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11 फरवरी 2022

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके जीवन के ध्येय थे। उन्होंने सदैव इसी त्रिमूर्ति की आराधना की थी और अपनी वंशगत सम्पति का अधिकांश बर्बाद कर चुकने पर भी वह अपने व्यावहारिक नियमों में संशोधन करने की जरूरत नहीं समझते थे या समझते थे, तो अब किसी नये मार्ग पर चलना उनके लिए असाध्य था। वह एक उदार गौरवशील पुरुष थे। सम्पति उनकी दृष्टि में मर्यादा पालन का एक साधन मात्र थी। इससे श्रीवृद्धि भी हो सकती है, धन से धन की उन्नति भी हो सकती है, यह उनके ध्यान में भी नहीं आया था। चिन्ताओं को वह तुच्छ समझते थे, शायद इसीलिए कि उनका निवारण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने महाजन के द्वार तक जाना पड़ता था। उनका जो समय और धन मेहमानों के आदर-सत्कार में लगता था उसी को वह श्रेयस्कर समझते थे। दान-दक्षिण के शुभ अवसर आते, तो उनकी हिम्मत आसमान पर जा पहुँचती थी। उस नशे में उन्हें इसकी सुध न रहती थी कि फिर क्या होगा, और काम कैसे चलेंगे? यह बड़ी बहू का ही काम था कि इस चढ़ी हुई नदी को थामे। वह रुपये को उनकी आँखों से इस तरह बचाती थी जैसे दीपक को हवा से बचाते हैं। वह बेधड़क कह देती थी, अब यहाँ कुछ नहीं है। लाला जी उसे धिक्कारने लगते, दुष्टा, अभागिनी, तुच्छहृदया जो कुछ मुँह में आता कहते, पर वह टस-से-मस न होती थी। अगर वह सदैव इस नीति पर चल सकती, तो अब तक जायदाद बची न रहती, पर लाला साहब ऐसे अवसरों पर कौशल से काम लेते। वह विनय के महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। बड़ी बहू उनके कोप का सामना कर सकती थी, पर उनके मृदु वचनों से हार जाती।
प्रेमशंकर की जमानत के अवसर पर लाला प्रभाशंकर ने जो रुपये कर्ज लिए थे, उसका अधिकांश उनके पास बच रहा था। वह रुपये उन्होंने महाजन को लौटा कर न दिये। शायद ऋण-धन को वह अपनी कमाई समझते थे। धन-प्राप्ति का कोई अन्य उपाय उन्हें ज्ञात ही न था। बहुत दिनों के बाद इतने रुपये एक मुश्त उन्हें मिले थे—मानों भाग्य का सूर्य उदय हो गया। आत्मीय जनों और मित्रों के यहाँ तोहफे और सौगात जाने लगे, मित्रों की दावतें होने लगीं। लाला जी पाक-कला में सिद्धहस्त थे। उनका निज रचित एक ग्रन्थ था जिसमें नाना प्रकार के व्यंजनों के बनाने की विधि लिखी हुई थी। वह विद्या उन्होंने बहुत खर्च करके हलवाइयों और बावर्चियों से प्राप्त की थी। वह निमकौड़ियों की ऐसी स्वादिष्ट खीर पका सकते थे कि बादाम को धोखा हो। लाल विषाक्त मिर्चा का ऐसा हलवा बना सकते थे कि मोहनभोग का भ्रम हो। आम की गुठलियों का कबाब बना कर उन्होंने अपने कितने ही रसज्ञ मित्रों को धोखा दे दिया था। उनका लिसोढ़ा का मुरब्बा अंगूर से भी बाजी मार ले जाता था यद्यपि इन पदार्थों को तैयार करने में धन का अपव्यय होता था, सिरमगजन भी बहुत करना पड़ता था और नक्ल-नक्ल ही रहती थी, लेकिन लाला जी इस विषय में पूरे कवि थे जिनके लिए सुहृदजनों की प्रशंसा ही सबसे बड़ा पुरस्कार है। अबकी कई साल के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई की जयन्ती हौसले के साथ की। भोज और दावत की हफ्तों तक धूम रही। शहर में एक से एक गण्यमान्य सज्जन पड़े हुए थे, पर कोई उनसे टक्कर लेने का साहस न कर सकता था।
