रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और माया। एक पंडित जी वेद-मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। गायत्री का चम्पई वर्ण अग्नि-ज्वाला से प्रतिबिम्बित हो कर कुन्दन हो रहा था। फिरोजी रंग की साड़ी उस पर खूब खिल रही थी। सबकी आँखें उसी के मुख-दीपक की ओर लगी हुई थीं। यह माया को गोद लेने का संस्कार था, वह गायत्री का धर्मपुत्र बन रहा था। कुछ सज्जन आपस में कानाफूसी कर रहे थे, कैसा भग्यावान लड़का है! लाखों की सम्पत्ति का स्वामी बनाया जाता है, यहाँ आज तक एक पैसा भी पड़ा हुआ न मिला। कुछ लोग कह रहे थे– ज्ञानशंकर एक ही बना हुआ आदमी है, ऐसा हत्थे पर चढ़ाया कि जायदाद ले कर ही छोड़ा। अब मालूम हुआ कि महाशय ने स्वाँग किसलिए रचा है। ये जटाएँ इसी दिन के लिए बढ़ायी थीं। कुछ सज्जनों का मत था कि ज्ञानशंकर इससे भी कहीं मलिन हृदय है।
लाला प्रभाशंकर ने पहले यह प्रस्ताव सुना तो बहुत बिगड़े लेकिन जब गायत्री ने बड़ी नम्रता से सारी परिस्थिति प्रकट की तो वह भी नीमराजी से हो गये। हवन के पश्चात दावत शुरू हुई। इसका सारा प्रबन्ध उन्हीं के हाथों में था। उनकी अर्धस्वीकृति को पूर्ण बनाने का इससे उत्तम कोई अन्य उपाय न था। उन्हें पूरा अधिकार दे दिया गया था कि वह जितना चाहे खर्च करें, जो पदार्थ चाहे पकवायें। अतएव इस अवसर पर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पाककला प्रदर्शित कर दी थी। इस समय खुशी से उनकी बाँछे खिली जाती थीं, लोगों के मुँह से भोजन सराहना सुन-सुन कर फूले न समाते थे। इनमें कितने ही ऐसे सज्जन थे जिन्हें भोजन से नितान्त अरुचि रहती थी। जो दावतों में शरीक होना अपने ऊपर अन्याय समझते थे। ऐसे लोग भी थे जो प्रत्येक वस्तु को गिन कर तौल कर खाते थे। पर इन स्वादयुक्त पदार्थों ने तीव्र और मन्द अग्नि में कोई भेद न रखा था। रुचि ने दुर्बल पाचनशक्ति को भी सबल बना दिया था।
दावत समाप्त हो गयी तो गाना शुरू हुआ। अलहदीन एक सात वर्ष का बालक था, लेकिन गानशास्त्र का पूरा पंडित और संगीत कला में अत्यन्त निपुण। यह उसकी ईश्वरदत्त शक्ति थी। जलतरंग, ताऊस, सितार, सरोद, वीणा, पखावज, सारंगी-सभी यन्त्रों पर उसका विलक्षण आधिपत्य था। इतनी अल्पावस्था में उसकी यह अलौकिक सिद्धि देख कर लोग विस्मित हो जाते थे। जिन गायनाचार्यों ने एक-एक यन्त्र की सिद्धि में अपना जीवन बिता दिया वह भी उसके हाथों की सफाई और कोमलता पर सिर धुनते थे। उसकी बहुज्ञता, उनकी विशेषता को लज्जति किये देती थी। इस समय समस्त भारत में उसकी ख्याति थी, मानों उसने दिग्विजय कर लिया हो। ज्ञानशंकर ने उस उत्सव पर उसे कलकत्ते से बुलाया था। वह बहुत दुर्बल, कुत्सित, कुरुप बालक था, पर उसका गुण उसके रूप को भी चमत्कृत कर देता था। उसके स्वर में कोयल की कूक का सा माधुर्य था। सारी सभा मुग्ध हो गयी।
इधर तो यह राग-रंग था, उधर विद्या अपने कमरे में बैठी हुई भाग्य को रो रही थी। तबले की एक-एक थाप उसके हृदय पर हथौड़े की चोट के समान लगती थी। वह एक गर्वशाली धर्मनिष्ठा संतोष और त्याग के आदर्श का पालन करने वाली महिला थी। यद्यपि पति की स्वार्थभक्ति से उसे घृणा थी, पर इस भाव को वह अपनी पति-सेवा में बाधक न होने देती थी। पर जब से उसने राय साहब के मुँह से ज्ञानशंकर के नैतिक अधःपतन का वृत्तांत सुना था तब से उसकी पति-श्रद्धा क्षीण हो गयी थी! रात का लज्जास्पद दृश्य देखकर बची-खुची श्रद्धा भी जाती रही। जब ज्ञानशंकर के देखकर गायत्री दीवानखाने के द्वार पर आकर फिर उनके पास चली गयी तो विद्या वहाँ न ठहर सकी। वह उन्माद की दशा में तेजी से ऊपर आयी और अपने कमरे में फर्श पर गिर पड़ी। यह ईर्ष्या का भाव न था जिसमें अहित चिन्ता होती है, यह प्रीति का भाव न था जिसमें रक्त की तृष्णा होती है। यह अपने आपको जलानेवाली आग थी, यह वह विघातक क्रोध था जो अपना ही होठ चबाता है, अपना ही चमड़ा नोचता है, अपने ही अंगों को दाँतों से काटता है। वह भूमि पर पड़ी सारी रात रोती रही। अब मैं किसकी होकर रहूँ? मेरा पति नहीं, मेरा घर अब मेरा घर नहीं। मैं अब अनाथ हूँ, कोई मेरा पूछनेवाला नहीं। ईश्वर! तुमने किस पाप का मुझे दंड दिया? मैंने तो अपने जानते किसी का बुरा नहीं चेता। तुमने मेरा सर्वनाश क्यों किया? मेरा सुहाग क्यों लूट लिया? यही मेरे पास एक धन था, इसी का मुझे अभिमान था, इसी का मुझे बल था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया, मेरा बल हर लिया। जब आग ही नहीं तो राख किस काम की। यह सुहाग की पिटारी है, यह सुहाग की डिबिया है, इन्हें ले कर क्या करूँ? विद्या ने सुहाग की पिटारी ताक पर से उतार ली और उसी आत्मवेदना और नैराश्य की दशा में उनकी एक-एक चीज खिड़की से नीचे बाग में फेंक दी। कितना करुणाजनक दृश्य था? आँखों से अश्रु-धारा बह रही थी और वह अपनी चूडियाँ तोड़-तोड़ कर जमीन पर फेंक रही थी। वह उसके निर्बल क्रोध