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प्रेमाश्रम (भाग-3)

10 फरवरी 2022

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16.
प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा करते कि फिर अमेरिका चला जाऊँ और फिर जीवन पर्यन्त आने का नाम न लूँ। किन्तु यह आशा कि कदाचित् देश और समाज की अवस्था का ज्ञान श्रद्धा में सद् विचार उत्पन्न कर दे, उसका दामन पकड़ लेती थी। दिन-के-दिन दीवानखाने में पड़े रहते, न किसी से मिलना, न जुलना, कृषि-सुधार के इरादे स्थगित हो गये। उस पर विपत्ति यह भी कि ज्ञानशंकर बिरादरी वालों के षड्यन्त्रों के समाचार ला-लाकर उन्हें और भी उद्विग्न करते रहते थे। एक दिन खबर लाए कि लोगों ने एक महती सभा करके आपको समाज-च्युत करने का प्रस्ताव पास कर दिया। दूसरे दिन ब्राह्मणों की एक सभा की खबर लाये, जिसमें उन्होंने निश्चय किया था कि कोई प्रेमशंकर के घर पूजा-पाठ करने न जाये। इसके एक दिन पीछे श्रद्धा के पुरोहित जी ने आना छोड़ दिया। ज्ञानशंकर बातों-बातों में यह भी जता दिया करते थे कि आपके कारण मैं बदनाम हो रहा हूँ और शंका है कि लोग मुझे भी त्याग दें। भाई के साथ तो यह व्यवहार था, और विरादरी के नेताओं के पास आकर प्रेमशंकर के झूठे आक्षेप करते, वह देवताओं को गालियाँ देते हैं, कहते हैं, मांस सब एक है, चाहे किसी का हो। खाना खाकर कभी हाथ-मुँह तक नहीं धोते, कहते हैं, चमार भी कर्मानुसार ब्राह्मण हो सकता है। यह बातें सुन-सुन कर बिरादरी वालों की द्वेषाग्नि और भी भड़कती थी, यहाँ तक कि कई मनचले नवयुवक तो इस पर उद्यत थे कि प्रेमशंकर को कहीं अकेले पा जायें तो उनकी अच्छी तरह खबर लें। ‘तिलक’ एक स्थानीय पत्र था। उसमें इस विषय पर खूब जहर उगला जाता था। ज्ञानशंकर नित्य वह पत्र लाकर अपने भाई को सुनाते और यह सब केवल इस लिए कि वह निराश और भयभीत होकर यहाँ से भाग खड़े हों और मुझे जायदाद में हिस्सा न देना पड़े। प्रेमशंकर साहस और जीवट के आदमी थे, इन घमकियों की उन्हें परवाह न थी, लेकिन उन्हें मंजूर न था। की मेरे कारण ज्ञानशंकर पर आँच आये। श्रद्धा की ओर से भी उनका चित्त फटता जाता था। इस चिन्तामय अवस्था का अन्त करने के लिए वह कही अलग जाकर शान्ति के साथ रहना और अपने जीवनोद्देश्य को पूरा करना चाहते थे। पर जायँ कहाँ? ज्ञानशंकर से एक बार लखनपुर में रहने की इच्छा प्रकट की थी, पर उन्होंने इतनी आपत्तियाँ खड़ी की, कष्टों और असुविधाओं का एक ऐसा चित्र खींचा कि प्रेमशंकर उनकी नीयत को ताड़ गये। वह शहर के निकट ही थोड़ी सी ऐसी जमीन लेना चाहते थे, जहाँ एक कृषिशाला खोल सकें। इसी धुन में नित्य इधर-उधर चक्कर लगाया करते थे। स्वभाव में संकोच इतना कि किसी से अपने इरादे जाहिर न करते। हाँ, लाला प्रभाशंकर का पितृवत प्रेम और स्नेह उन्हें अपने मन के विचार उनसे प्रकट करने पर बाध्य कर देता था। लाला जी को जब अवकाश मिलता, वह प्रेमशंकर के पास आ बैठते और अमेरिका के वृत्तान्त बड़े शौक से सुनते। प्रेमशंकर दिनों-दिन उनकी सज्जनता पर मुग्ध होते जाते थे। ज्ञानशंकर तो सदैव उनका छिद्रान्वेषण किया करते पर उन्होंने भूलकर भी ज्ञानशंकर के खिलाफ जबान नहीं खोली। वह प्रेमशंकर के विचारों से सहमत न होते थे, यही सलाह दिया करते थे कि कहीं सरकारी नौकरी कर लो।
एक दिन प्रेमशंकर को उदास और चिंतित देखकर लाला जी बोले– क्या यहाँ जी नहीं लगता?
प्रेम– मेरा विचार है कि कहीं अलग मकान लेकर रहूँ। यहाँ मेरे रहने से सबको कष्ट होता है।
प्रभा– तो मेरे घर उठ चलो, वह भी तुम्हारा ही घर है। मैं भी कोई बेगाना नहीं हूँ वहाँ तुम्हें कोई कष्ट न होगा। हम लोग इसे अपना धन्य भाग समझेंगे कहीं नौकरी के लिए लिखा?
प्रेम– मेरा इरादा नौकरी करने का नहीं है।
प्रभा– आखिर तुम्हें नौकरी से इतनी नफरत क्यों है? नौकरी कोई बुरी चीज है?
प्रेम– जी नहीं, मैं उसे बुरा नहीं कहता। पर मेरा मन उससे भागता है।
प्रभा– तो मन को समझाना चाहिए न? आज सरकारी नौकरी का जो मान-सम्मान है, वह और किसका है? और फिर आमदनी अच्छी, काम कम, छुट्टी ज्यादा। व्यापार में नित्य हानि का भय, जमींदारी में नित्य अधिकारियों की खुशामद और असामियों के बिगड़ने का खटका, नौकरी इन पेशों से उत्तम है। खेती-बारी का शौक उस हालत में भी पूरा हो सकता है। यह तो रईसों के मनोरंजन की सामग्री है। अन्य देशों के हालात तो नहीं जानता, पर यहाँ किसी रईस के लिए खेती करना अपमान की बात है। मुझे भूखों मरना कबूल है, पर दूकानदारी या खेती कबूल नहीं है।
प्रेम– आपका कथन सत्य है, पर मैं अपने मन से मजबूत हूँ। मुझे थोड़ी-सी जमीन की तलाश है, पर इधर कहीं नजर नहीं आती।
प्रभा– अगर किसी पर मन लगा है तो करके देख लो। क्या करूँ, मेरे पास शहर के निकट जमीन नहीं है, नहीं तुम्हें हैरान न होना पड़ता। मेरे गाँव में करना चाहो तो जितनी जमीन चाहो उतनी मिल सकती है, मगर दूर है।
इसी हैस-बैस में चैत का महीना गुजर गया। प्रेमशंकर में कृषि-प्रयोगशाला की आवश्यकता की ओर रईसों का ध्यान आकर्षित करने के लिए समाचार पत्रों में कई, विद्वतापूर्ण लेख छपवाये। इन लेखों का बड़ा आदर हुआ। उन्हें पत्रों में उद्धत किया, उन पर टीकाएँ कीं और कई अन्य भाषा में उनके अनुवाद भी हुए। इसका फल यह हुआ कि ताल्लुकेदार एसोसिएशन ने अपने वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रेमशंकर को कृषि-विषयक एक निबंध पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। प्रेमशंकर आनन्द से फूले न समाए। बड़ी खोज और परिश्रम से एक निबन्ध लिखा और लखनऊ आ पहुँचे। कैसरबाग में इस उत्सव के लिए एक विशाल पण्डाल बनाया गया था। राय कमलाचन्द इस सभा के मन्त्री चुने गये थे। मई का महीना था। गरमी खूब पड़ने लगी थी। मैदान में भी सन्ध्या समय तक चला करती थी। घर में बैठना नितान्त दुस्सह था। रात में आठ बजे प्रेमशंकर राय साहब के निवास स्थान पर पहुँचे। राय साहब ने तुरन्त उन्हें अन्दर बुलाया वह इस समय अपने दीवानखाने के पीछे की ओर एक छोटी-सी कोठरी में बैठे हुए थे। ताक पर एक धुँधला-सा दीपक जल रहा था। गर्मी इतनी थी कि जान पड़ता था अग्निकुण्ड है। पर इस आग की मिट्टी में राय साहब एक मोटा ऊनी कम्बल ओढ़े हुए थे। उनके मुख पर विलक्षण तेज था और नेत्रों से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति मालूम होते थे। उनका शारीरिक गठन और दीर्घ काया किसी पहलवान को भी लज्जित कर सकता था। उनके गले में एक रुद्राक्ष की माला थी, बगल में एक चाँदी का प्याला और गडुआ रखा हुआ था। तख्ते पर एक ओर दो मोटे-ताजे जवान बैठे पंजा लड़ा रहे थे और उसकी दूसरी ओर तीन कोमलांगी रमणियाँ वस्त्राभूषणों से सजी हुई विराज रही थीं इन्द्र का अखाड़ा था, जिसमें इन्द्र, काले देव और अप्सराएँ सभी अपना-अपना पार्ट खेल रहे थे।
प्रेमशंकर को देखते ही राय साहब ने उठकर बड़े तपाक से उनका स्वागत किया, उनके बैठने के लिए कुर्सी मँगाई और बोले, क्षमा कीजिए, मैं इस समय देवोपासना कर रहा हूं, पर आपसे मिलने के लिए ऐसा उत्कंठित था कि एक क्षण का विलम्ब भी न सह सका। आपको देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। संसार ईश्वर का विराट् स्वरूप है। जिसने संसार को देख लिया, उसने ईश्वर के विराट स्वरूप का दर्शन कर लिया। यात्रा अनुभूत ज्ञान प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। कुछ जलपान के लिए मँगाऊँ?