बड़ी बहू जानती थी कि जब घर में रुपये रहेंगे इनका हाथ न रुकेगा, साल-आध-साल में सारी रकम खा-पीकर बराबर कर देंगे, इसलिए जब घर में आग ही लगाई है तो क्यों ने हाथ सेंक लें। अवसर पाते ही उसने दोनों कन्याओं के विवाह की बातचीत छेड़ दी। यद्यपि लड़कियाँ अभी विवाह के योग्य न थीं, पर मसहलत यही थी कि चलते हाथ-पैर भार से उऋण हो जायँ। जिस दिन ज्वालासिंह अपील दायर करने चले उसी दिल लाला प्रभाशंकर ने फलदान चढ़ाये। दूसरे ही दिन से वह बारातियों के आदर सत्कार की तैयारियों में व्यस्त हो गये ऐसे शुभ कार्यों में वह किफायत को दूषित ही नहीं, अक्षम्य समझते थे। उनके इरादे तो बहुत बड़े थे, लेकिन कुशल यह थी कि आजकल प्रेमशंकर प्रायः नित्य उनकी मदद करने के लिए आ जाते। प्रभाशंकर दिल से उनका आदर करते थे, इसलिए उनकी सलाहें सर्वथा निरर्थक न होतीं। विवाह की तिथि अगहन में पड़ती थी। वे डेढ़-दो महीने तैयारियों में ही कटे। प्रेमशंकर अक्सर संध्या को यहीं भोजन भी करते और कुछ देर तक गपशप करके हाजीपुर चले जाते। आश्चर्य यह था कि अब महाशय ज्ञानशंकर भी चचा से प्रसन्न मालूम होते थे। उन्होंने गोरखपुर से कई बोरे चावल, शक्कर और कई कुप्पे घी भेजे। विवाह के एक दिन पहले वह स्वयं आये और बड़े ठाट-बाट से आये। कई सशस्त्र सिपाही साथ थे। फर्श-कालीनें, दरियाँ तो इतनी लाये थे कि उनसे कई बारातें सज जातीं। दोनों वरों को सोने की एक-एक घड़ी और एक-एक मोहनमाला दी। बरातियों को भोजन करते समय एक-एक असर्फी भेंट दी। दोनों भतीजियों के लिए सोने के हार बनवा लाये थे और दोनों समधियों को एक-एक सजी हुई पालकी भेंट की। बारात के नौकरों, कहारों और नाइयों को पाँच-पाँच रुपये विदाई दी। उनकी इस असाधारण उदारता पर सारा घर चकित हो रहा था और प्रभाशंकर तो उनके ऐसे भक्त हो गये मानो वह कोई देवता थे। सारे शहर में वाह-वाह होने लगी। लोग कहते थे– मरा हाथी तो भी नौ लाख का बिगड़ गये लेकिन फिर भी हौसला और शान वही है। यह पुराने रईसों का ही गुर्दा है! दूसरे क्या खा कर इनकी बराबरी करेंगे? घर में लाखो भरे हों, कौन देखता है? यही हौसला अमीरी की पहचान है। लेकिन यह किसे मालूम था कि लाला साहब ने किन दामों यह नामवरी खरीदी है।
विवाह के बाद कुछ दिन तो बची-खुची सामग्रियों से लाला प्रभाशंकर की रसना तृप्त होती रही, लेकिन शनैः-शनैः यह द्वार भी बन्द हुआ और रूखे फीके भोजन पर कटने लगे। उस वर्षा के बाद यह सूखा बहुत अखरता था। स्वादिष्ट पदार्थों के बिना उन्हें तृप्ति न होती थी। रूखा भोजन कंठ से नीचे उतरता ही न था। बहुधा चौके पर से मुँह जूठा करके उठ आते, पर सारे दिन जी ललचाया करता। अपनी किताब खोल कर उसके पन्ने उलटते कि कौन सी चीज आसानी से बन सकती है, पर वहाँ ऐसी कोई चीज न मिलती। बेचारे निराश हो कर किताब बन्द कर देते और मन को बहलाने के लिए बरामदे में टहलने लगते। बार-बार घर में जाते, आल्मारियों और ताखों की ओर उत्कंठित नेत्रों से देखते कि शायद कोई चीज निकल आए। अभी तक थोड़ी सी नवरत्न चटनी बची हुई थी। कुछ और न मिलता तो सबकी नजर बचा उसमें से एक चम्मच निकाल कर चाट जाते। विडम्बना यह थी कि इस दुःख में कोई उनका साथी, कोई हमदर्द न था। बड़ी बहू से अगर कभी डरते-डरते अच्छी चीजें बनाने को कहते, तो वह या तो टाल जाती या झुँझला कर कह बैठती—तुम्हारी जीभ भी लड़कों की तरह चटोरी है, जब देखो खाने की ही फिक्र। सारी जायदाद हलुवे और पुलाव की भेंट कर दी और अब तक तस्कीन न हुई। अब क्या रखा है? बेचारे लाला साहब यह झिड़कियाँ सुनकर लज्जित हो जाते। प्रेमियों को प्रेमिका की चर्चा से शान्ति प्राप्त होती है, किन्तु खेद यह था कि यहाँ कोई वह चर्चा सुनानेवाला भी न था।
अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खोंचेवालों को बुलाते और उससे चाट के दोने लेकर घर के किसी कोने में जा बैठते और चुपचाप मजे ले-ले कर खाते। पहले चाट की ओर वह आँख उठाकर ताकते भी न थे, पर अब वह शान न थी। डेढ़-दो महीने तक उनका यही ढंग रहा, पर टुटपुंजिये खोंमचेवाले वादों पर कब तक रहते! उनके तकाजे होने लगे। लालाजी जो उनकी विचित्र पुकार पर कान लगाये रहते थे, अब उनकी आवाज सुनते ही छिपने के लिए बिल ढूँढ़ने लगते। उनके वादे अब सुनिश्चित न होते थे, उनमें अविनय और अविश्वास की मात्रा अधिक होती थी। मालूम नहीं, इन तकाजों से उन्हें कब तक मुँह छिपाना पड़ता, लेकिन संयोग से उनके पूरे करने की एक विधि उपस्थित हो गयी। श्रद्धा ने एक दिन उन्हंक बाजार से दो जोड़ी साड़ियाँ लाने के लिए दाम दिया। वह साड़ियाँ उधार लाये और रुपये खोंचेवालों को देकर गला छुड़ाया। बजाज की ओर से ऐसे दुराग्रहपूर्ण और निन्दास्पद तकाजों की आशंका न थी। उसे बरसों वादे पर टाला जा सकता था, मगर उस दिन से चाटवालों ने उनके द्वार पर आना ही छोड़ दिया।
लेकिन चाट बुरी लत है। अच्छे दिनों में वह गले की जंजीर है, किन्तु बुरे दिनों में तो यह पैनी छुरी हो जाती है जो आत्म-सम्मान और लज्जा का तसमा भी नहीं छोड़ती। माघ का महीना, सर्दी का यह हाल था कि नाड़ियों में रक्त जमा जाता था। लाला प्रभाशंकर नित्य वायु सेवन के बहाने प्रेमशंकर के पास जा पहुँचते और देश-काल के समाचार सुनते। मौका पाते ही किसी न किसी स्वादिष्ट पदार्थ की चर्चा छेड़ देते, उस समय की कथा कहने लगते जब चीज खायी थी, मित्रों ने उस पर क्या-क्या टिप्पणियाँ की थीं। प्रेमशंकर उनका इशारा समझ जाते और शीलमणि से वह पदार्थ बनवा कर लाते, लेकिन प्रभाशंकर की स्वाद लिप्सा कितनी दारुण थी इसका उन्हें ज्ञान न था। अतएव कभी-कभी लाला जी का मनोरथ वहाँ भी पूरा न होता। तब घर आते समय वह सीधी राह से न आते। स्वाद-तृष्णा उन्हें नानवाइयों के मुहल्ले में ले जाती। प्याज और मसालों की सुगन्ध से उनकी लोलुप आत्मा तृप्त होती थी। कितना करुणाजनक दृश्य था! सत्तर साल का बूढ़ा, उच्च कुल मर्यादा पर जान देनेवाला पुरुष गन्ध से रस का आनन्द उठाने के लिए घंटों नानवाइयों की गली में चक्कर लगाया करता, लज्जा से मुँह छिपाये हुए कि कोई देख न ले! ताजे कबाब की सुगन्ध से उनके मुँह में पानी भर आता, यहाँ तक कि खाद्याखाद्य का विचार भी न रहता। उस समय केवल एक अव्यक्त शंका, एक मिथ्या संकोच उनके फिसलते हुए पैरों को सँभाल दिया करता था।
एक दिन लालाजी प्रेमशंकर के पास गये तो उन्होंने अपील का फैसला सुनाया। प्रभाशंकर प्रसन्न हो कर बोले– यह बहुत अच्छा हुआ। ईश्वर ने तुम्हारा उद्योग सफल किया। बेचारे निरपराध किसान जेल में पड़े सड़ रहे थे। ईश्वर बड़ा दयालु है। इन आनन्दोत्सव में एक दावत होनी चाहिए।