की चरम सीमा थी! वह एक ऐश्वर्यशाली पिता की पुत्री थी, यहाँ उसे इतना आराम भी न था जो उसके मैके की महरियों को था, लेकिन उसके स्वभाव में संतोष और धैर्य था, अपनी दशा से संतुष्ट थी। ज्ञानशंकर स्वार्थ-सेवी थे, लोभी थे, निष्ठुर थे, कर्त्तव्यहीन थे, इसका उसे शोक था। मगर अपने थे, उसको समझाने का, उनका तिरष्कार करने का उसे अधिकार था। उनकी दुष्टता, नीचता और भोग-विप्सा का हाल सुन कर उसके शरीर में आग-सी लग गयी थी। वह लखनऊ से दामिनी बनी हुई आयी। वह ज्ञानशंकर पर तड़पना और उनकी कुवृत्तियों को भस्सीभूत कर देना चाहती थी, वह उन्हें व्यंग्य-शेरों से छेदना और कटु शब्दों से उनके हृदय को बेधना चाहती थी। इस वक्त तक उसे अपने सोहाग का अभिमान था। रात के आठ बजे तक वह ज्ञानशंकर को अपना समझती थी, अपने को उन्हें कोसने की, उन्हें जलाने की अधिकारिणी समझती थी, उसे उनको लज्जित, अपमानित करने का हक था, क्योंकि वह अपने थे। हमसे अपने घर में आग लगते नहीं देखा जाता। घर चाहे मिट्टी का ढेर ही क्यों न हो, खण्डहर ही क्यों न हो, हम उसे आग में जलते नहीं देख सकते। लेकिन जब किसी कारण से वह घर अपना न रहे तो फिर चाहे अग्नि-शिखा आकाश तक जाये, हमको शोक नहीं होता। रात के निन्द्य घृणित दृश्य ने विद्या के दिल से इस अपनेपन को, इस ममत्व को मिटा दिया था। अब उसे दुःख था तो अपने अभाग्य का, शोक था तो अपनी अवलम्बहीनता का। उसकी दशा उस पतंग सी थी, जिसकी डोर टूट गयी हो, अथवा उस वृक्ष सी जिसकी जड़ कट गयी हो।
विद्या सारी रात इसी उद्वग्नि दशा में पड़ी रही। कभी सोचती लखनऊ चली जाऊँ और वहाँ जीवनक्षेप करूँ, कभी सोचती जीकर करना ही क्या है, ऐसे जीने से मरना क्या बुरा है? सारी रात आँखों में कट गई। दिन निकल आया, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था। इतने में श्रद्धा आकर खड़ी हो गई और उसके श्रीहीन मुख की ओर देखकर बोली– आज सारी रात जागती रही? आँखें लाल हो रही हैं।
विद्या ने आँखें नीची करके कहाँ– हाँ, आज नींद नहीं आई।
श्रद्धा– गायत्री देवी से कुछ बातचीत नहीं हुई। मुझे तो ढंग ही निराले दीखते हैं। तुम तो इनकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं।
विद्या– क्यों, कोई नयी बात देखी क्या?
श्रद्धा– नित्य ही देखती हूँ। लेकिन रात जो दृश्य देखा और जो बातें सुनी वह कहते लज्जा आती है। कोई ग्यारह बजे होंगे। मुझे अपने कमरे में पड़े-पड़े नीचे किसी के बोल-चाल की आहट मिली। डरी कि कहीं चोर न आये हों। धीरे से उठकर नीचे गयी। दीवानखाने में लैम्प जल रहा था। मैंने शीशे से झांका तो मन में कटकर रह गयी। अब तुमसे क्या कहूँ, मैं गायत्री को इतना चंचल न समझती थी। कहाँ तो कृष्णा की उपासना करती है, कहाँ छिछोरापन। मैं तो उन्हें देखते ही मन में खटक गई थी, पर यह न जानती थी कि इतने गहरे पानी में है।
विद्या– मैंने भी तो कुछ ऐसा तमाशा देखा था। तुम मेरे आने के बहुत देर पीछे गई थी। मुझे लखनऊ में ही सारी कथा मालूम हो गयी थी। इसी भयंकर परिणाम को रोकने के लिए मैं वहाँ से दौड़ी आई, किन्तु यहाँ का रंग देखकर हताश हो गई। ये लोग अब मँझधार में पहुँच चुके हैं, इन्हें बचाना दुस्तर है। लेकिन मैं फिर कहूँगी कि इसमें गायत्री बहिन का दोष नहीं, सारी करतूत इन्हीं महाशय की है जो जटा बढ़ाए पीताम्बर पहने भगत जी बने फिरते हैं। गायत्री बेचारी सीधी-सादी, सरल स्वभाव की स्त्री है। धर्म की ओर उसकी विशेष रुचि है, इसीलिए यह महाशय भी भगत बन बैठे और यह भेष धारण करके उस पर अपना मन्त्र चलाया। ऐसा पापात्मा संसार में न होगा। बहिन, तुमसे दिल की बात कहती हूँ, मुझे इनकी सूरत से घृणा हो गयी। मुझ पर ऐसा आघात हुआ है कि मेरा बचना मुश्किल है। इस घोर पाप का दण्ड अवश्य मिलेगा। ईश्वर न करे मुझे इन आँखों से कुल का सर्वनाश देखना पड़े। वह सोने की घड़ी होगी जब संसार से मेरा नाता टूटेगा।
श्रद्धा– किसी की बुराई करना तो अच्छा नहीं है और इसीलिए मैं अब तक सब कुछ देखती हुई भी अन्धी बनी रही, लेकिन अब बिना बोले नहीं रहा जाता। मेरा वश चले तो ऐसी कुटिलाओं का सिर कटवा लूँ। यह भोलापन नहीं है, बेहयाई है। दिखाने के लिए भोली बनी बैठी हुई हैं। पुरुष हजार रसिया हो हजार चतुर हो, हजार घातिया हो, हजार डोरे डाले, किन्तु सती स्त्रियों पर उसका मन्त्र भी नहीं चल सकता। वह आँख ही क्या जो एक निगाह में पुरुष की चाल-ढाल को ताड़ न ले। जलाना आग का गुण है, पर हरी लकड़ी को भी किसी ने जलते देखा है? हया स्त्रियों की जान है, इसके बिना वह सूखी लकड़ी है जिन्हें आग की एक चिनगारी जलाकर राख कर देती है। इसे अपने पति देव की आत्मा पर भी दया न आयी। उसे कितना क्लेश हो रहा होगा? इसके आने से मेरा घर अपवित्र हो गया। रात को दोनों प्रेमियों की बातों की भनक जो मेरे कान में पड़ी, उससे ऐसा कुछ मालूम होता है कि गायत्री माया को गोद लेना चाहती है।
विद्या ने भयभीत होकर कहा– माया को?
