कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के लिए हाथ बढ़ा देता था, तब उन पर एक विचित्र शिथिलता-सी छा जाती थी। इसके सिवा धनाभाव भी अपील का बाधक था। दिवानी के खर्च ने उन्हें इतना जेरबार कर दिया था कि हाईकोर्ट जाने की हिम्मत न पड़ती थी। यद्यपि कितने ही आदमियों को उनसे श्रद्धा थी और वह इस पुण्य कार्य के लिए पर्याप्त धन एकत्र कर सकते थे, पर उनकी स्वाभाविक सरलता और कातरता इस आधार को उनकी कल्पना में भी न आने देती थी।
एक दिन सन्ध्या समय प्रेमशंकर बैठे हुए समाचार-पत्र देख रहे थे। गोरखपुर के सनातन धर्म महोत्सव का समाचार मोटे अक्षरों में छपा हुआ दिखायी दिया। गौर से पढ़ने लगे। ज्ञानशंकर को उन्होंने स्वयं मन में धूर्त और स्वार्थ-परायणता का पुतला समझ रखा था अब उनकी इस निष्ठा और धर्म-परायणता वृत्तान्त पढ़ कर उन्हें अपनी संकीर्णता पर अत्यन्त खेद हुआ। मैं कितना निर्बुद्धि हूँ। ऐसी दिव्य और विमल आत्मा पर अनुचित संदेह करने लगा। ज्ञानशंकर के प्रति उनके हृदय में भक्ति की तरंगे सी उठने लगीं। उनकी सराहना करने की ऐसी उत्कट इच्छा हुई कि उन्होंने मस्ता और भोला को कई बार पुकारा। जब उनमें से किसी ने जवाब न दिया तो वह मस्ता की झोंपड़ी की ओर चले कि अकस्मात् दुर्गा, मस्ता और कृषिशाला के कई और नौकर एक मनुष्य को खींच-खींच कर लाते हुए दिखाई दिये। सब-के-सब उसे गालियाँ दे रहे थे और मस्ता रह-रह कर एक धौल जमा देता था। प्रेमशंकर ने आगे बढ़कर तीव्र स्वर में कहा, क्या है भोला, इसे क्यों मार रहे हो?
मस्ता– भैया, यह न जाने कौन आदमी है। फाटक से चिपटा खड़ा था। अभी मैं फाटक बन्द करने गया तो इसे देखा। मुझे देखते ही वह दबक गया। बस, मैंने चुपके से आकर सबको साथ लिया और बच्चू को पकड़ लिया। जरूर से जरूर कोई चोर है।
प्रेम– चोर सही, तुम्हारा कुछ चुराया तो नहीं? फिर क्यों मारते हो?
यह कहते हुए अपने बरामदे में बैठ गये। चोर को भी लोगों ने वहीं लाकर खड़ा किया। ज्यों ही लालटेन के प्रकाश में उसकी सूरत दिखायी दी, प्रेमशंकर के मुंह से एक चीख-सी निकल गयी, अरे, यह तो बिसेसर साह है!
बिसेसर ने आँसू पोंछते हुए कहा, हाँ सरकार, मैं बिसेसर ही हूँ।
प्रेमशंकर ने अपने नौकरों से कठोर स्वर में कहा, तुम लोग निरे गँवार और मूर्ख हो। न जाने तुम्हें कभी समझ आयेगी भी या नहीं।
मस्ता– भैया, हम तो बार-बार पूछते रहे कि तुम कौन हो? वह कुछ बोले ही नहीं, तो मैं क्या करता?
प्रेम– बस, चुप रह गँवार कहीं का!