प्रेम– जी नहीं, अभी जलपान कर चुका हूं।
राय साहब– समझ गया, आप भी जवानी में बूढ़े हो गये। भोजन-आहार का यही पथ्यापथ्य विचार बुढ़ापा है। जवान वह है जो भोजन के उपरान्त फिर भोजन करे, ईंट-पत्थर तक भक्षण कर ले। जो एक बार जलपान करके फिर नहीं खा सकता, जिसके लिए कुम्हड़ा बादी है, करेला गर्म, कटहल गरिष्ठ, उसे मैं बूढ़ा ही समझता हूँ। मैं सर्वभक्षी हूँ और इसी का फल है कि साठ वर्ष की आयु होने पर भी मैं जवान हूँ।
यह कहकर राय साहब ने लोटा मुँह से लगाया और कई घूँट गट-गट पी गये, फिर प्याले में से कई चमचे निकालकर खाए और जीभ चटकाते हुए बोले– यह न समझिए कि मैं स्वादेन्द्रिय का दास हूँ। मैं इच्छाओं का दास नहीं, स्वामी बनकर रहता हूँ यह दमन करने का साधन मात्र है। तैराक वह है जो पानी में गोते लगाये। योद्धा वह है जो मैदान में उतरे। बवा से भागकर बवा से बचने का कोई मूल्य नहीं। ऐसा आदमी बवा की चपेट में आकर फिर नहीं बच सकता। वास्तव में रोग-विजेता वही है जिसकी स्वाभाविक अग्नि, जिसकी अन्तरस्थ ज्वाला, रोग-कीटों को भस्म कर दे। इस लोटे में आग की चिनगारियाँ हैं, पर मेरे लिए शीतल जल है। इस प्याले में वह पदार्थ है, जिसका एक चमचा किसी योगी को भी उन्मत्त कर सकता है, पर मेरे लिए सूखे साग के तुल्य है; मैं शिव और शक्ति का उपासक हूँ। विष को दूध-घी समझता हूँ। हमारी आत्मा ब्रह्मा का ज्योतिस्वरूप है। उसे मैं देश तथा इच्छाओं और चिन्ताओं से मुक्त रखना चाहता हूँ। आत्मा के लिए पूर्ण अखण्ड स्वतन्त्रता सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। मेरे किसी काम का कोई निर्दिष्ट समय नहीं। जो इच्छा होती है, करता हूँ आपको कोई कष्ट तो नहीं है। , आराम से बैठिए।
प्रेम– बहुत आराम से बैठा हूँ।
राय साहब– आप इस त्रिमूर्ति को देखकर चौंकते होंगे। पर मेरे लिए यह मिट्टी के खिलौने हैं। विषयायुक्त आँखें इनके रूप-लावण्य पर मिटती हैं, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्याप्त है। बाह्य रूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह भकुएँ हैं, जो गुफाओं और कन्दराओं में बैठकर तप और ध्यान के स्वांग भरते हैं। वह कायर हैं, प्रलोभनों से मुँह छिपाने वाले, तृष्णाओं से जान बचाने वाले। वे क्या जानें कि आत्मा-स्वातन्त्र्य क्या वस्तु है? चित्त की दृढ़ता और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। वह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोंके से जमीन पर गिर पड़ती हैं। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्म-शुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय दमन ही सच्चा योग, सच्ची तपस्या है। वासनाओं में पड़कर अविचलित रहना ही सच्चा वैराग्य है। उत्तम पदार्थों का सेवन कीजिए; मधुर गान का आनन्द उठाइए, सौन्दर्य की उपासना कीजिए; परन्तु मनोवृत्तियों का दास न बनिए; फिर आप सच्चे वैरागी हैं (दोनों पहलवानों से) पण्डा जी! तुम बिल्कुल बुद्धू ही रहे, यह महाश्य अमेरिका का भ्रमण कर आये हैं, हमारे दामाद हैं। इन्हें कुछ अपनी कविता सुनाओ, खूब फड़कते हुए कवित्त हों।
दोनों पण्डे खड़े हो गये और स्वर मिलाकर एक कवित्त पढ़ने लगे। कवित्त क्या था, अपशब्दों का पोथा और अश्लीलता का अविरल प्रवाह था। एक-एक शब्द बेहयायी और बेशर्मी में डूबा हुआ था। मुँहफूट भाँड़ भी लज्जास्पद अंगों का ऐसा नग्न ऐसा घृणोत्पादक वर्णन न कर सकते होंगे। कवि ने समस्त भारतवर्ष के कबीर और फाग का इत्र, समस्त कायस्थ समाज की वैवाहिक गजलों का सत, समस्त भारतीय नारि-वृन्दा की प्रथा-प्रणीत गलियों का निचोड़ और समस्त पुलिस विभाग के करमचारियों के अपशब्दों का जौहर खींचकर रख दिया था और वह गन्दे कवित्त इन पण्डों के मुँह से ऐसी सफाई से निकल रहे थे, मानो फूल झड़ रहे हैं। राय साहब मूर्तिवत् बैठे थे, हँसी का तो कहना क्या, ओठों पर मुस्कुराहट का चिह्न भी न था। तीनों वेश्याओं ने शर्म से सिर झुका लिया, किन्तु प्रेमाशंकर हँसी को रोक न सके। हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये।
पण्डों के चुप होते ही सामाजियों का आगमन हुआ। उन्होंने अपने साज मिलाए, तबले पर थाप पड़ी, सारंगियों ने स्वर मिलाया और तीनों रमणियां ध्रुपद अलापने लगीं। प्रेमशंकर को स्वर लालित्य का वही आनन्द मिल रहा था जो किसी गँवार को उज्जवल रत्नों के देखने से मिलता है। इस आनन्द में रसज्ञता न थी; किन्तु मर्मज्ञ राय साहब मस्त हो-होकर झूम रहे थे और कभी-कभी स्वयं गाने लगते थे।
आधी रात तक मधुर अलाप की तानें उठती रहीं। जब प्रेमशंकर ऊँघ-ऊँघ कर गिरने लगे तब सभा विसर्जित हुई। उन्हें राय साहब की बहुज्ञता और प्रतिभा पर आश्चर्य हो रहा था, इस मनुष्य में कितना बुद्धि चमत्कार, कितना आत्मबल, कितनी सिद्धि, कितनी सजीविता है और जीवन का कितना विलक्षण आदर्श!