श्रद्धा– हाँ, शायद आज ही उसकी तैयारी है! शहर में नेवता भेजे जा रहे हैं।
विद्या की आँखों में आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें दिखाई दीं जैसे मटर की फली में दाने होते हैं। बोली– बहिन तब तो मेरी नाव डूब गयी। जो कुछ होना था हो चुका। अब सारी स्थिति समझ में आ गई। इस धू्र्त ने इसीलिए यह जाल फैलाया था, इसीलिए इसने यह भेष रचा है, इसी नीयत से इसने गायत्री की गुलामी की थी। मैं पहले ही डरती थी। कितना समझाया, कितना मना किया, पर इसने मेरी एक न सुनी। अब मालूम हुआ कि इसके मन में क्या ठनी थी। आज सात साल से यह इसी धुन में पड़ा हुआ है। अभी तक मैं यह समझती थी कि इसे गायत्री के रंग-रूप, बनाव-चुनाव, बातचीत ने मोहित कर लिया है। वह निन्द्य कर्म होने पर भी घृणा के योग्य नहीं है। जो प्राणी प्रेम कर सकता है वह धर्म, दया विनय आदि सद्गुणों से शून्य नहीं हो सकता, प्रेम का स्वाँग भर कर उससे अपना कुटिल अर्थ सिद्ध करता है, जो टट्टी की आड़ से शिकार खेलता है, उससे ज्यादा नीच, नराधम कोई हो ही नहीं सकता। वह उस डाकू से भी गया बीता है जो धन के लिए लोगों के प्राण हर लेता है। वह प्रेम जैसी पवित्र वस्तु का अपमान करता है। उसका पाप अक्षम्य है। मैं बेचारी गायत्री को अब भी निर्दोष समझती हूँ। बहिन, अब इस कुल का सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। जहाँ इतना अधर्म, इतना पाप, इतना छल-कपट हो, वहाँ सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। जहाँ इतना अधर्म, इतना पाप, इतना छल-कपट हो, वहाँ कल्याण कैसे हो सकता है? अब मुझे पिता जी की चेतावनी याद आ रही है। उन्होंने चलते समय मुझसे कहा था– अगर तूने यह आग न बुझाई तो तेरे वंश का नाम मिट जायेगा। हाय! मेरे रोएँ खड़े हो रहे हैं! बेचारे माया पर क्या बीतेगी? यह हराम का माल, यह हराम की जायदाद उसकी जान की ग्राहक हो जायेगी, सर्प बनकर उसे डँस लेगी? बहिन, मेरा कलेजा फटा जाता है। मैं अपने माया को इस आग से क्योंकर बचाऊँ? वह मेरी आँखों की पुतली है, वही मेरे प्राणों का आधार है। यह निर्दयी पिशाच, यह बधिक मेरे लाल की गर्दन पर छुरी चला रहा है। कैसे उसे गोद में छिपा लूँ? कैसे उसे हृदय में बिठा लूँ? बाप होकर उसको विष दे रहा है। पाप का अग्निकुण्ड जलाकर मेरे लाल को उसमें झोंक देता है। मैं अपनी आँखों यह सर्वनाश नहीं देख सकती? बहिन तुमसे आज कहती हूँ, मुन्नी के जन्म के बाद इस पापी ने मुझे न जाने क्या खिलाकर मेरी कोख हर ली, न जाने कौन सा अनुष्ठान कर दिया? वही विष इसने पहले ही खिला दिया होता, वही अनुष्ठान पहले ही करा दिया होता तो आज यह दिन क्यों आता? बाँझ रहना इससे कहीं अच्छा है कि सन्तान गोद से छिन जाय। हाय मेरे लाल को कौन बचाएगा? मैं अब उसे नहीं बचा सकती। आग की लपटें उसकी ओर दौड़ी चली आती हैं। बहिन, तुम जाकर उस निर्दयी को समझाओ। अगर अब भी हो सके तो मेरे माया को बचा लो। नहीं, अब तुम्हारे बस की बात नहीं है, यह पिशाच अब किसी के समझाने से न मानेगा। उसने मन में ठान लिया है तो आज जी सब कुछ कर डालेगा।
यह कहते-कहते वह उठी और खिड़की से नीचे देखा। दीवानखाने के समाने वाले सहन की सफाई हो रही थी, दरियाँ झाड़ी जा रही थीं। उसकी आँखें माया को खोज रही थीं, वह माया को अपने हृदय से चिपटाना चाहती थी। माया न दिखायी दिया। एक क्षण में मोटर सहन में आयी, गायत्री और ज्ञानशंकर उस पर बैठे। माया भी एक मिनट में दीवानखाने से निकला और मोटर पर आ बैठा। विद्या ने आतुरता से पुकारा– माया, माया! यहाँ आओ! लेकिन या तो माया ने सुना ही नहीं, या सुनकर ध्यान ही नहीं दिया। वह खड़ी पुकारती ही रही और मोटर हवा हो गयी। विद्या को ऐसा जान पड़ा मानो पानी में पैर फिसल गये। वह तुरन्त पछाड़ खाकर गिर पड़ी। लेकिन श्रद्धा ने सभाल लिया, चोट नहीं आयी।
थोड़ी देर तक विद्या मूर्च्छित दशा में पड़ी रही। श्रद्धा उसका सिर गोद में लिये बैठी रोती रही। मैं अपने को ही अभागिनी समझती थी। इस दुखिया की विपत्ति और भी दुस्सह है। किसी रीति से उन्हें (प्रेमशंकर को) यह खबरें होतीं, तो वह अवश्य गायत्री को समझाते। गायत्री उनका आदर करती हैं। शायद मान जाती; लेकिन इस महापुरुष के सामने उनकी भेंट भी तो गायत्री से नहीं हो सकती। इसी भय से तो घर से बाहर निकल गये हैं कि काम में कोई विघ्न-बाधा न पड़े। कुछ नहीं, सब इसी की भूल है। ज्यों ही मैंने इससे गोद लेने की बात कही, इसे उसी क्षण बाहर जाकर दोनों को फटकारना और माया का हाथ पकड़कर खींच लाना चाहिए था। मजाल थी कि मेरे पुत्र का कोई मुझसे छीन ले जाता! सहसा विद्या ने आँखें खोल दीं और क्षीण स्वर से बोली– बहिन अब क्या होगा?
श्रद्धा– होने को अब भी सब कुछ हो सकता है। करनेवाला चाहिए।
विद्या– अब कुछ नहीं हो सकता। सब तैयारिया हो रही हैं, चाचा जी न जाने कैसे राजी हो गये!
श्रद्धा– मैं जरा जा कर कहारों से पूछती हूँ कि कब तक आने को कह गये हैं।
विद्या– शाम होने के पहले ये लोग कभी न लौटेगे। माया को हटा देने के लिए ही यह चाल चली गई है। इन लोगों ने जो बात मन में ठान ली है वह होकर रहेगी। पिताजी का शाप मेरी आँखों के सामने है। यह अनर्थ होना है और होगा।
श्रद्धा– जब तुम्हारी यही दशा है तो जो कुछ हो जाये वह थोड़ा है।
विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– भला मेरे बस की कौन सी बात है?