माया बोला– जी हाँ, यही तो अभी मैं कह रहा था। मैं तो अपने स्कूल के सब लड़कों को नेवता दूँगा।
प्रेमशंकर– पहले बेचारे आ तो जायें। अभी तो उनके आने में महीनों की देर है, कोई किसी जेल में है, कोई किसी में। जज ने तो पुलिस का पक्ष करना चाहा था, पर डॉक्टर इर्फान अली ने उसकी एक न चलने दी।
प्रभा– इन जजों का यही हाल है। उनका अभीष्ट सरकार का रोब जमाना होता है, न्याय करना नहीं। इस मुकदमे में तुमने दौड़-धूप न की होती तो उन बेचारों की कौन सुनता? ऐसे कितने निरपराधी केवल पुलिस के कौशल तथा वकीलों की दुर्जनता के कारण दण्ड भोगा करते हैं। मैं तो जब वकीलों को बहस करते देखता हूँ तो ऐसा मालूम होता है मानों भाट कवित्त पढ़ रहे हों। न्याय पर किसी पक्ष की दृष्टि नहीं होती। दोनों मौखिक बल से एक दूसरे को परास्त करना चाहते हैं। जो वाक्चतुर है उसी की जीत होती है। आदमियों के जीवन-मरण का निर्णय सत्य और न्याय के बल पर नहीं, न्याय को धोखा देने के बल पर होता है।
प्रेम– जब तक मुद्दई और मुद्दालेह अपने-अपने वकील अदालत में लायेंगे तब तक इस दिशा में सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि वकील तो अपने मुवक्किल का मुख-पात्र होता है। उसे सत्यासत्य निर्णय से कोई प्रयोजन नहीं, उसका कर्तव्य केवल अपने मुवक्किल के दावे को सिद्ध करना है। सच्चे न्याय की आशा तो तभी हो सकती है जब वकीलों को अदालत स्वयं नियुक्त करे और अदालत भी राजनीतिक भावों और अन्य दुस्संस्कारों से मुक्त हो। मेरे विचार में गवर्नमेन्ट को पुलिस में सुयोग्य और सच्चरित्र आदमी छाँट-छाँट कर रखने चाहिए। अभी तक इस विभाग में सच्चरित्रता पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। वही लोग भर्ती किये जाते हैं जो जनता को दबा सकें, उन पर रोब जमा सकें। न्याय का विचार नहीं किया जाता।
प्रभा– जरा फैसला तो सुनाओ, देखूँ क्या लिखा है?
प्रेम– हाँ सुनिये, मैं अनुवाद करता हूँ। देखिए, पुलिस की कैसी तीव्र आलोचना की है। यह अभियोग पुलिस के कार्यक्रम का एक उज्जवल उदाहरण है। किसी विषय का सत्यासत्य निर्णय करने के लिए आवश्यक है, साक्षियों पर निष्पक्ष भाव से विचार किया जाय और उनके आधार पर कोई धारणा स्थिर की जाय, लेकिन पुलिस के अधिकारी वर्ग ठीक उल्टे चलते हैं, ये पहले एक धारणा स्थिर कर लेते हैं और तब उसको सिद्ध करने के लिए साक्षियों और प्रमाणों की तलाश करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी दशा में वह कार्य के कारण की ओर चलते हैं और अपनी मनोनीत धारणा में कोई संशोधन करने के बदले प्रमाणों को ही तोड़-मरोड़ कर अपनी कल्पनाओं के साँचे में ढाल देते हैं। यह उल्टी चाल क्यों चली जाती है? इसका अनुमान करना कठिन है, पर प्रस्तुत अभियोग में कठिन नहीं। एक समूह जितना भार सँभाल सकता है उतना एक व्यक्ति के लिए असाध्य है।
प्रभाशंकर ने चिन्ता भाव से कहा– यह तो खुला आक्षेप है। पुलिस से जवाब तो न तलब होगा?
प्रेम– इन आक्षेपों को कौन पूछता है? इन पर कुछ ध्यान दिया जाता, तो पुलिस कब की सुधर गयी होती।
इतने में ज्वालासिंह आते हुए दिखायी दिये। प्रेमशंकर ने कहा– चचा साहब कहते हैं कि इस विजय का उत्सव करना चाहिए।  
 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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