दूसरे दिन प्रेमशंकर सोकर उठे तो आठ बजे थे। मुँह-हाथ धोकर बरामदे में टहलने लगे कि सामने से राय साहब एक मुश्की घोड़े पर सवार आते दिखाई दिए। शिकारी वस्त्र पहने हुए थे। कन्धे पर बन्दूक थी। पीछे-पीछे शिकारी कुत्तों का झुण्ड चला आ रहा था। प्रेमशंकर को देखकर बोले– आज किसी भले आदमी का मुँह देखा था। एक वार भी खाली नहीं गया। निश्चय कर लिया था कि जलपान के समय तक लौट आऊँगा। आप कुछ अनुमान कर सकते हैं कितनी दूर से आ रहा हूँ? पूरे बीस मील का धावा किया है। तीन घण्टे से ज्यादा कभी नहीं सोता। मालूम है न आज तीन बजे से जलसा शुरू होगा।
प्रेम– जी हाँ, डेलिगेट लोग (प्रतिनिधिगण) आ गये होंगे?
राय– (हँसकर) मुझे अभी तक कुछ खबर नहीं और मैं ही स्वागतकारिणी समिति का प्रधान हूँ। मेरे मुख्तार साहब ने सब प्रबन्ध कर दिया होगा। अभी तक मैंने कुछ भी नहीं सोचा कि वहाँ क्या कहूँगा? बस मौके पर जो मुँह में आयेगा, बक डालूँगा।
प्रेम– आपकी सूझ बहुत अच्छी होगी?
राय– जी हाँ, मेरे एसोसिएशन में ऐसा कोई नहीं है, जिसकी सूझ अच्छी न हो। इस गुण में एक से एक बढ़कर हैं। कोषाध्यक्ष को आय-व्यय का पता नहीं, पर सभा के सामने वह पूरा ब्योरा दिखा देंगे। यही हाल औरों का भी है। जीवन इतना अल्प है कि आदमी को अपने ही ढोल पीटने से छुट्टी नहीं मिलती, जाति का मंजीरा कौन बजाये?
प्रेम– ऐसी संस्थाओं से देश का क्या उपकार होगा?
राय– उपकार क्यों नहीं, क्या आपके विचार में जाति का नेतृत्व निरर्थक वस्तु है? आजकल तो यही उपाधियों का सदर दरवाजा हो रहा है। सरल भक्तों का श्रद्धास्पद बनना क्या कोई मामूली बात है? बेचारे जाति के नाम पर मरनेवाले सीधे-सादे लोग दूर-दूर से हमारे दर्शनों को आते हैं। हमारी गाड़ियाँ खींचते हैं, हमारी पदरज को माथे पर चढ़ाते हैं। क्या यह कोई छोटी बात है? और फिर हममें कितने ही जाति के सेवक ऐसे भी हैं जो सारा हिसाब मन में रखते हैं, उनसे हिसाब पूछिए तो वह अपनी तौहीन समझेंगे और इस्तीफे की धमकी देंगे। इसी संस्था के सहायक मन्त्री की वकालत बिल्कुल नहीं चलती; पर अभी उन्होंने बीस हजार का एक बँगला मोल लिया है। जाति से ऐसे भी लेना है, वैसे भी लेना है, चाहे इस बहाने से लीजिए, चाहे उस बहाने से लीजिये!
प्रेम– मुझे अपना निबन्ध पढ़ने का समय कब मिलेगा?
राय– आज तो मिलेगा नहीं। कल गार्डन पार्टी है। हिज एक्सेलेन्सी और अन्य अधिकारी वर्ग निमन्त्रित हैं। सारा दिन उसी तैयारी में लग जायेगा। परसों सब चिड़ियाँ उड़ जायेंगी, कुछ इने-गिने लोग रह जायेंगे, तब आप शौक से अपना लेख सुनाइएगा।
यही बातें हो रही थीं कि राजा इन्द्रकुमार सिंह का आगमन हुआ। राय साहब ने उनका स्वागत करके पूछा– नैनीताल कब तक चलिएगा।
राजा साहब– मैं तो सब तैयारियाँ करके चला हूँ। यहीं से हिज एक्सेलेन्सी के साथ चला जाऊँगा। क्या मिस्टर ज्ञानशंकर नहीं आये?
प्रेम– जी नहीं, उन्हें अवकाश नहीं मिला।
राजा– मैंने समाचार-पत्रों में आपके लेख देखे थे। इसमें सन्देह नहीं कि आप कृषि-शास्त्र के पण्डित हैं, पर आप जो प्रस्ताव कर रहे हैं वह यहाँ के लिए कुछ बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता। हमारी सरकार ने कृषि की उन्नति के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। जगह-जगह पर प्रयोगशालाएँ खोलीं, सस्ते दामों में बीज बेचती हैं, कृषि संबंधी आविष्कारों का पत्रों द्वारा प्रचार करती है। इस काम के लिए कितने ही निरीक्षक नियुक्त किए हैं, कृषि के बड़े-बड़े कॉलेज खोल रक्खे हैं? पर उनका फल कुछ न निकला। जब वह करोड़ो रुपये व्यय करके कृत-कार्य न हो सकी तो आप दो लाख की पूँजी से क्या कर लेंगे? आपके बनाए हुए यन्त्र कोई सेंत भी न लेगा। आपकी रासायनिक खादें पड़ी सड़ेंगी। बहुत हुआ, आप पाँच-सात सैकड़े मुनाफे दे देंगे। इससे क्या होता है? जब हम दो-चार कुएँ, खोदवाकर, पटवारी से मिलकर, कर्मचारियों का सत्कार करके आसानी से अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, तो यह झंझट कौन करे।
प्रेम– मेरा उद्देश्य कोई व्यापार खोलना नहीं है। मैं तो केवल कृषि की उन्नति के लिए धन चाहता हूँ। सम्भव है आगे चलकर लाभ हो, पर अभी तो मुनाफे की कोई आशा नहीं।
राजा– समझ गया, यह केवल पुण्य-कार्य होगा।
प्रेम– जी हाँ, यही मेरा उद्देश्य है। मैंने अपने उन लेखों में और इस निबन्ध में भी यही बात साफ-साफ कह दी है।
राजा– तो फिर आपने श्रीगणेश करने में भूल की। आपको पहले इस विषय में लाट साहब की सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। तब दो कि जगह आपको दस लाख बात की बात में मिल जाते। बिना सरकारी प्रेरणा के यहाँ ऐसे कामों में सफलता नहीं होती। यहाँ आप जितनी संस्थाएँ देख रहे हैं, उनमें किसी का जन्म स्वाधीन रूप से नहीं। यहाँ की यही प्रथा है। राय साहब यदि आपको हिज एक्सेलेन्सी से मिला दें और उनकी आप पर कृपादृष्टि हो जाये तो कल ही रुपये का ढेर लग जाये।
राय– मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ।
प्रेम– मैं इस संस्था को सरकारी सम्पर्क से अलग रखना चाहता हूँ।
राजा– ऐसी दशा में आप इस एसोसिएशन से सहायता की आशा न रखें कम-से-कम मेरा यही विचार है; क्यों राय साहब?
