‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके जीवन के ध्येय थे। उन्होंने सदैव इसी त्रिमूर्ति की आराधना की थी और अपनी वंशगत सम्पति का अधिकांश बर्बाद कर चुकने पर भी वह अपने व्यावहारिक नियमों में संशोधन करने की जरूरत नहीं समझते थे या समझते थे, तो अब किसी नये मार्ग पर चलना उनके लिए असाध्य था। वह एक उदार गौरवशील पुरुष थे। सम्पति उनकी दृष्टि में मर्यादा पालन का एक साधन मात्र थी। इससे श्रीवृद्धि भी हो सकती है, धन से धन की उन्नति भी हो सकती है, यह उनके ध्यान में भी नहीं आया था। चिन्ताओं को वह तुच्छ समझते थे, शायद इसीलिए कि उनका निवारण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने महाजन के द्वार तक जाना पड़ता था। उनका जो समय और धन मेहमानों के आदर-सत्कार में लगता था उसी को वह श्रेयस्कर समझते थे। दान-दक्षिण के शुभ अवसर आते, तो उनकी हिम्मत आसमान पर जा पहुँचती थी। उस नशे में उन्हें इसकी सुध न रहती थी कि फिर क्या होगा, और काम कैसे चलेंगे? यह बड़ी बहू का ही काम था कि इस चढ़ी हुई नदी को थामे। वह रुपये को उनकी आँखों से इस तरह बचाती थी जैसे दीपक को हवा से बचाते हैं। वह बेधड़क कह देती थी, अब यहाँ कुछ नहीं है। लाला जी उसे धिक्कारने लगते, दुष्टा, अभागिनी, तुच्छहृदया जो कुछ मुँह में आता कहते, पर वह टस-से-मस न होती थी। अगर वह सदैव इस नीति पर चल सकती, तो अब तक जायदाद बची न रहती, पर लाला साहब ऐसे अवसरों पर कौशल से काम लेते। वह विनय के महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। बड़ी बहू उनके कोप का सामना कर सकती थी, पर उनके मृदु वचनों से हार जाती।
प्रेमशंकर की जमानत के अवसर पर लाला प्रभाशंकर ने जो रुपये कर्ज लिए थे, उसका अधिकांश उनके पास बच रहा था। वह रुपये उन्होंने महाजन को लौटा कर न दिये। शायद ऋण-धन को वह अपनी कमाई समझते थे। धन-प्राप्ति का कोई अन्य उपाय उन्हें ज्ञात ही न था। बहुत दिनों के बाद इतने रुपये एक मुश्त उन्हें मिले थे—मानों भाग्य का सूर्य उदय हो गया। आत्मीय जनों और मित्रों के यहाँ तोहफे और सौगात जाने लगे, मित्रों की दावतें होने लगीं। लाला जी पाक-कला में सिद्धहस्त थे। उनका निज रचित एक ग्रन्थ था जिसमें नाना प्रकार के व्यंजनों के बनाने की विधि लिखी हुई थी। वह विद्या उन्होंने बहुत खर्च करके हलवाइयों और बावर्चियों से प्राप्त की थी। वह निमकौड़ियों की ऐसी स्वादिष्ट खीर पका सकते थे कि बादाम को धोखा हो। लाल विषाक्त मिर्चा का ऐसा हलवा बना सकते थे कि मोहनभोग का भ्रम हो। आम की गुठलियों का कबाब बना कर उन्होंने अपने कितने ही रसज्ञ मित्रों को धोखा दे दिया था। उनका लिसोढ़ा का मुरब्बा अंगूर से भी बाजी मार ले जाता था यद्यपि इन पदार्थों को तैयार करने में धन का अपव्यय होता था, सिरमगजन भी बहुत करना पड़ता था और नक्ल-नक्ल ही रहती थी, लेकिन लाला जी इस विषय में पूरे कवि थे जिनके लिए सुहृदजनों की प्रशंसा ही सबसे बड़ा पुरस्कार है। अबकी कई साल के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई की जयन्ती हौसले के साथ की। भोज और दावत की हफ्तों तक धूम रही। शहर में एक से एक गण्यमान्य सज्जन पड़े हुए थे, पर कोई उनसे टक्कर लेने का साहस न कर सकता था।