श्रद्धा– बस की बात क्यों नहीं है? अभी शाम को जब यह लोग लौटें तब नीचे चली जाओ और माया का हाथ पकड़कर खींच लाओ। वह न आए तो सारी बातें खोलकर उससे कह दो। समझदार लड़का है, तुरन्त उनसे उसका मन फिर जायेगा।
विद्या– (सोचकर) और यदि समझाने से भी न आए? इन लोगों ने उसे खूब सिखा-पढ़ा रखा होगा।
श्रद्धा– तो रात को जब शहर के लोग जमा हों, जा कर भरी सभा में कह दो, वह सब मेरी इच्छा के विरुद्ध है। मैं अपने पुत्र को गोद नहीं देना चाहती। लोगों की सब चालें पट पड़ जायें। तुम्हारी जगह मैं होती तो वह महनामथ मचता कि इनके दाँत खट्टे हो जाते। क्या करूँ, मेरा कुछ अधिकार नहीं है, नहीं तो इन्हें तमाशा दिखा देती!
विद्या ने निराश भाव से कहा– बहिन, मुझसे यह न होगा। मुझमें न इतनी सामर्थ्य है, न साहस। अगर और कुछ न हो, माया ही मेरी बातों को दुलख दे तो उसी क्षण मेरा कलेजा फट जायेगा। भरी सभा में जाना तो मेरे लिए असम्भव है। उधर पैर ही न उठेंगे। उठे भी तो वहाँ जाकर जबान बन्द हो जायेगी।
श्रद्धा– पता नहीं ये लोग किधर गये हैं। एक क्षण के लिए गायत्री एकान्त में मिल जाती तो एक बार मैं भी समझा देखती।
दीवानखाने में आनन्दोत्सव हो रहा था। मास्टर अलहदीन का अलौकिक चमत्कार लोगों का मुग्ध कर रहा था। द्वार पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सहन में ठट के ठट कंगले जमा थे। मायाशंकर को दिन भर के बाद माँ की याद आई। वह आज आनन्द से फूला न समाता था। जमीन पर पाँव न पड़ते थे। दौड़-दौड़ कर काम कर रहा था। ज्ञानशंकर बार-बार कहते, तुम आराम से बैठो। इतने आदमी तो हैं ही, तुम्हारे हाथ लगाने की क्या जरूरत है? पर उससे बेकार नहीं बैठा जाता था। कभी लैम्प साफ करने लगता, कभी खसदान उठा लेता। आज सारे दिन मोटर पर सैर करता रहा। लौटते ही पद्यशंकर और तेजशंकर से सैर का वृत्तान्त सुनाने लगा, यहाँ गये, वहाँ गये, यह देखा, वह देखा। उसे अतिशयोक्ति में बड़ा मजा आ रहा था। यहाँ से छुट्टी मिली तो हवन पर जा बैठा। इसके बाद भोजन में सम्मिलित हो गया। जब गाना आरम्भ हुआ तो उसका चंचल चित्त स्थिर हुआ। सब लोग गाना सुनने में तल्लीन हो रहे थे, उसकी बातें सुननेवाला कोई न था। अब उसे याद आया, अम्माँ को प्रणाम करने तो गया ही नहीं! ओहो, अम्माँ मुझे देखते ही दौड़कर छाती से लगा लेंगी। आशीर्वाद देंगी। मेरे इन रेशमी कपड़ों की खूब तारीफ करेंगी। वह ख्याली पुलाव पकाता, मुस्कराता हुआ विद्या के कमरे में गया। वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था, एक धुँधली सी दीवालगीर जल रही थी। विद्या पलँग पर पड़ी हुई थी। महरियाँ नीचे गाना सुनने चली गई थीं। लाला प्रभाशंकर के घर की स्त्रियों को न बुलावा दिया गया था और न वे आई थीं। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रह थी। माया ने माँ के समीप जा कर देखा– उसके बाल बिखरे हुए थे, आँखों से आँसू बह रहे थे, होंठ नीले पड़ गये थे, मुख निस्तेज हो रहा था। उसने घबरा कर कहा– अम्माँ, अम्माँ! विद्या ने आँखें खोलीं और एक मिनट तक उसकी ओर टकटकी बाँधकर देखती रही मानों अपनी आँखों पर विश्वास नहीं है। तब वह उठ बैठी। माया को छाती से लगाकर उसका सिर अंचल से ढँक लिया मानो उसे किसी आघात से बचा रही हो और उखड़े हुए स्वर में बोली, आओ मेरे प्यारे लाला! तुम्हें आँख भर देख लूँ। तुम्हारे ऊपर बहुत देर से जी लगा हुआ था। तुम्हें लोग अग्निकुण्ड की ओर ढकेल लिये जाते थे। मेरी छाती धड़-धड़ करती थी! बार-बार पुकारती थी, लेकिन तुम सुनते ही न थे। भगवान् ने तुम्हें बचा लिया। वही दीनों के रक्षक हैं। अब मैं तुम्हें न जाने दूँगी। यही मेरी आँखों के सामने बैठो। मैं तुम्हें देखती रहूँगी– देखो, देखो! वह तुम्हें पकड़ने के लिए दौड़ा आता है, मैं किवाड़ बन्द किये देती हूँ। तुम्हारा बाप है। लेकिन उसे तुम्हारे ऊपर जरा भी दया नहीं आती। मैं किवाड़ बन्द कर देती हूँ। तुम बैठे रहो।
यह कहते हुए वह द्वार की ओर चली, मगर पैर लड़खड़ाए और अचेत हो कर फर्श पर गिर पड़ी। माया उसकी दशा देखकर और उसकी बहकी-बहकी बातें सुनकर थर्रा गया। मारे भय के वहाँ एक क्षण भी न ठहर सका। तीर के समान कमरे से निकला और दीवाने खाने में आकर दम लिया। ज्ञानशंकर मेहमानों के आदर सत्कार में व्यस्त थे। उनसे कुछ कहने का अवसर न था। गायत्री चिक कि आड़ में बैठी हुई सोच रही थी, इस अलहदीन को कीर्तन के लिए नौकर रख लूँ तो अच्छा हो। मेरे मन्दिर की सारे देश में धूम मच जाये। माया ने आकर कहा– मौसी जी, आप चलकर जरा अम्माँ को देखिए। न जाने कैसी हुई जाती हैं। उन्हें डेलिरियम सा हो गया है।
गायत्री का कलेजा सन्न सा हो गया। वह विद्या के स्वभाव से परिचित थी। यह खबर सुनकर उससे कहीं ज्यादा शंका हुई, जितनी सामान्य दशा में होनी चाहिए थी। वह कल से विद्या के बदले हुए तेवर देख रही थी। रात की घटना भी उस याद आई। वह जीने की ओर चली। माया भी पीछे-पीछे चला। इस कमरे में इस समय कितनी ही चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। गायत्री ने कहा– तुम यहीं बैठो, नहीं तो इनमें से एक चीज का भी पता न चलेगा। मैं अभी आती हूँ। घबराने की कोई बात नहीं है, शायद उसे बुखार आ गया है।
गायत्री विद्या के कमरे में पहुँची। उसका हृदय बाँसों उछल रहा था। उसे वास्तविक अवस्था का कुछ गुप्त ज्ञान सा हो रहा था। उसने बहुत धीरे से कमरे में पैर रखा। धुँधली दीवालगीर अब भी जल रही थी, और विद्या द्वार के पास फर्श पर बेखबर पड़ी हुई थी। चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी, आँखें बन्द थीं और जोर-जोर से साँस चल रही थी। यद्यपि खूब सर्दी पड़ रही थी, पर उसकी देह पसीने से तर थी। माथे पर स्वेद-बिन्दु झलक रहे थे, जैसे मुरझाए फूल पर ओस की बूँदें झलकती हैं। गायत्री ने लैम्प तेज करके विद्या को देखा। होठ पीले पड़ गये थे और हाथ-पैर धीरे-धीरे काँप रहे थे। उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, अपना सुगन्ध से डूबा हुआ रूमाल निकाल लिया। और उसके मुँह पर झलने लगी। प्रेममय शोक-वेदना से उसका हृदय विकल हो उठा। गला भर आया, बोली– विद्या कैसा जी है?