राय– आपका कहना यथार्थ है।
प्रेम– तो फिर मेरा निबन्ध पढ़ना व्यर्थ है।
राजा– नहीं, व्यर्थ नहीं है। सम्भव है, आप इसके द्वारा आगे चलकर सरकारी सहायता पा सकें। हाँ, राय साहब, प्रधान जी का जुलूस निकालने की तैयारी हो रही है न? वह तीसरे पहर की गाड़ी से आनेवाले हैं।
प्रेमशंकर निराश हो गये। ऐसी सभी में अपना निबन्ध पढ़ना अन्धों के आगे रोना था। वह तीन दिन लखनऊ रहे और एसोसिएशन के अधिवेशन में शरीक होते रहे, किन्तु न तो अपना लेख पढ़ा और न किसी ने उनसे पढ़ने के लिए जोर दिया। वहाँ तो सभी अधिकारियों के सेवा-सत्कार में ऐसे दत्तचित्त थे, मानो बारात आयी हो। बल्कि उनका वहाँ रहना सबको अखरता था। सभी समझते थे कि यह महाशय मन में हमारा तिरस्कार कर रहे हैं। लोगों को किसी गुप्त रीति से यह भी मालूम हो गया था कि यह स्वराज्यवादी हैं। इस कारण से किसी ने उनसे निबन्ध पढ़ने के लिए आग्रह नहीं किया, यहाँ तक कि गार्डन पार्टी में उन्हें निमन्त्रण भी न दिया। यह रहस्य लोगों पर उनके आने के एक दिन पीछे खुला था; नहीं तो कदाचित् उनके पास लेख पढ़ने को आदेश-पत्र भी न भेजा जाता। प्रेमशंकर ऐसी दशा में वहाँ क्योंकर ठहरते? चौथे दिन घर चले आये। दो-तीन दिन तक उनका चित्त बहुत खिन्न रहा, किन्तु इसलिए नहीं कि उन्हें आशातीत सफलता न हुई, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहायता के लिए रईसों के सामने हाथ फैला कर अपने स्वाभिमान की हत्या की। यद्यपि अकेले पड़े-पड़े उनका जी उकताता था, पर इसके साथ ही यह अवस्था आत्म-चिन्तन के बहुत अनुकूल थी। निःस्वार्थ सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है। प्रयोगशाला स्थापित करके मैं कुछ स्वार्थ भी सिद्ध करना चाहता था। कुछ लाभ होता, कुछ नाम होता। परमात्मा ने उसी का मुझे दण्ड दिया है। सेवा का क्या यही एक साधन है? मैं प्रयोगशाला के ही पीछे क्यों पड़ा हुआ हूँ? बिना प्रयोगशाला के भी कृषि-संबंधी विषयों का प्रचार किया जा सकता है। रोग-निवारण क्या सेवा नहीं है? इन प्रश्नों ने प्रेमशंकर के सदुत्साह तो उत्तेजित को उत्तेजित कर दिया। वह प्रायरू घर से निकल जाते और आस-पास के देहातों में जा कर किसानों से खेती-बारी के विषय में वार्तालाप करते। उन्हें अब मालूम हुआ कि यहाँ के किसानों को जितना मूर्ख समझा जाता है, वे उतने मूर्ख नहीं हैं! उन्हें किसानों से कितनी ही नई बातों का ज्ञान हुआ। शनैः-शनैः वह दिन-दिन भर घर से बाहर रहने लगे। कभी-कभी दूर के देहातों में चले जाते; दो-दो तीन दिन तक न लौटते।
जेठ का महीना था। आकाश से आग बरसती थी। राज्यधिकारी वर्ग पहाड़ों पर ठण्डी हवा खा रहे थे। भ्रमण करने वाले कर्मचारियों के दौरे भी बन्द थे; पर प्रेमशंकर की तातील न थी। उन्हें बहुधा दोपहर का समय पेड़ों की छाँह में काटना पड़ता, कभी दिन का दिन निराहार बीत जाता, पर सेवा की धुन ने उन्हें शारीरिक सुखों से विरक्त कर दिया था। किसी गाँव में हैजा फैलने की खबर मिलती, कहीं कीड़े ऊख के पौधे का सर्वनाश किये डालते थे। कहीं आपस में लठियाव होने का समाचार मिलता। प्रेमशंकर डाकियों की भांति इन सभी स्थानों पर जा पहुँचते और यथासाध्य कष्ट-निवारण का प्रयास करते। कभी-कभी लखनपुर तक का धावा मारते। जब आषाढ़ में मेह बरसता तो प्रेमशंकर को अपने काम में बड़ी असुविधा होने लगी। वह एक विशेष प्रकार के धानों का प्रचार करना चाहते थे। तरकारियों के बीज भी वितरण करने के लिए मँगा रखे थे। उन्हें बोने और उपजाने की विधि बतलानी भी जरूरी थी। इसलिए उन्होंने शहर से चार-पाँच मील पर वरुणा किनारे हाजीगंज में रहने का निश्चय किया। गाँव से बाहर फूस का एक झोंपड़ा पड़ गया। दो-तीन खाटें आ गयीं। गाँववालों की उन पर असीम भक्ति थी। उनके निवास को लोगों ने अहोभाग्य समझा। उन्हें सब लोग अपना रक्षक, अपना इष्टदेव समझते थे और उनके इशारे पर जान देने को तैयार रहते थे।
यद्यपि प्रेमशंकर को यहाँ बड़ी शान्ति मिलती थी, पर श्रद्धा की याद कभी-कभी विकल कर देती थी। वह सोचते, यदि वह भी मेरे साथ होती तो कितने आनन्द से जीवन व्यतीत होता। उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि ज्ञानशंकर ने ही मेरे विरुद्ध उनके कान भरे हैं, अतएव उन्हें अब उस पर क्रोध के बदले दया आती थी। उन्हें एक बार उससे मिलने और उसके मनोगत भावों को जानने की बड़ी आकांक्षा होती थी। कई बार इरादा किया कि एक पत्र लिखूँ पर यह सोचकर कि जवाब दे या न दे, टाले जाते थे। इस चिन्ता के अतिरिक्त अब धनाभाव से भी कष्ट होता था। अमेरिका से जितने रुपये लाये थे, वह इन चार महीनों में खर्च हो गये थे और यहाँ नित्य ही रुपयों का काम लगा रहता था। किसानों से अपनी कठिनाइयाँ बयान करते हुए इन्हें संकोच होता था। वह अपने भोजनादि का बोझ भी उन पर डालना पसन्द न करते थे और न शहर के किसी रईस से ही सहायता माँगने का साहस होता था। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि ज्ञानशंकर से अपने हिस्से का मुनाफा माँगना चाहिए। उन्हें मेरे हिस्से की पूरी रकम उड़ा जाने का क्या अधिकार है? श्रद्धा के भरण-पोषण के लिए वह अधिक-से-अधिक मेरा आधा हिस्सा ले सकते हैं। तभी भी मुझे एक हजार के लगभग मिल जायेंगे। इस वक्त काम चलेगा, फिर देखा जायेगा। निस्सन्देह इस आमदनी पर मेरा कोई हक नहीं है, मैंने उसका अर्जन नहीं किया; लेकिन मैं उसे अपने भोग-विलास के निमित्त तो नहीं चाहता, उसे लेकर परमार्थ में खर्च करना आपत्तिजनक नहीं हो सकता। पहले प्रेमशंकर की निगाह इस तरफ कभी नहीं गयी थी। वह इन रुपयों को ग्रहण करना अनुचित समझते थे। पर अभाव बहुधा सिद्धान्तों और धारणाओं का बाधक हो जाता है। सोचा था कि पत्र में सब कुछ साफ-साफ लिख दूँगा, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों को केवल इतना लिखा कि मुझे रुपयों की बड़ी जरूरत है। आशा है, मेरी कुछ सहायता करेंगे। भावों के लेखबद्ध करने में हम बहुत विचारशील हो जाते हैं।