नौकरों ने देखा कि हमसे भूल हो गयी तो चुपके से एक-एक करके सरक गये। प्रेमशंकर को क्रोध में देख कर सब-के-सब थर-थर काँपने लगे थे। यद्यपि प्रेमशंकर उन सबसे भाईचारे का बर्ताव करते थे, पर वह सब उनका बड़ा अदब करते थे। उनके सामने चिलम तक न पीते। उनके चले जाने के बाद प्रेमशंकर ने बिसेसर साह को खाट पर बैठाया और अत्यन्त लज्जित हो कर बोले, साह जी, मुझे बड़ा दुःख है कि मेरे आदमियों ने आपके साथ अनुचित व्यवहार किया। सब-के-सब उजड्ड और मूर्ख हैं।
बिसेसर ने ठंडी साँस लेकर कहा, नहीं भैया, इन्होंने कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं इसी लायक हूँ। आप मुझे खम्भे में बाँध कर कोड़े लगवायें तब भी बुरा न मानूँगा। मैं विश्वासघाती हूँ। मुझे जो सजा मिले वह थोड़ी है। मैंने अपनी जान के डर से सारे गाँव को मटियामेट कर दिया। न जाने मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी। पुलिसवासों की भभकी में आ गया। वह सब ऐसी-ऐसी बातें करते हैं, इतना डराते और धमकाते हैं कि सीधा-सादा आदमी बिलकुल उनकी मुट्ठी में आ जाता है। उन्हें ज़रूर से ज़रूर किसी देवता का इष्ट है कि जो कुछ वह कहलाते हैं, वही मुँह से निकलता है। भगवान् जानते हैं जो गौस खाँ के बारे में किसी से कुछ बात हुई हो। मुझे तो उनके कत्ल का हाल दिन चढ़े मालूम हुआ, जब मैं पूजा-पाठ करके दूकान पर आया। पर दरोगा जी थाने में ले जाकर मेरी साँसत करने लगे तब मुझ पर जैसे पर जैसे कोई जादू हो गया। उनकी एक-एक बात दुहराने लगा।
जब मैं अदालत में बयान दे रहा था तब सरम के मारे मेरी आँखें ऊपर न उठती थीं। मेरे जैसा कुकर्मी संसार में न होगा। जिन आदमियों के साथ रात-दिन का रहना-सहना, उठना-बैठना था, जो मेरे दुःख-दर्द में शरीक होते थे, उन्हीं के गर्दन पर मैंने छुरी चलायी। जब कादिर ने मेरा बयान सुन कर कहा, ‘बिसेसर, भगवान् से डरो’ उस घड़ी मेरा ऐसा जी चाहता था कि धरती फट जायें और मैं उसमें समा जाऊँ। मन होता था कि साफ-साफ कह दूं, ‘यह सब सिखायी-पढ़ाई बातें हैं’ पर दरोगा जी की ओर ज्यों ही आँख उठती थी मेरा हियाव छूट जाता था। जिस दिन से मनोहर ने अपने गले में फाँसी लगायी है उस दिन से मेरी नींद हराम हो गयी। रात को सोते-सोते चौंक पड़ता हूँ, जैसे मनोहर सिरहाने खड़ा हो। साँझ होते ही घर के केवाड़ बंद कर देता हूँ। बाहर निकलता हूँ तो जान पड़ता है, मनोहर सामने आ रहा है। उधर गाँव में अन्धेर मचा हुआ है। सबके बाल बच्चे भूखों मर रहे हैं। फैजू और कर्तार नित नये तूफान रचते रहते हैं। भगवान् सुक्खू चौधरी का भला करे, उनके हृदय में दया आयी, दो साल की मालगुजारी अदा कर दी, नहीं तो अब तक सारा गाँव बेदखल हो गया होता। इस पर फैज जला जाता है। जब सुक्खू आ जाते हैं तो भीगी बिल्ली बन जाता है, लेकिन ज्यों ही वह चले जाते हैं फिर वही उपद्रव करने लगता है। इन गरीबों का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। जिसे चाहता है मारता है, डाँट लेता है। एक दिन कादिर मियाँ के घर में आग लगवा दी। और तो और अब गाँव की बहू-बेटियों की इज्जत-हुरमत भी बचती नहीं दिखायी देती। मनोहर के घर साँस बहू में रार मची हुई है। दोनों अलग-अलग रहती हैं। परसों रात की बात है, फैजू और कर्तार दोनों बहू के घर में घुस गये। उस बेचारी ने चिल्लाना शुरू किया सास पहुँच गयी, और लोग भी पहुँच गये। दोनों निकलकर भागे। सवेरा होते ही