विद्या ने आँखें खोल दीं और गायत्री को देखकर बोली– बहिन! इसके सिवा वह और कुछ न कह सकी। बोलने की बार-बार चेष्टा करती थी, पर मुँह से आवाज न निकलती थी, उसके मुख पर एक अतीव करुणाजनक दीनता छा गई। उसने विवश दृष्टि से फिर गायत्री को देखा। आँखें लाल थी, लेकिन उनमें उन्मत्तता या उग्रता न थी। उनमें आत्मज्योति झलक रही थी। वह विनय, क्षमा और शान्ति से परिपूर्ण थी। हमारी अन्तिम चितवनें हमारे जीवन का सार होती हैं, निर्मल और स्वच्छ ईर्ष्या और द्वेष जैसी मलिनताओं से रहित। विद्या की जबान बन्द थी, लेकिन आँखें कह रही थीं– मेरा अपराध क्षमा करना। मैं थोड़ी देर की मेहमान हूँ, मेरी ओर से तुम्हारे मन में जो मलाल हो वह निकाल डालना। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मेरे भाग्य में जो कुछ बदा था, वह हुआ। तुम्हारे भाग्य में जो कुछ बदा है, वह होगा। तुम्हें अपना सर्वस्व सौंपे जाती हूँ। उसकी रक्षा करना।
गायत्री ने रोते हुए कहा– विद्या, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं? कैसा जी है, डॉक्टर बुलाऊँ?
विद्या ने निराश दृष्टि से देखा और दोनों हाथ जोड़ लिये। आँखें बन्द हो गयीं। गायत्री व्याकुल होकर नीचे दीवानखाने में गई और माया से बोली। बाबूजी को ऊपर ले जाओ। मैं जाती हूँ, विद्या की दशा अच्छी नहीं है।
एक क्षण में ज्ञानशंकर और माया। दोनों ऊपर आए। श्रद्धा भी हलचल सुनकर दौड़ी हुई आई। ज्ञानशंकर ने विद्या को दो-तीन बार पुकारा, पर उसने आँखें न खोली। तब उन्होंने आलमारी से गुलाबजल की बोतल निकाली और उसके मुँह पर कई बार छीटें दिए। विद्या की आँखें खुल गयीं, किन्तु पति को देखते ही उसने जोर से चीख मारी। यद्यपि हाथ-पाँव अकड़े हुए थे, पर ऐसा जान पड़ा कि उसमें कोई विद्युत शक्ति दौड़ गई। वह तुरन्त उठकर खड़ी हो गयी। दोनों हाथों से आँख बन्द किये द्वार की ओर चली। गायत्री ने उसे सँभाला और पूछा– विद्या, पहचानती नहीं, बाबू ज्ञानशंकर हैं। विद्या ने सशंक और भयभीत नेत्रों से देखा और पीछे हटती हुई बोली– अरे, यह फिर आ गया। ईश्वर के लिए इससे मुझे बचाओ।
गायत्री– विद्या, तबीयत को जरा सँभालो। तुमने कुछ खा तो नहीं लिया है। डॉक्टर को बुलाऊँ!
विद्या– मुझे इससे बचाओ, ईश्वर के लिए मुझे इससे बचाओ।
गायत्री– पहचानती नहीं हो, बाबूजी हैं।
विद्या– नहीं-नहीं, यह पिशाच है। इसके लम्बे बाल हैं। वह देखो दाँत निकाले मेरी ओर दौड़ा आता है। हाय-हाय! इसे भगाओ, मुझे खा जायेगा। देखो-देखो, मुझे पकड़े लेता है। इसके सींग हैं, बड़े-बड़े दाँत है, बड़े-बड़े नख हैं। नहीं, मैं न जाऊँगी। छोड़ दे दुष्ट, मेरा हाथ छोड़ दे। हाय! मुझे अग्नि कुण्ड मे झोंके देता है। अरे देखो माया को पकड़ लिया। कहता है, बलिदान दूँगा! दुष्ट तेरे हृदय में जरा भी दया नहीं है? उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ मुझे कुण्ड में झोंके दे, पर ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ, मुझे कुण्ड में झोंके दे, पर ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे। यह कहते-कहते विद्या फिर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने लज्जायुक्त चिन्ता से कहा, जहर खा लिया। मैं अभी डॉक्टर प्रियनाथ के यहाँ जाता हूँ। शायद उनके यत्न से अब भी इसके प्राण बच जायें। मुझे क्या मालूम था कि माया को तुम्हारी गोद का इसे इतना दुख होगा। मैंने इसे आज तक न समझा। यह पवित्र आत्मा थी, देवी थी, मेरे जैसे लोभी, स्वार्थी मनुष्य के योग्य न थी।
यह कह कर वह आँखों से आँसू भरे चले गये। श्रद्धा ने विद्या को उठाकर गोद में ले लिया। गायत्री पंखा झलने लगी। माया खड़ा रो रहा था। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, वह सन्नाटा जो मृत्यु-स्थान के सिवा और कहीं नहीं होता। सब की सब विद्या को होश में लाने का प्रयास कर रही थीं, पर मुँह से कोई कुछ न कहता था। सब के दिलों मृत्यु-भय छाया हुआ था।
आधे घण्टे के बाद विद्या की आँखें खुलीं। उसने चारों ओर सहमे हुए नेत्रों से देख कर इशारे से पानी माँगा।
श्रद्धा ने गुलाबजल और पानी मिलाकर कटोरा उसके मुँह से लगाया। उसने पानी पीने को मुँह खोला, लेकिन होठ खुले रह गये, अंगों पर इच्छा का अधिकार नहीं रहा। एक क्षण में आँखों की पुतलियाँ फिर गयीं।
श्रद्धा समझ गई कि यह अन्तिम क्षण है। बोली-बहिन, किसी से कुछ कहना चाहती हो? माया तुम्हारे सामने खड़ा है।
विद्या की बुझी आँखें श्रद्धा की ओर फिरीं, आँसू की चन्द बूँदे गिरी, शरीर में कम्पन हुआ और दीपक बुझ गया!