ज्ञानशंकर को यह पत्र मिला तो जामे से बाहर हो गये। श्रद्धा को सुनाकर बोले, यह तो नहीं होता कि कोई उद्यम करें, बैठे-बैठे सुकीर्ति का आनन्द उठाना चाहते हैं। जानते होंगे कि यहाँ रुपये बरस रहे हैं। बस बिना हर्रे-फिटकरी के मुनाफा हाथ आ जाता है। और यहाँ अदालत के खर्च के मारे कचूमर निकला जाता है। एक हजार रुपये कर्ज ले कर खर्च कर चुका और अभी पूरा साल पड़ा है। एक बार हिसाब-किताब देख लें तो आँखें खुल जायें; मालूम हो जायें की जमींदारी परोसा हुआ थाल नहीं है। सैकड़ों रुपये साल कर्मचारियों की नजर-नियाज में उड़ जाते हैं।
यह कहते हुए उसी गुस्से में पत्र का उत्तर लिखने नीचे गये। उन्हें अपनी अवस्था और दुर्भाग्य पर क्रोध आ रहा था। राय कमलानन्द की चेतावनी बार-बार याद आती थी। वही हुआ, जो उन्होंने कहा था।
सन्ध्या हो गई थी। आकाश पर काली घटा छाई थी। प्रेमशंकर सोच रहे थे, बड़ी देर हुई, अभी तक आदमी जवाब देकर नहीं लौटा। कहीं पानी न बरसने लगे, नहीं तो इस वक्त आ भी न सकेगा, देखूँ क्या जवाब देते हैं? सूखा जवाब तो क्या देंगे, हाँ, मन में अवश्य झुँझलाएँगे। अब मुझे भी निस्संकोच होकर लोगों से सहायता माँगनी चाहिए। अपने बल पर यह बोझ मैं नहीं सम्भाल सकता। थोड़ी सी जमीन मिल जाती, मैं स्वयं कुछ पैदा करने लगता तो यह दशा न रहती जमीन तो यहाँ बहुत कम है। हाँ, पचास बीघे का यह ऊसर अलबत्ता है, लेकिन ज़मींदार साहब से सौदा पटना कठिन है। वह ऊसर के लिए २०० रुपये बीघे नजराना माँगेंगे। फिर इसकी रेह निकालने और पानी के निकास नालियाँ बनाने में हजारों का खर्च है। क्या बताऊँ, ज्ञानू ने मेरे सारे मंसूबे चौपट कर दिये, नहीं लखनपुर यहाँ से कौन बहुत दूर था? मैं पन्द्रह बीस बीघे की सीर भी कर लेता तो मुझे किसी की मदद की दरकार न होती।
यह इन्हीं विचारों में डूबे थे कि सामने से एक इक्का आता हुआ दिखाई दिया। पहले तो कई आदमियों ने इक्केवान को ललकारा। क्यों खेत में इक्का लाता है? आँखें फूटी हुई हैं? देखता नहीं, खेत बोया हुआ है? पर जब इक्का प्रेमशंकर के झोंपड़े की ओर मुड़ा तो लोग चुप हो गये। इस पर लाला प्रभाशंकर और उनके दोनों लड़के पद्मशंकर और तेजशंकर बैठे हुए थे। प्रेमशंकर ने दौड़कर उनका स्वागत किया। प्रभाशंकर ने उन्हें छाती से लगा लिया और पूछा, अभी तुम्हारा आदमी ज्ञानू का जवाब लेकर तो नहीं आया?
प्रेम– जी नहीं, अभी तो नहीं आया, देर बहुत हुई
प्रभा– मेरे ही हाथ बाजी रही। मैं उसके एक घण्टा पीछे चला हूँ। यह लो, बड़ी बहू ने यह लिफाफा और सन्दूकची तुम्हारे पास भेजी है। मगर यह तो बताओ, यह बनवास क्यों कर रहे हो? तुम्हारे एक छोड़ दो-दो घर हैं। उनमें न रहना चाहो तो तुम्हारे कई मकान किराये पर उठे हुए हैं, उनमें से जिसे कहो खाली करा दूँ। आराम से शहर में रहो। तुम्हें इस दशा में देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। यह फूस का झोंपड़ा, बीहड़ स्थान, न कोई आदमी न आदमजाद! मुझसे तो यहाँ एक क्षण भी न रहा जाये। हफ्तों घर की सुधि नहीं लेते। मैं तुम्हें यहाँ न रहने दूँगा। हम तो महल में रहे और तुम यों बनवास करो। (सजल नेत्र होकर) यह सब मेरा दुर्भाग्य है। मेरे कलेजे के टुकड़े हुए जाते हैं। भाई साहब जब तक जीवित रहे, मं  अपने ऊपर गर्व करता था। समझता था कि मेरी बदौलत एका बना हुआ है। लेकिन उनके उठते ही घर की श्री उठ गई। मैं दो-चार साल भी उस मेल को न निभा सका। वह भाग्यशाली थे, मैं अभागा हूँ और क्या कहूँ।
प्रेमशंकर ने बड़ी उत्सुकता से लिफाफा खोला और पढ़ने लगे। लाला जी की तरफ उनका ध्यान न था।
‘प्रिय प्राणपति,
दासी का प्रणाम स्वीकार कीजिए। आप जब तक विदेश में थे, वियोग के दुःख को धैर्य के साथ सहती रही, पर आपका यह एकान्त निवास नहीं सहा जाता। मैं यहाँ आपसे बोलती न थी, आपसे मिलती न थी, पर आपको आँखों से देखती तो थी, आपकी कुछ सेवा तो कर सकती थी। आपने यह सुअवसर भी मुझसे छीन लिया। मुझे तो संसार की हँसी का डर था, आपको भी संसार की हँसी का डर है? मुझे आपसे मिलते हुए अनिष्ट की आशंका होती है। धर्म को तोड़कर कौन प्राणी सुखी रह सकता है? आपके विचार तो ऐसे नहीं, फिर आप क्यों मेरी सुधि नहीं लेते?
यहाँ लोग आपके प्रायश्चित करने की चर्चा कर रहे हैं। मैं जानती हूँ, आपको बिरादरी का भय नहीं है, पर यह भी जानती हूँ कि आप मुझ पर दया और प्रेम रखते हैं। क्या मेरी खातिर इतना न कीजिएगा? – मेरे धर्म को न निभाइएगा?