इसकी कसर निकली। कर्तार ने मनोहर की दुलहिन को इतना मारा कि बेचारी पड़ी हल्दी पी रही है। यह सब पाप मेरे सिवा और किसके सिर पड़ता होगा? मैं ही इस सारी विपद् लीला की जड़ हूँ। भगवान् न जाने मेरी क्या दुर्गत करेंगे! काहे भैया, क्या अब कुछ नहीं हो सकता? सुनते हैं तुम अपील करने वाले हो, तो जल्दी कर क्यों नहीं देते? ऐसा न हो कि मियाद गुजर जाय। तुम मुझे तलब करा देना, मुझ पर दरोगा-हलफी का इलजाम जायेगा तो क्या! पर मैं अब की सब कुछ सच-सच कह दूँगा। यही न होगा, मेरी सजा हो जायेगी, गाँव का तो भला हो जायेगा। मैं हजार-पाँच सौ से मदद भी कर सकता हूँ।
प्रेमशंकर– हाईकोर्ट में तो मिसल देख कर फैसला होता है, किसी के बयान नहीं लिये जाते।
बिसेसर– भैया, कुछ देने-लेने से काम चले तो दे दो, हजार-पाँच सौ का मुँह मत देखो। मुझसे जो कुछ फरमाओ उसके लिए हाजिर हूँ। यह बात मेरे मन में समायी हुई है, पर आपको मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। आज कुछ सौदा लेने चला तो चौपाल के सामने फैजू मिल गये। कहने लगे– जाते हो तो यह रुपये लेते जाओ, मालिकों के घर भेजवा देना। मैंने रुपए लिये और डेवढ़ी पर जाकर छोटी बहू के पास रुपये भेज दिये। जब चलने लगा तो बड़ी बहू ने दीवानखाने में मुझे बुलाया। उनको देख कर ऐसा जान पड़ा मानो साक्षात् देवी के दर्शन हो गये। उन्होंने मुझे ऐसा-ऐसा उपदेश दिया कि आपसे क्या कहूँ। मेरी आँखें खुल गयीं। मन में ठान कर चला कि आपसे अपील दायर करने की। कहूँ, जिसमें मेरा भी उद्धार हो जाये। लेकिन दो-तीन बार आ-जा कर लौट गया। आपको मुँह दिखाते लाज आती थी। सूरज डूबते वक्त फिर आया, पर वहीं फाटक के पास दुविधा में खड़ा सोच रहा था कि क्या करूँ? इतने में आपके आदमियों ने देख लिया और आपकी शरण में ले आये। मुझ जैसे झूठे दगाबाज आदमी का इतबार ही क्या? पर अब मैं सौगन्ध खा के कहता हूँ कि फिर जो मेरा बयान लिया जायगा तो मैं एक-एक बात खोल कर कह दूँगा। चाहे उल्टी पड़े या सीधी। आप जरूर अपील कीजिए।
प्रेमशंकर बिसेसर साह को महा नीच, कपटी, अधम मनुष्य समझते थे! उनके बिचार में वह मनुष्य कहलाने के योग्य भी न था। लेकिन उसकी इस ग्लानि-सूचक बातों ने उसे पिशाच श्रेणी से उठा कर देवासन पर बैठा दिया। भगवन्! जिसे मैं दुरात्मा समझता था, उसके हृदय में आत्मग्लानि की यह पवित्र भाव! यह आत्मोकर्ष, यह ईश्वर-भीरुता, ‘‘यह सदुद्गार! मैं कितने भ्रम में पड़ा हुआ था! दुनिया के लोग अनायास ही बदनाम करते है, पर मैंने तो हर एक बुरे को अच्छा ही पाया। इसे अपने सौभाग्य के सिवा और क्या कहूँ? ईश्वर मुझे इस अविश्वास के लिए क्षमा करना। यह सोचकर उनकी आँखों में आँसू भर आये। बोले– साह जी, तुम्हारी बातें सुनकर मुझे वही आनन्द हुआ, जो किसी सच्चे साधु के उपदेश से होता है। मैं बहुत जल्द अपील करने वाला हूँ। अड़चन यही है कि गवाहों के बयान कैसे बदले जायँ? सम्भव है हाईकोर्ट मुकदमे पर नजरसानी करने की आज्ञा दे दे और फिर इसी अदालत में मामला में पेश हो; लेकिन बयान बदलने से तुम और डॉक्टर प्रियनाथ दोनों ही फँस जाओगे! प्रियनाथ ने तो अपने बचाव की युक्ति सोच ली, लेकिन तुम्हारा बचाव कठिन है। इसे अच्छी तरह सोच लो।
बिसेसर– खूब सोच लिया है।
प्रेमशंकर– ईश्वर ने चाहा तो तुम भी बच जाओगे। मैं कल वकीलों से इस विषय में सलाह लूँगा।
यह कहकर कर वह बिसेसर के खाने-पीने का प्रबन्ध करने चले गये?