बड़ी बहू जानती थी कि जब घर में रुपये रहेंगे इनका हाथ न रुकेगा, साल-आध-साल में सारी रकम खा-पीकर बराबर कर देंगे, इसलिए जब घर में आग ही लगाई है तो क्यों ने हाथ सेंक लें। अवसर पाते ही उसने दोनों कन्याओं के विवाह की बातचीत छेड़ दी। यद्यपि लड़कियाँ अभी विवाह के योग्य न थीं, पर मसहलत यही थी कि चलते हाथ-पैर भार से उऋण हो जायँ। जिस दिन ज्वालासिंह अपील दायर करने चले उसी दिल लाला प्रभाशंकर ने फलदान चढ़ाये। दूसरे ही दिन से वह बारातियों के आदर सत्कार की तैयारियों में व्यस्त हो गये ऐसे शुभ कार्यों में वह किफायत को दूषित ही नहीं, अक्षम्य समझते थे। उनके इरादे तो बहुत बड़े थे, लेकिन कुशल यह थी कि आजकल प्रेमशंकर प्रायः नित्य उनकी मदद करने के लिए आ जाते। प्रभाशंकर दिल से उनका आदर करते थे, इसलिए उनकी सलाहें सर्वथा निरर्थक न होतीं। विवाह की तिथि अगहन में पड़ती थी। वे डेढ़-दो महीने तैयारियों में ही कटे। प्रेमशंकर अक्सर संध्या को यहीं भोजन भी करते और कुछ देर तक गपशप करके हाजीपुर चले जाते। आश्चर्य यह था कि अब महाशय ज्ञानशंकर भी चचा से प्रसन्न मालूम होते थे। उन्होंने गोरखपुर से कई बोरे चावल, शक्कर और कई कुप्पे घी भेजे। विवाह के एक दिन पहले वह स्वयं आये और बड़े ठाट-बाट से आये। कई सशस्त्र सिपाही साथ थे। फर्श-कालीनें, दरियाँ तो इतनी लाये थे कि उनसे कई बारातें सज जातीं। दोनों वरों को सोने की एक-एक घड़ी और एक-एक मोहनमाला दी। बरातियों को भोजन करते समय एक-एक असर्फी भेंट दी। दोनों भतीजियों के लिए सोने के हार बनवा लाये थे और दोनों समधियों को एक-एक सजी हुई पालकी भेंट की। बारात के नौकरों, कहारों और नाइयों को पाँच-पाँच रुपये विदाई दी। उनकी इस असाधारण उदारता पर सारा घर चकित हो रहा था और प्रभाशंकर तो उनके ऐसे भक्त हो गये मानो वह कोई देवता थे। सारे शहर में वाह-वाह होने लगी। लोग कहते थे– मरा हाथी तो भी नौ लाख का बिगड़ गये लेकिन फिर भी हौसला और शान वही है। यह पुराने रईसों का ही गुर्दा है! दूसरे क्या खा कर इनकी बराबरी करेंगे? घर में लाखो भरे हों, कौन देखता है? यही हौसला अमीरी की पहचान है। लेकिन यह किसे मालूम था कि लाला साहब ने किन दामों यह नामवरी खरीदी है।
विवाह के बाद कुछ दिन तो बची-खुची सामग्रियों से लाला प्रभाशंकर की रसना तृप्त होती रही, लेकिन शनैः-शनैः यह द्वार भी बन्द हुआ और रूखे फीके भोजन पर कटने लगे। उस वर्षा के बाद यह सूखा बहुत अखरता था। स्वादिष्ट पदार्थों के बिना उन्हें तृप्ति न होती थी। रूखा भोजन कंठ से नीचे उतरता ही न था। बहुधा चौके पर से मुँह जूठा करके उठ आते, पर सारे दिन जी ललचाया करता। अपनी किताब खोल कर उसके पन्ने उलटते कि कौन सी चीज आसानी से बन सकती है, पर वहाँ ऐसी कोई चीज न मिलती। बेचारे निराश हो कर किताब बन्द कर देते और मन को बहलाने के लिए बरामदे में टहलने लगते। बार-बार घर में जाते, आल्मारियों और ताखों की ओर उत्कंठित नेत्रों से देखते कि शायद कोई चीज निकल आए। अभी तक थोड़ी सी नवरत्न चटनी बची हुई थी। कुछ और न मिलता तो सबकी नजर बचा उसमें से एक चम्मच निकाल कर चाट जाते। विडम्बना यह थी कि इस दुःख में कोई उनका साथी, कोई हमदर्द न था। बड़ी बहू से अगर कभी डरते-डरते अच्छी चीजें बनाने को कहते, तो वह या तो टाल जाती या झुँझला कर कह बैठती—तुम्हारी जीभ भी लड़कों की तरह चटोरी है, जब देखो खाने की ही फिक्र। सारी जायदाद हलुवे और पुलाव की भेंट कर दी और अब तक तस्कीन न हुई। अब क्या रखा है? बेचारे लाला साहब यह झिड़कियाँ सुनकर लज्जित हो जाते। प्रेमियों को प्रेमिका की चर्चा से शान्ति प्राप्त होती है, किन्तु खेद यह था कि यहाँ कोई वह चर्चा सुनानेवाला भी न था।
अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खोंचेवालों को बुलाते और उससे चाट के दोने लेकर घर के किसी कोने में जा बैठते और चुपचाप मजे ले-ले कर खाते। पहले चाट की ओर वह आँख उठाकर ताकते भी न थे, पर अब वह शान न थी। डेढ़-दो महीने तक उनका यही ढंग रहा, पर टुटपुंजिये खोंमचेवाले वादों पर कब तक रहते! उनके तकाजे होने लगे। लालाजी जो उनकी विचित्र पुकार पर कान लगाये रहते थे, अब उनकी आवाज सुनते ही छिपने के लिए बिल ढूँढ़ने लगते। उनके वादे अब सुनिश्चित न होते थे, उनमें अविनय और अविश्वास की मात्रा अधिक होती थी। मालूम नहीं, इन तकाजों से उन्हें कब तक मुँह छिपाना पड़ता, लेकिन संयोग से उनके पूरे करने की एक विधि उपस्थित हो गयी। श्रद्धा ने एक दिन उन्हंक बाजार से दो जोड़ी साड़ियाँ लाने के लिए दाम दिया। वह साड़ियाँ उधार लाये और रुपये खोंचेवालों को देकर गला छुड़ाया। बजाज की ओर से ऐसे दुराग्रहपूर्ण और निन्दास्पद तकाजों की आशंका न थी। उसे बरसों वादे पर टाला जा सकता था, मगर उस दिन से चाटवालों ने उनके द्वार पर आना ही छोड़ दिया।
लेकिन चाट बुरी लत है। अच्छे दिनों में वह गले की जंजीर है, किन्तु बुरे दिनों में तो यह पैनी छुरी हो जाती है जो आत्म-सम्मान और लज्जा का तसमा भी नहीं छोड़ती। माघ का महीना, सर्दी का यह हाल था कि नाड़ियों में रक्त जमा जाता था। लाला प्रभाशंकर नित्य वायु सेवन के बहाने प्रेमशंकर के पास जा पहुँचते और देश-काल के समाचार सुनते। मौका पाते ही किसी न किसी स्वादिष्ट पदार्थ की चर्चा छेड़ देते, उस समय की कथा कहने लगते जब चीज खायी थी, मित्रों ने उस पर क्या-क्या टिप्पणियाँ की थीं। प्रेमशंकर उनका इशारा समझ जाते और शीलमणि से वह पदार्थ बनवा कर लाते, लेकिन प्रभाशंकर की स्वाद लिप्सा कितनी दारुण थी इसका उन्हें ज्ञान न था। अतएव कभी-कभी लाला जी का मनोरथ वहाँ भी पूरा न होता। तब घर आते समय वह सीधी राह से न आते। स्वाद-तृष्णा उन्हें नानवाइयों के मुहल्ले में ले जाती। प्याज और मसालों की सुगन्ध से उनकी लोलुप आत्मा तृप्त होती थी। कितना करुणाजनक दृश्य था! सत्तर साल का बूढ़ा, उच्च कुल मर्यादा पर जान देनेवाला पुरुष गन्ध से रस का आनन्द उठाने के लिए घंटों नानवाइयों की गली में चक्कर लगाया करता, लज्जा से मुँह छिपाये हुए कि कोई देख न ले! ताजे कबाब की सुगन्ध से उनके मुँह में पानी भर आता, यहाँ तक कि खाद्याखाद्य का विचार भी न रहता। उस समय केवल एक अव्यक्त शंका, एक मिथ्या संकोच उनके फिसलते हुए पैरों को सँभाल दिया करता था।
एक दिन लालाजी प्रेमशंकर के पास गये तो उन्होंने अपील का फैसला सुनाया। प्रभाशंकर प्रसन्न हो कर बोले– यह बहुत अच्छा हुआ। ईश्वर ने तुम्हारा उद्योग सफल किया। बेचारे निरपराध किसान जेल में पड़े सड़ रहे थे। ईश्वर बड़ा दयालु है। इन आनन्दोत्सव में एक दावत होनी चाहिए।