इस सन्दूकची में मेरे कुछ गहने और रुपये हैं–  गहने अब किसके लिए पहनूँ? कौन देखेगा? यह तुच्छ भेंट है, उसे स्वीकार कीजिए। यदि आप ने लेंगे, तो समझूँगी कि आपने मुझसे नाता तोड़ दिया।
आपकी अभागिनी,
श्रद्धा।
प्रेमशंकर के मन में पहले विचार हुआ कि सन्दूकची को वापस कर दूँ और लिख दूँ कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। क्या मैं ऐसा निर्लज्ज हो गया कि जो स्त्री मेरे साथ इतनी निष्ठुरता से पेश आये उसी के सामने मदद के लिए हाथ फैलाऊँ? लेकिन एक ही क्षण में यह विचार पलट गया। उसके स्थान पर यह शंका हुई कि कहीं इसके मन में कुछ और तो नहीं ठान ली है? यह पत्र किसी विषम संकल्प का सूचक तो नहीं है? वह आस्थिर चित्त होकर इधर-उधर टहलने लगे। सहसा लाला प्रभाशंकर से बोले– आपको तो मालूम होगा ज्ञानशंकर का बर्ताव उसके साथ कैसा है?
प्रभा– बेटा, यह बात मुझसे मत पूछो। हाँ, इतना कहूँगा कि तुम्हारे यहाँ रहने से बहुत दुखी है। तुम्हें मालूम है कि उसको तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए उसने बड़ी तपस्या की है। उसके ऊपर तुम्हारी अकृपा नितान्त अनुचित है।
प्रेम– मुझे वहाँ रहने में कोई उज्र नहीं है। हाँ, ज्ञानशंकर के कुटिल व्यवहार से दुःख होता है और फिर वहाँ बैठकर यह काम न होगा। किसानों के साथ मैं उनकी जितनी सेवा कर सकता हूँ, अलग रहकर नहीं कर सकता। आपसे केवल प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे बुलाकर उसकी तस्कीन कर दीजिएगा। मेरे विचार से उसका व्यवहार कितना ही अनुचित क्यों न हो, पर मैं उसे निरपराध समझता हूँ। यह दूसरों के बहकाने का फल है। मुझे शंका होती है कि वह जान पर न खेल जाये।
प्रभा– मगर तुम्हें वचन देना होगा कि सप्ताह में कम-से-कम एक बार वहाँ अवश्य जाया करोगे।
प्रेम– इसका पक्का वादा करता हूँ।
प्रभाशंकर ने लौटना चाहा, पर प्रेमशंकर ने उन्हें साग्रह रोक लिया। हाजीगंज में एक सज्जन ठाकुर भवानीसिंह रहते थे। उनके यहाँ भोजन का प्रबन्ध किया गया। पूरियाँ मोटी थीं और भाजी भी अच्छी न बनी थी; किन्तु दूध बहुत स्वादिष्ट था। प्रभाशंकर ने मुस्कुराकर कहा– यह पूरियाँ हैं या लिट्टी? मुझे तो दो-चार जिन भी खानी पड़ें तो काम तमाम हो जाये। हाँ, दूध की मलाई अच्छी है।
प्रेम– मैं तो यहाँ रोटियाँ बना लेता हूँ। दोपहर को दूध पी लिया करता हूँ।
प्रभा– तो यह कहो तुम योगाभ्यास कर रहे हो। अपनी रुचि का भोजन न मिले तो फिर जीवन का सुख ही क्या रहा?
प्रेम– क्या जाने, मैं तो रोटियों से ही सन्तुष्ट हो जाता हूँ। कभी-कभी तो मैं शाक या दाल भी नहीं बनाता। सूखी रोटियाँ बहुत मीठी लगती हैं। स्वास्थ्य के विचार से भी रूखा-सूखा भोजन उत्तम है।
प्रभा– यह सब नये जमाने के ढकोसले हैं। लोगों की पाचान शक्ति निर्बल हो गयी है। इसी विचार से अपने को तस्कीन दिया करते हैं। मैंने तो आजीवन चटपटा भोजन किया है, पर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।
भोजन करने के बाद कुछ इधर-उधर की बातें होने लगीं। लाला जी थके थे, सो गये, किन्तु दोनों लड़कों को नींद नहीं आती थी। प्रेमशंकर बोले, क्यों तेजशंकर, क्या नींद नहीं आती? मैट्रिक में हो न? इसके बाद क्या करने का विचार है?
तेजशंकर– मुझे क्या मालूम? दादा जी की जो राय होगा, वही करूँगा?
प्रेम– और तुम क्या करोगे पद्मशंकर?
पद्म– मेरा तो पढ़ने में जी नहीं लगता। जी चाहता है, साधू हो जाऊँ।
प्रेम– (मुस्करा कर) अभी से?
पद्म– जी हाँ, खूब पहाड़ों पर विचरूँगा। दूर-दूर के देशों की सैर करूँगा। भैया भी तो साधु होने को कहते हैं।
प्रेम– तो तुम दोनों साधु हो जाओगे और गृहस्थी का सारा बोझ चाचा साहब के सिर पर छोड़ दोगे।
तेज– मैंने कब साधु होने को कहा पद्मू? झूठ बोलते हो।
पद्म– रोज तो कहते हो, इस वक्त लजा रहे हो।
तेज– बड़े झूठे हो।
पद्म– अभी तो कल ही कह रहे थे कि पहाड़ों पर जाकर योगियों से मन्त्र जगाना सीखेंगे।
प्रेम– मन्त्र जगाने से क्या होगा?
पद्म– वाह! मन्त्र में इतनी शक्ति है कि चाहें तो अभी गायब हो जायँ, जमीन में गड़ा हुआ धन देख लें। एक मन्त्र तो ऐसा है कि चाहें तो मुरदों को जिला दें। बस, सिद्धि चाहिए। खूब चैन रहेगा। यहाँ तो बरसों पढ़ेंगे, तब जाकर कहीं नौकरी मिलेगी। और वहाँ तो एक मन्त्र भी सिद्ध हो गया तो फिर चाँदी ही चाँदी है।
प्रेम– क्यों जी तेजू, तुम भी इन मिथ्या बातों पर विश्वास करते हो?
