ओझे-सयाने रात-दिन जमा रहते हैं। पूजा-पाठ, जप-तप हुआ करता है। एक दिन बिलासी से रास्ते में मिल गया था। रोने लगा। बहुत पछताया था कि मैंने दूसरों की बातों में आकर यह कुकर्म किया। मनोहर उसके गले पड़ा हुआ है। मारे डर के साँझ से केवाड़ बन्द हो जाता है। रात को बाहर नहीं निकलता। मनोहर रात-दिन उसके द्वार पर खड़ा रहता है, जिसको पाता है उसी को चपेट लेता है। सुनती हूँ, अब गाँव छोड़ कर किसी दूसरे गाँव में बसनेवाला है।
प्रेमशंकर यह बातें सुन कर गहरे सोच में डूब गये। मैं कितना बेपरवाह हूँ। इन बेचारों को सजा पाये हुए साल भर होने आते हैं और मैंने उनके बाल-बच्चों की सुधि तक न ली। वह सब अपने मन में क्या कहते होंगे? ज्ञानशंकर से बात हार चुका हूँ। लेकिन अब वहाँ जाना पड़ेगा। अपने वचन के पीछे इतने दुखियारों को मरने दूँ? यह नहीं हो सकता। इनका जीवन मेरे वचन से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। अकस्मात् बुढ़िया ने कहा– कहो भैया, अब कुछ नहीं हो सकता? लोग कहते हैं, अभी किसी और बड़े हाकिम के यहाँ फरियाद लग सकती है।
प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। धन का प्रबन्ध तो कठिन न था, लेकिन उन्हें अपील से उपकार होने की बहुत कम आशा थी। वकीलों की भी यही राय थी। इसीलिए इस प्रश्न को टाल आते थे। डॉक्टर साहब से भी उन्होंने अपील की चर्चा कभी न की थी। प्रियनाथ उनके मुख की ओर ध्यान से देख रहे थे। उनके मन के भावों को भाँप गये और उनके असमंजस को दूर करने के लिए बोले– हाँ, फरियाद लग सकती है, उसका बन्दोबस्त हो रहा है, धीरज रखो, जल्दी ही अपील दायर कर दी जायेगी।
वृद्ध– बेटा, दूधो नहाव फूतो फलो। सुनती हूँ कोई बड़ा डाक्टर था, उसी ने ज़मींदार से कुछ ले-देकर इन गरीबों को फँसा दिया। न हो, तुम दोनों उसी डॉक्टर के पास जा कर हाथ-पैर जोड़ो, कौन जाने तुम्हारी बात मान जाये। उसके आगे भी तो बाल-बच्चे होंगे? क्यों हम गरीबों को बेकसूर मारता है? किसी की हाय बटोरना अच्छा नहीं होता।
प्रेमशंकर जमीन में गड़े जा रहे थे। डॉक्टर साहब को कितना दुःख हो रहा होगा, अपने मन में कितने लज्जित हो रहे होंगे। कहीं बुढ़िया गाली न देने लगे, इसे कैसे चुप कर दूँ? इन विचारों से वह बहुत विकल हो रहे थे, किन्तु प्रियनाथ के चेहरे पर उदारता झलक रही थी, नेत्रों से वात्सल्य-भाव प्रस्फुटित हो रहा था। मुस्कुराते हुए बोले– हम लोग उस डॉक्टर के पास गये थे। उसे खूब समझाया। है तो लालची, पर कहने-सुनने से राह पर आ गया है, अब सच्ची गवाही देगा।
इतने में मस्ता पैसे ले कर आ गया है। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम दिए। बुढ़िया लकड़ी के साथ आशीर्वाद दे कर चली गयी। द्वार पर पहुँच कर उसने फिर कहा भैया भूल मत जाना, धरम का काम है, तुम्हें बड़ा जस होगा।
उनके चले जाने के बाद कुछ देर तक प्रेमशंकर और प्रियनाथ मौन बैठे रहे। प्रेमशंकर का मुँह संकोच ने बन्द कर दिया था, डॉक्टर का लज्जा ने।
सहसा प्रियनाथ खड़े हो गये और निश्चयात्मक भाव से बोले– भाई साहब, अवश्य अपील कीजिए। आप आज ही इलाहाबाद चले जाइए। आज के दृश्य ने मेरे हृदय को हिला दिया। ईश्वर ने चाहा तो अबकी सत्य की विजय होगी।