माया बोला– जी हाँ, यही तो अभी मैं कह रहा था। मैं तो अपने स्कूल के सब लड़कों को नेवता दूँगा।
प्रेमशंकर– पहले बेचारे आ तो जायें। अभी तो उनके आने में महीनों की देर है, कोई किसी जेल में है, कोई किसी में। जज ने तो पुलिस का पक्ष करना चाहा था, पर डॉक्टर इर्फान अली ने उसकी एक न चलने दी।
प्रभा– इन जजों का यही हाल है। उनका अभीष्ट सरकार का रोब जमाना होता है, न्याय करना नहीं। इस मुकदमे में तुमने दौड़-धूप न की होती तो उन बेचारों की कौन सुनता? ऐसे कितने निरपराधी केवल पुलिस के कौशल तथा वकीलों की दुर्जनता के कारण दण्ड भोगा करते हैं। मैं तो जब वकीलों को बहस करते देखता हूँ तो ऐसा मालूम होता है मानों भाट कवित्त पढ़ रहे हों। न्याय पर किसी पक्ष की दृष्टि नहीं होती। दोनों मौखिक बल से एक दूसरे को परास्त करना चाहते हैं। जो वाक्चतुर है उसी की जीत होती है। आदमियों के जीवन-मरण का निर्णय सत्य और न्याय के बल पर नहीं, न्याय को धोखा देने के बल पर होता है।
प्रेम– जब तक मुद्दई और मुद्दालेह अपने-अपने वकील अदालत में लायेंगे तब तक इस दिशा में सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि वकील तो अपने मुवक्किल का मुख-पात्र होता है। उसे सत्यासत्य निर्णय से कोई प्रयोजन नहीं, उसका कर्तव्य केवल अपने मुवक्किल के दावे को सिद्ध करना है। सच्चे न्याय की आशा तो तभी हो सकती है जब वकीलों को अदालत स्वयं नियुक्त करे और अदालत भी राजनीतिक भावों और अन्य दुस्संस्कारों से मुक्त हो। मेरे विचार में गवर्नमेन्ट को पुलिस में सुयोग्य और सच्चरित्र आदमी छाँट-छाँट कर रखने चाहिए। अभी तक इस विभाग में सच्चरित्रता पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। वही लोग भर्ती किये जाते हैं जो जनता को दबा सकें, उन पर रोब जमा सकें। न्याय का विचार नहीं किया जाता।
प्रभा– जरा फैसला तो सुनाओ, देखूँ क्या लिखा है?
प्रेम– हाँ सुनिये, मैं अनुवाद करता हूँ। देखिए, पुलिस की कैसी तीव्र आलोचना की है। यह अभियोग पुलिस के कार्यक्रम का एक उज्जवल उदाहरण है। किसी विषय का सत्यासत्य निर्णय करने के लिए आवश्यक है, साक्षियों पर निष्पक्ष भाव से विचार किया जाय और उनके आधार पर कोई धारणा स्थिर की जाय, लेकिन पुलिस के अधिकारी वर्ग ठीक उल्टे चलते हैं, ये पहले एक धारणा स्थिर कर लेते हैं और तब उसको सिद्ध करने के लिए साक्षियों और प्रमाणों की तलाश करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी दशा में वह कार्य के कारण की ओर चलते हैं और अपनी मनोनीत धारणा में कोई संशोधन करने के बदले प्रमाणों को ही तोड़-मरोड़ कर अपनी कल्पनाओं के साँचे में ढाल देते हैं। यह उल्टी चाल क्यों चली जाती है? इसका अनुमान करना कठिन है, पर प्रस्तुत अभियोग में कठिन नहीं। एक समूह जितना भार सँभाल सकता है उतना एक व्यक्ति के लिए असाध्य है।
प्रभाशंकर ने चिन्ता भाव से कहा– यह तो खुला आक्षेप है। पुलिस से जवाब तो न तलब होगा?
प्रेम– इन आक्षेपों को कौन पूछता है? इन पर कुछ ध्यान दिया जाता, तो पुलिस कब की सुधर गयी होती।
इतने में ज्वालासिंह आते हुए दिखायी दिये। प्रेमशंकर ने कहा– चचा साहब कहते हैं कि इस विजय का उत्सव करना चाहिए।