तेज– जी नहीं, यह पद्म यों ही बाही-तबाही बकता फिरता है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आदमी मन्त्र जगाकर बड़े-बड़े काम कर सकता है। हाँ, डर न जाये, नहीं तो जान जाने का डर रहता है।
प्रेम– यह सब गपोड़ा है। खेद है, तुम विज्ञान पढ़कर इन गपोड़ों पर विश्वास करते हो। संसार में सफलता का सबसे जगाता हुआ मन्त्र अपना उद्योग, अध्यवसाय और दृढ़ता है, इसके सिवा और सब मन्त्र झूठे हैं।
दोनों लड़कों ने इसका कुछ उत्तर न दिया। उसके मन में मन्त्र की बात बैठ गयी थी। और तर्क द्वारा उन्हें कायल करना कठिन था।
इनके सो जाने के बाद प्रेमशंकर ने सन्दूकची खोलकर देखा। गहने सभी सोने के थे। रुपये गिने तो पूरे तीन हजार थे। इस समय प्रेमशंकर के सम्मुख श्रद्धा एक देवी का रूप में खड़ी मालूम होती थी। उसकी मुखश्री एक विलक्षण ज्योति से प्रदीप्त थी। त्याग और अनुराग की विशाल मूर्ति थी, जिसके कोमल नेत्रों में भक्ति और प्रेम की किरणें प्रस्फुटित हो रही थीं। प्रेमशंकर का हृदय विह्वल हो गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। श्रद्धा की भक्ति के सामने अपनी कटुता और अनुदारता अत्यन्त निन्द्य प्रतीत होने लगी। उन्होंने संदूकची बन्द करके खाट के नीचे रख दी और लेटे तो सोचने लगे, इन गहनों को क्या करूँ? कुल सम्पत्ति पाँच हजार से कम की नहीं है। इसे मैं ले लूँ तो श्रद्धा निरवलम्ब हो जायेगी। लेकिन मेरी दशा सदैव ऐसी ही थोड़े रहेगी। अभी ऋण समझकर ले लूँ, फिर कभी सूद समेत चुका दूँगा। पचीस वर्ष ऊसर लूँ तो दो-ढाई हजार में तय हो जाये। एक हजार खाद डालने और रेह निकालने में लग जायेंगे। एक हजार में बैलों की गोइयाँ और दूसरी सामग्रियाँ आ जायेंगी। दस बीघे में एक सुन्दर बाग लगा दूँ, पन्द्रह बीघे में खेती करूँ। दो साल तो चाहे उपज कम हो, लेकिन आगे चलकर दो-ढाई हजार वार्षिक की आय होने लगेगी। अपने लिए मुझे २०० रुपये साल भी बहुत हैं, शेष रुपये अपने जीवनोद्देश्य के पूरे करने में लगेंगे। सम्भव है, तब तक कोई सहायक भी मिल जाये। लेकिन उस दशा में कोई सहायता भी न करे तो मेरा काम चलता रहेगा। हाँ, एक बात का ध्यान ही न रहा। मैं यह ऊसर ले लूँ तो फिर इस गाँव में गोचर भूमि कहाँ रहेगी? यह ऊसर तो यहाँ के पशुओं का मुख्य आधार है। नहीं इसके लेने का विचार छोड़ देना चाहिए। अब तो हाथ में रुपये आ गये हैं। कहीं न कहीं जमीन मिल ही जायेगी। हाँ, अच्छी जमीन होगी तो इतने रुपयों में दस बीघे से ज्यादा न मिल सकेगी। दस बीघे में मेरा काम कैसे चलेगा?
प्रेमशंकर इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे। मूसलाधार मेघ बरस रहा था। सहसा उनके कानों में बादलों के गर्जन की-सी आवाज आने लगी, लेकिन जब देर तक इस ध्वनि का तार न टूटा, मानो किसी बड़े पुल पर रेलगाड़ी चली जा रही हो। और थोड़ी देर में गाँव की ओर से आदमियों के चिल्लाने और रोने की आवाजें आने लगीं, तो वह घबड़ाकर उठे और गाँव की तरफ नजर दौड़ायी। गाँव में हलचल मची हुई थी। लोग हाथों में सन और अरहर के डण्ठलों की मशालें लिए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे। कुछ लोग मशालें लिये नदी की तरफ दौड़ते जाते थे। एक क्षण में मशालों का प्रतिबिम्ब-सा दीखने लगा, जैसे गाँव में पानी लहरें मार रहा हो। प्रेमशंकर समझ गये कि बाढ़ आ गयी।
अब विलम्ब करने का समय न था वह तुरन्त गाँव की तरफ चले। लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह घुटनों तक पानी में पहुँचे। बहाव में इतना वेग था कि उनके पाँव मुश्किल से संभल सकते थे। कई बर वह गड्ढो में गिरते बचे। जल्दी में जल थाहने के लिए कोई लकड़ी भी न ले सके थे। जी चाहता था कि गाँव में उड़कर जा पहुँचूँ और लोगों की यथासाध्य मदद करूँ; लेकिन यहाँ एक-एक पग रखना दुस्तर था। चारों तरफ घना अन्धेरा, ऊपर मूसलाधार वर्षा, नीचे वेगवती लहरों का सामना, राह-बाट का कहीं पता नहीं। केवल मशालों को देखते चले जाते थे। कई बार घरो के गिरने का धमाका सुनायी दिया। गाँव के निकट पहुँचे तो हाहाकार मचा हुआ था। गाँच के समस्त प्राणी– युवा, वृद्ध, बाल मन्दिर के चबूतरे पर खड़े यह विध्वंसकारी मेघलीला देख रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही लोग चारों ओर आकर खड़े हो गये। स्त्रियाँ रोने लगीं।
प्रेमशंकर– बाढ़ क्या अबकी ही आयी है या और भी कभी आयी थी?
भवानीसिंह– हर दूसरे-तीसरे साल आ जाती है। कभी-कभी तो साल में दो-दो बेर आ जाती है।
प्रेमशंकर– इसके रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?
भवानीसिंह– इसका एक ही उपाय है। नदी के किनारे बाँध बना दिया जाये। लेकिन कम से कम तीन हजार का खर्च है, वह हमारे किये नहीं हो सकता। इतनी सामर्थ्य ही नहीं। कभी बाढ़ आती है, कभी सूखा पड़ता है। धन कहाँ से आये?
प्रेमशंकर– ज़मींदार से इस विषय में तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?
भवानी– उनके कभी दर्शन ही नहीं होते; किससे कहें? सेठ जी ने यह गाँव उन्हें पिण्ड-दान में दे दिया था; बस, आप तो गया जी में बैठे रहते हैं। साल में दो बार उनका मुंशी आकर लगान वसूल कर ले जाता है। उससे कहो तो कहता है, हम कुछ नहीं जानते, पण्डा जी जानें। हमारे सिर पर चाहे जो पड़े, उन्हें अपने काम से काम है।
प्रेमशंकर– अच्छा इस वक्त क्या उपाय करना चाहिए? कुछ बचा या सारा डूब गया?
भवानी– अँधेरे में सब कुछ सूझ तो नहीं पड़ता, लेकिन अटकल से जान पड़ता है कि घर एक भी नहीं बचा। कपड़े-लत्ते, बर्तन-भाँड़े, खाट-खटोले सब बह गये। इतनी मुहलत ही नहीं मिली कि अपने साथ कुछ लाते। जैसे बैठे थे वैसे ही उठकर भागे। ऐसी बाढ़ कभी नहीं आयी थी जैसे आँधी आ जाये, बल्कि आँधी का हाल भी कुछ पहले मालूम हो जाता है, यहाँ तो कुछ पता ही नहीं चला।
प्रेमशंकर– मवेशी भी बह गये होंगे?
भवानी– राम जाने, कुछ तुड़ाकर भागे होंगे, कुछ बह गये होंगे, कुछ बदन तक पानी में डूब गये होंगे। पानी दस-पाँच अंगुल और चढ़ा तो उनका भी पता न लगेगा।
प्रेमशंकर– कम से कम उनकी रक्षा तो करनी चाहिए।
भवानी– हमें तो असाध्य जान पड़ता है।
प्रेमशंकर– नहीं हिम्मत न हारो। भला कुछ कितने मर्द यहाँ होंगे?