एक सप्ताह पीछे मुन्नी भी हुड़क-हुड़क कर बीमार पड़ गई। रात-दिन अम्माँ-अम्माँ की रट लगाया करती। न कुछ खाती न पीती, यहाँ तक कि दवाएँ पिलाने के समय मुँह ऐसा बन्द कर लेती कि किसी तरह न खोलती। श्रद्धा गोद में लिये पुचकारती-फुसलाती, पर सफल न होती। बेचारा माया गोद में लिये उसके मुरझाए मुँह की ओर देखता और रोता। ज्ञानशंकर को तो अवकाश न मिलता था, लाला प्रभाशंकर दिन में कई बार डॉक्टर के पास जाते, दवाएँ लाते, लड़की का मन बहलाने के लिए तरह-तरह के खिलौने लाते, पर मुन्नी उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखती! गायत्री से न जाने क्या चिढ़ थी। उसकी सूरत देखते ही रोने लगती। एक बार गायत्री ने गोद में उठा लिया तो उसे दाँतों से काट लिया। चौथे दिन उसे ज्वर हो आया और तीन दिन बीमार रह कर मातृ-हृदय की भूखी बालिका चल बसी।
विद्या के मरने के पीछे विदित हुआ कि वह कितनी बहुप्रिय और सुशीला थी। मुहल्ले की स्त्रियाँ श्रद्धा के पास आकर चार आँसू बहा जातीं। दिन भर उनका ताँता रहता! बड़ी बहू और उनकी बहू भी सच्चे दिल से उसका मातम कर रही थी! उस देवी ने अपने जीवन में किसी को ‘रे’ या ‘तू’ नहीं कहा, महरियों से हँस-हँस कर बातें करती। नसीब चाहे खोटा था, हृदय में दया थी। किसी का दुःख न देख सकती थी। दानशीला ऐसी थी कि किसी भूखे भिखारी, दुखियारे को द्वार से फिरने न देती थी, धेले की जगह पैसा और आध पाव की जगह पाव देने की नीयत रखती थी। गायत्री इन स्त्रियों से आँखें चुराया करती। अगर वह कभी आ पड़ती तो सब चुप हो जाती और उसकी अवहेलना करतीं। गायत्री उनकी श्रद्धापात्र बनने के लिए उनके बालकों को मिठाइयाँ और खिलौने देती विद्या की रो-रो कर चर्चा करती पर उसका मनोरथ पूरा न होता था। यद्यपि कोई स्त्री मुँह से कुछ न कहती थी, लेकिन उनके कटाक्ष व्यंग्य से भी अधिक मर्मभेदी होते थे। एक दिन बड़ी बहू ने गायत्री के मुँह पर कहा– न जाने ऐसा कौन सा काँटा था जिसने उसके हृदय में चुभ कर जान ली। दूध-पूत सब भगवान् ने दिया था, पर इस काँटे की पीड़ा न सही गयी। यह काँटा कौन थे, इस विषय में महिलाओं की आँखें उनकी वाणी से कहीं सशब्द थीं। गायत्री मन में कटकर रह गयी।
वास्तव में कुटुम्ब या मुहल्ले की स्त्रियों को विद्या के मरने का जितना शोक था उससे कहीं ज्यादा गायत्री को था। डॉक्टर प्रियनाथ ने स्पष्ट कह दिया कि इसने विष खाया है। लक्षणों से भी यही बात सिद्ध होती थी! गायत्री इस खून से अपना हाथ रंगा हुआ पाती थी। उसकी सगर्व आत्मा इस कल्पना से ही काँप उठती थी। वह अपनी निज की महरियों से भी विद्या की चर्चा करते झिझकती थी। मौत की रात का दृश्य कभी न भूलता था। विद्या की वह क्षमाप्रार्थी क्षमाप्रार्थी चितवनें सदैव उसकी आँखों में फिरा करतीं। हाँ, यदि मुझे पहले मालूम होता कि उनके मन में मेरी ओर से इतना मिथ्या भ्रम हो गया है तो यह नौबत न आती। लेकिन फिर जब वह उसके पहलेवाली रात की घटनाओं पर विचार करती तो उसका मन स्वयं कहता था कि विद्या का सन्देह करना स्वाभाविक था। नहीं, अब उसे कितनी ही छोटी-छोटी बातें ऐसी भी याद आतीं थीं जो उसने विद्या का मनोमालिन्य देख कर केवल उसे जलाने और सुलगाने के लिए की थी। यद्यपि उस समय उसने ये बातें अपने पवित्र प्रेम की तरंग में की थी और विद्या के ही सामने नहीं, सारी दुनिया के सामने करने पर तैयार थी, पर इन खून के छींटों से वह नशा उतर गया था। उसका मन स्वयं स्वीकार करता था कि वह विशुद्ध प्रेम न था, अज्ञात रीति से उसमें वासना का लेश आ गया था। विद्या मुझे देखकर सदय हो गई थी, लेकिन ज्ञानशंकर को सूरत देखते ही उसका झिझकना, चीखना, चिल्लाना साफ कह रहा था कि उसने हमारे ही ऊपर जान दी। यह उसकी परम उदारता थी कि उसने मुझे निर्दोष समझा। इतने भयंकर उत्तरदायित्व का भार उसकी आत्मा को कुचले देता था। शनेःशनैः भाव का उस पर इतना प्राबल्य हुआ कि भक्ति और प्रेम से उसे अरुचि होने लगी। उसके विचार में यह दुर्घटना इस बात का प्रमाण थी कि हम भक्ति के ऊँचे आदर्श से गिर गये, प्रेम के निर्मल जल से तैरते हुए हम भोग के सेवारों में उलझ गये, मानो यह हमारी आत्मा को सजग करने के लिए देवप्रेरित चेतावनी थी। अब ज्ञानशंकर उसके पास आते तो उसने खुलकर न मिलती। ज्ञानशंकर ने विद्या की दाह-क्रिया आप न की थी, यहाँ तक कि चिता में आग भी न दी थी। एक ब्राह्मण से सब संस्कार कराये थे। गायत्री को यह असज्जनता और हृदयशून्यता नागवार मालूम होती थी। उसकी इच्छा थी कि विद्या की अन्त्येष्टि प्रथानुसार और यथोचित सम्मान के साथ की जाये। उसकी आत्मा की शान्ति का अब यही एक उपाय था। उसने ज्ञानशंकर से इसका इशारा भी किया, पर वह टाल गये। अतएव वह उन्हें देखते ही मुँह फेर लेती थी, उन्हें अपनी वाणी का मन्त्र मारने का अवसर ही न देती थी। उसे भय होता था कि उनकी यह उच्छृंखलता मुझे और भी बदनाम कर देती। वह कम से कम संसार की दृष्टि में इस हत्या के अपराध से मुक्त रहना चाहती थी।
गायत्री पर अब ज्ञानशंकर के चरित्र के जौहर भी खुलने लगे। उन्होंने उससे अपने कुटुम्बियों की इतनी बुराइयाँ की थी कि उन्हें धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति समझती थी। पर यहाँ कुछ और ही बात दिखाई देती थी। उन्होंने प्रेमशंकर को शोक सूचना तक न दी। लेकिन उन्होंने ज्यों ही खबर पाई तुरन्त दौड़े हुए आये और सोलह दिनों तक नित्य प्रति आकर यथायोग्य संस्कार में भाग लेते रहे। लाला प्रभाशंकर संस्कारों की व्यवस्था में ब्रह्मभोज में, बिरादरी की दावत में व्यस्त थे। मानो आपस में कोई द्वेष नहीं। बड़ी बहू के व्यवहार से भी सच्ची समवेदना प्रकट होती थी। लेकिन ज्ञानशंकर के रंग-ढंग से साफ-साफजाहिर होता था कि इन लोगों का शरीक होना उन्हें नागवार है। वह उनसे दूर-दूर रहते थे, उनसे बात करते तो रूखाई से, मानो सभी उनके शत्रु हैं और इसी बहाने उनका अहित करना चाहते हैं। ब्रह्मभोज के दिन उनकी लाला प्रभाशंकर से खासी झपट हो गयी। प्रभाशंकर आग्रह कर रहे थे, मिठाइयाँ घर में बनवाई जायँ। ज्ञानशंकर कहते थे कि यह अनुपयुक्त है। सम्भव है, घर की मिठाइयाँ अच्छी न बनें, पर खर्च बहुत पड़ेगा। बाजार में मामूली मिठाइयाँ मँगवाई जायें। प्रभाशंकर ने कहा, खिलाते हो तो ऐसे पदार्थ खिलाओ कि खानेवाले भी समझें कि कहीं दावत खायी थी। ज्ञानशंकर ने बिगड़कर कहा– मैं ऐसा अहमक नहीं हूँ कि इस वाह-वाह के लिए अपना घर लुटा दूँ। नतीजा यह हुआ कि बाजार से सस्ते मेल की मिठाइयाँ आयीं। ब्राह्मणों ने डटकर खाया, लेकिन सारे शहर में निन्दा की।
गायत्री को जो बात सबसे अप्रिय लगती थी वह अपनी नजरबन्दी थी। ज्ञानशंकर उसकी चिट्ठियाँ खोलकर पढ़ लेते, इस भय से कहीं राय साहब का कोई पत्र न हो। अगर वह प्रेमशंकर या लाला प्रभाशंकर से कुछ बातें करने लगती तो वह तुरन्त आकर बैठ जाते और ऐसी असंगत बात करने लगते कि साधारण बातचीत भी विवाद का रूप धारण कर लेती थी। उनके व्यवहार से स्पष्ट विदित होता था कि गायत्री के पास किसी अन्य मनुष्य का उठना-बैठना उन्हें असह्य है। इतना ही नहीं, वह यथासाध्य गायत्री को स्त्रियों से मिलने-जुलने का भी अवसर न देते। आत्माभिमान धार्मिक विषयों में लोकमत को जितना तुच्छ समझता है लौकिक विषयों में लोकमत का उतना ही आदर करता है। गायत्री को विद्या के हत्यापराध से मुक्त होने के लिए घर, मुहल्ले की स्त्रियों की सहानुभूति आवश्यक जान पड़ती थी। वह अपने बर्ताव से, विद्या की सुकीर्ति के बखान से, यहाँ तक कि ज्ञानशंकर की निन्दा से भी यह उद्देश्य पूरा करना चाहती थी। षोडशे और ब्रह्मभोज के बाद एक दिन उसने नगर की कई कन्या पाठशालाओं का निरीक्षण किया और प्रत्येक को विद्या के नाम पर पारितोषिक देने के लिए रुपये दे आई, और यह केवल दिखावा ही नहीं था, विद्या से उसे बहुत मुहब्बत थी, उसकी मृत्यु का उसे सच्चा शोक था। विद्या को याद करके बहुधा एकान्त में रो पड़ती, उसकी सूरत आँखों से कभी न उतरती थी। जब श्रद्धा और बड़ी बहू आदि विद्या की चर्चा करने लगतीं तो वह अदबदा कर उनकी बातें सुनने के लिए जा बैठती। उनके कटाक्ष और संकेतों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। ऐसे अवसरों पर जब ज्ञानशंकर उसे रियासत के किसी काम के बहाने से बुलाते तो उसे बहुत नागवार मालूम होता। वह कभी-कभी झुँझला कर कहती, जा कर कह दो मुझे फुरसत नहीं है। जरा-जरा सी बातों में मुझसे सलाह लेने की क्या जरूरत है? क्या इतनी बुद्धि भी ईश्वर ने नहीं दी? रियासत! रियासत!! उन्हें किसी के मरने-जीने की परवाह न हो, सबके हृदय एक-से नहीं हो सकते। कभी-कभी वह केवल ज्ञानशंकर को चिढ़ाने के लिए श्रद्धा के पास घण्टों बैठी रहती। वह अब उनकी कठपुतली बन कर न रहना चाहती थी। एक दिन वह ज्ञानशंकर से कुछ कहे बिना ही प्रेमशंकर की कृषिशाला में आ पहुँची और सारे दिन वहीं रही। एक दिन उसने लाला प्रभाशंकर और प्रेमशंकर की दावत की और सारा जेवनार अपने हाथों से पकाया! लालाजी को भी उसके पाक-नैपुण्य को स्वीकार करना पड़ा!