भवानी–  (आँखों से गिनकर) यही कोई चालीस-पचास।
प्रेम– तो पाँच-पाँच आदमियों की एक-एक टुकड़ी बना लो और सारे गाँव का एक चक्कर लगाओ। जितने जानवर मिलें उन्हें बटोर लो और मेरे झोंपड़े के सामने ले चलो। वहाँ जमीन बहुत ऊँची है, पानी नहीं जा सकता। मैं भी तुम लोगों के साथ चलता हूँ। जो लोग इस काम के लिए तैयार हों, सामने निकल आयें।
प्रेमशंकर के उत्साह ने लोगों को उत्साहित किया। तुरन्त पचास-साठ आदमी निकल आये। सबके हाथों में लाठियाँ थीं। प्रेमशंकर को लोगों ने रोकना चाहा, लेकिन वह किसी तरह न माने। एक लाठी हाथ में ले ली और आगे-आगे चले। पग-पग पर बहते हुए झोंपड़ों, गिरे हुए वृक्षों तथा बहती हुई चारपाइयों से टकराना पड़ता था। गाँव का नाम-निशान भी न था। गाँववालों के अपने-अपने घरों का भी पता न चलता था। जहाँ-तहाँ भैंसों और बैलों के डकारने की आवाज सुन पड़ती थी। कहीं-कहीं पशु बहते हुए भी मिलते थे। यह रक्षक दल सारी रात पशुओं के उद्धार का प्रयत्न करता रहा। उनका साहस अदम्य और उद्योग अविश्रान्त था। प्रेमशंकर अपनी टुकड़ी के साथ बारी-बारी से अन्य दलों की सहायता करते रहते थे। उनका धैर्य और परिश्रम देखकर निर्बल हृदय वाले भी प्रोत्साहित हो जाते थे। जब दिन निकला और प्रेमशंकर अपने झोंपड़े पर पहुँचे तब दो सौ से अधिक पशुओं को आनन्द से बैठे जुगाली करते हुए देखा, लेकिन इतनी कड़ी मेहनत कभी न की थी। ऐसे थक गये थे कि खड़ा होना मुश्किल था। अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी। आठ बजते-बजते उन्हें ज्वर हो आया। लाला प्रभाशंकर ने यह वृत्तान्त सुना तो असन्तुष्ट होकर बोले– बेटा परमार्थ करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन इस तरह प्राण देकर नहीं। चाहे तुम्हें अपने प्राण का मूल्य इन जानवरों से कम जान पड़ता हो, लेकिन हम ऐसे-ऐसे लाखों पशुओं का तुम्हारे ऊपर बलिदान कर सकते हैं। श्रद्धा सुनेगी तो न जाने उसका क्या हाल होगा? यह कहते-कहते उनकी आँखें भर आयी।
तीन दिन तक प्रेमशंकर ने सिर न उठाया और न लाला प्रभाशंकर उनके पास से उठे। उनके सिरहाने बैठे हुए कभी विनयपत्रिका के पदों का पाठ करते, कभी हनुमान चालीसा का पाठ पढ़ते। हाजीपुर में दो ब्राह्मण भी थे। वह दोनों झोंपड़े में बैठे दुर्गा पाठ किया करते। अन्य लोग तरह तरह-तरह की जड़ी बूटियाँ लाते। आस-पास के देहातों में भी जो उनकी बीमारी की खबर पाता, दौड़ा हुआ देखने आता। चौथे दिन ज्वर उतर गया, आकाश भी निर्मल हो गया और बाढ़ उतर गयी।
प्रभात का समय था। लाला प्रभाशंकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर घर चले गये थे। प्रेमशंकर अपनी चारपाई पर तकिये के सहारे बैठे हुए हाजीपुर की तरफ चिन्तामय नेत्रों से देख रहे थे। चार दिन पहले जहाँ एक हरा-भरा लहलहाता हुआ गाँव था, जहाँ मीलों तक खेतों में सुखद हरियाली छाई हुई थी, जहाँ प्रातःकाल गाय-भैसों के रेवड़ के रेवड़ चरते दिखाई देते थे, जहाँ झोंपड़ों से चक्कियों की मधुर ध्वनि उठती थी और बाल वृद्ध मैदानों में खेलते-कूदते दिखायी देते थे, वहाँ एक निर्जन मरुभूमि थी। गाँव के अधिकांश प्राणी दूसरे गाँव में भाग गये थे और कुछ लोग प्रेमशंकर के झोंपड़े के सामने सिरकियाँ डाले पड़े थे। न किसी के पास अन्न था, न वस्त्र, बड़ा शोकमय दृश्य था। प्रेमाशंकर सोचने लगे, कितनी विषम समस्या है! इन दीनों का कोई सहायक नहीं। आये दिन इन पर यही विपत्ति पड़ा करती है। और ये बेचारे इसका निवारण नहीं कर सकते। साल-दो साल में जो कुछ तन पेट काटकर संचय करते हैं। वह जलदेव को भेंट देते हैं। कितना धन, कितने जीव इस भँवर में समा जाते हैं, कितने घर मिट जाते हैं, कितनी गृहस्थियों का सर्वनाश हो जाता है और यह केवल इसलिए कि इनको गाँव के किनारे एक सुदृढ़ बाँध बनाने का साहस नहीं है। न इतना धन है, न वह सहमति और सुसंगठन है जो धन का अभाव होने पर भी बड़े-बड़े कार्य सिद्ध कर देता है। ऐसा बाँध यदि बन जाये तो उससे इसी गाँव की नहीं, आस-पास के कई गाँवों की रक्षा हो सकती है। मेरे पास इस समय चार-पाँच हजार रुपये हैं। क्यों न इस बाँध में हाथ लगा दूँगा। गाँव के लोग धन न दे सकें, मेहनत तो कर सकते हैं। केवल उन्हें संगठित करना होगा। दूसरे गाँव के लोग भी निस्सन्देह इस काम में सहायता देंगे। ओह, कहीं यह बाँध तैयार हो जाये तो इन गरीबों का कितना कल्याण हो!
यद्यपि प्रेमशंकर बहुत अशक्त हो रहे थे, पर इस विचार ने उन्हें इतना उत्साहित किया कि तुरन्त उठ खड़े हुए और लोगों के बहुत रोकने पर भी हाथ में डण्डा लेकर नदी की ओर बाँध-स्थल पर निरीक्षण करने चल खड़े हुए। जेब में पेंसिल और कागज भी रख लिया। कई आदमी साथ हो लिए। नदी के किनारे बहुत देर तक रस्सी से नाप-नाप कर कागज पर बाँध का नक्शा खींचते और उसकी लम्बाई-चौड़ाई, गर्भ आदि का अनुमान करते रहे। उन्हें उत्साह के वेग में यह काम सहज जान पड़ता था, केवल काम छेड़ देने की जरूरत थी। उन्होंने वहीं खड़े-खड़े निश्चय किया कि वर्षा समाप्त होते ही श्रीगणेश कर दूँगा। ईश्वर ने चाहा तो जाड़े में बांध तैयार हो जायेगा। बाँध के साथ-साथ गाँव को भी पुनर्जीवित कर दूँगा। बाढ़ का भय तो न रहेगा, दीवारें मजबूत बनाऊँगा और उस पर फूस की जगह खपरैला का छाज रखूँगा।
भवानसिंह ने कहा– बाबू जी, यह काम हमारे मान का नहीं है।
प्रेमशंकर– है क्यों नहीं; तुम्हीं लोगों से यह पूरा कराऊँगा। तुमने इसे असाध्य समझ लिया, इसी कारण इतनी मुसीबतें झेलते हो।
भवानी– गाँव में आदमी कितने हैं?
प्रेम– दूसरे गाँव वाले तुम्हारे मदद करेंगे, काम शुरू तो होने दो।
भवानी– जैसा बाँध आप सोच रहे हैं, पाँच-छह हजार से कम में न बनेगा।
प्रेम– रुपयों की कोई चिन्ता नहीं। कार्तिक आ रहा है, बस काम शुरू कर दो। दो-तीन महीने में बाँध तैयार हो जायेगा। रुपयों का प्रबन्ध जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं कर दूँगा।
भवानी– आपका ही भरोसा है।
प्रेम– ईश्वर पर भरोसा रखो।
भवानी– मजदूरों की मदद मिल जाये तो अगहन में ही बाँध तैयार हो सकता है।
प्रेम– इसका मैं वचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीघे का अच्छा चक निकल आयेगा।
भवानी– तब हम आपका झोंपड़ा भी यहीं बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।
प्रेम– तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँव में भी खबर भेज दो। 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

10 फरवरी 2022
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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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