दो महीने गुजर गये। धीरे-धीरे महिलाओं को गायत्री पर विश्वास होने लगा। द्वेष और मालिन्य के परदे हटने लगे। उसके सम्मुख ऐसी-ऐसी बातें होने लगीं। जिनकी भनक भी पहले उसके कानों में न पड़ने पाती थी, यहाँ तक कि वह इस समाज का एक प्रधान अंग बन गई। यहाँ प्रायः नित्य ही ज्ञानशंकर के चरित्र की चर्चा होती और फलतः उनका आदर गायत्री के हृदय से उठता जाता था। बड़ी बहू और उनकी बहू दोनों ज्ञानशंकर की द्वेष कथा कहने लगती तो उसका अंत ही न होता था। श्रद्धा यद्यपि इतनी प्रगल्भा न थी, पर यह अनुमान करने के लिए बहुत सूक्ष्मदर्शिता की जरूरत न थी कि उसे भी ज्ञानशंकर से विशेष स्नेह न था। ज्ञानशंकर की संकीर्णता और स्वार्थपरता दिनोंदिन गायत्री को विदित होने लगी। अब उसे ज्ञान होने लगा कि पिताजी ने मुझे ज्ञानशंकर से बचते रहने की जो ताकीद की थी उसमें भी कुछ न कुछ रहस्य अवश्य था। ज्ञानशंकर के प्रेम और भक्ति पर से भी उसका विश्वास उठने लगा। उसे सन्देह होने लगा कि उन्होंने केवल अपना कार्य सिद्घ करने के लिए तो यह स्वाँग नहीं रचा। अब उसे कितनी ही ऐसी बातें याद आने लगीं, जो इस सन्देह की पुष्ट करती थीं। ज्यों-ज्यों वह सन्देह बढ़ता था ज्ञानशंकर की ओर से उसका चित्त फिरता जाता था। ज्ञानशंकर गायत्री के चित्त की यह वृत्ति देखकर बड़े असमंजस में रहते थे। उनके विचार में यह मनोमालिन्य शान्त करने का सर्वोत्तम उपाय यही था कि गायत्री को किसी प्रकार गोरखपुर खींच ले चलूँ। लेकिन उससे यह प्रस्ताव करते हुए वह डरते थे। अपनी गोटी लाल करने के लिए वह गायत्री का एकान्त सेवन परमावश्यक समझते थे। मायाशंकर को गोद लेने से ही कोई विशेष लाभ न था। गायत्री की आयु ३५ वर्ष से अधिक न थी और कोई कारण न था वह अभी ४५ वर्ष जीवित न रहे। यह लम्बा इन्तजार ज्ञानशंकर जैसे अधीर पुरुषों के लिए असह्य था। इसलिए वह श्रद्धा और भक्ति का वही वशीकरण मन्त्र मार कर गायत्री को अपनी मुट्ठी में करना चाहते थे।
एक दिन वे एक पत्र लिये हुए गायत्री के पास आ कर बोले, गोरखपुर से यह बहुत जरूरी खत आया है। मुख्तार साहब ने लिखा है कि वे फसल के दिन हैं। आप लोगों का आना जरूरी है, नहीं तो सीर की उपज हाथ न लगेगी नौकर-चाकर खा जायँगे।
गायत्री ने रुष्ट होकर कहा– इसका उत्तर तो मैं पीछे दूँगी, पहले यह बतलाइए कि आप मेरी चिट्ठियाँ क्यों खोल लिया करते हैं?
ज्ञानशंकर सन्नाटे में आ गये, समझ गये कि मैं इसकी आँखों में उससे कहीं ज्यादा गिर गया हूँ जितना मैं समझता हूँ। बगलें झाँकते हुए बोले– मेरा अनुमान था कि इतनी आत्मिक घनिष्ठता के बाद इस शिष्टाचार की जरूरत नहीं रही। लेकिन आपको नागवार लगता है तो आगे ऐसी भूल न होगी।
गायत्री ने लज्जित होकर कहा– मेरा आशय यह नहीं था। मैं केवल यह चाहती हूँ कि मेरी निज की चिट्ठियाँ न खोली जाया करें।
ज्ञानशंकर– इस धृष्टता का कारण यह था कि मैं अपनी आत्मा को। आपकी आत्मा में संयुक्त समझता था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस घर के द्वेष-पोषक जलवायु ने हमारे बीच में भी अन्तर डाल दिया। भविष्य में ऐसा दुस्साहस न होगा। मालूम होता है कि मेरे कुदिन आए हैं। देखें क्या-क्या झेलना पड़ता है।
गायत्री ने बात का पहलू बदलकर कहा– मुख्तार साहब को लिख दीजिए कि अभी हम लोग न आ सकेंगे, तहसील-वसूल शुरू कर दें।
ज्ञानशंकर– मेरे विचार में हम लोगों का वहाँ रहना जरूरी है।
गायत्री– तो आप चले जाएँ मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं अभी यहाँ कुछ दिन और रहना चाहती हूँ।
ज्ञानशंकर ने हताश होकर कर कहा जैसी आपकी इच्छा। लेकिन आपके बिना वहाँ एक-एक क्षण मुझे एक-एक साल मालूम होगा। कृष्णमन्दिर तैयार ही है। यहाँ भजन-कीर्तन में जो आनन्द आएगा वह यहाँ दुर्लभ है। मेरी इच्छा थी कि अबकी बरसात वृन्दावन में कटती। इस आशा पर पानी फिर गया। आप मेरे जीवन-पथ की दीपक हैं, आप ही मेरे प्रेम और भक्ति की केन्द्रस्थल हैं। आप के बिना मुझे अपने चारों ओर अँधेरा दिखाई देगा। सम्भव है कि पागल हो जाऊँ।
दो महीने पहले ऐसी प्रेमरस पूर्ण बातें सुनकर गायत्री का हदय गद्गद हो जाता, लेकिन इतने दिनों यहाँ रहकर उसे उनके चरित्र का पूरा परिचय मिल चुका था। वह साज जो बेसुर अलाप को भी रसमय बना देता था अब बन्द था। वह मन्त्र का प्रतिहार करना सीख गई थी। बोली– यहाँ मेरी दशा उससे भी दुस्सह होगी, खोई-खोई-सी फिरूँगी, लेकिन करूँ क्या? यहाँ लोगों के हृदय को अपनी ओर से साफ करना आवश्यक है। यह वियोग-दुःख इसलिए उठा रही हूँ, नहीं तो आप जानते हैं यहाँ मन बहलाव को क्या सामग्री है? देह पर अपना वश है, उसे यहाँ रखूँगी। रहा मन, मन एक क्षण के लिए भी अपने कृष्ण का दामन न छोड़ेगा। प्रेम-स्थल में हजारों कोस की दूरी भी कोई चीज नहीं है, वियोग में भी मिलाप का आनन्द मिलता रहता है। हाँ, नित्य प्रति लिखते रहिएगा, नहीं तो मेरी जान पर बन आयेगी।
ज्ञानशंकर ने गायत्री को भेद की दृष्टि से देखा। यह वह भोली-भाली सरला गायत्री न थी। वह अब त्रिया-चरित्र में निपुण हो गई थी, दगा का जवाब दगा से देना सीख गई थी। समझ गये कि अब यहाँ मेरी दाल न गलेगी। इस बाजार में अब खोटे सिक्के न चलेंगे। यह बाजी जीतने के लिए कोई नयी चाल चलनी पड़ेगी, नए किले बाधने पड़ेंगे। गायत्री को यहाँ छोड़कर जाना शिकार को हाथ से खोना था। किसी दूसरे अवसर पर यह जिक्र छेड़ने का निश्चय करके वह उठे। सहसा गायत्री ने पूछा, तो कब तक जाने का विचार है? मेरे विचार से आपका प्रातःकाल की गाड़ी से चला जाना अच्छा होगा।
ज्ञानशंकर ने दीन भाव से भूमि की ओर ताकते हुए कहा– अच्छी बात है।
गायत्री– हाँ, जब जाना ही है तब देर न कीजिए। जब तक इस मायाजाल में फँसे हुए हैं तब तक तो यहाँ के राग अलापने ही पड़ेंगे।
ज्ञानशंकर– जैसी आज्ञा।
यह कहकर वह मर्माहत भाव से उठकर चले गये। उनके जाने के बाद गायत्री को वही खेद हुआ जो किसी मित्र को व्यर्थ कष्ट देने पर हमकों होता है, पर उसने उन्हें रोका नहीं।