जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पानी बरसता। फाल्गुन के महीने में एक दिन ओले पड़ गये। सारी खेती नष्ट हो गयी। कब गाँववालों के लिए कोई सहारा न था। बिसेसर साह ने भी ज़मींदार के मुकाबले में सहायता देने से इनकार किया। स्त्रियों के गहने पहले ही निकल चुके थे। अब सुक्खू चौधरी के सिवा और कोई न था। जो अपील की पैरवी कर सकता था। लोग भाग्य पर भरोसा किये बैठे थे। किसी की दशा में प्रेमशंकर के भेजे हुए रुपयों ने बड़ा काम किया। मुर्दे जाग पड़े। कादिर खाँ दृढ़ प्रतिज्ञ होकर उठ खड़ा हुआ और जी तोड़कर मुकदमे की पैरवी करने लगा। लेकिन किसानों की नैतिक विजय वास्तविक पराजय से कम न थी। ज्ञानशंकर असामियों को इस दुस्साहस का दंड देने के लिए उधार खाए बैठे थे। अभी गाँव के लोग झोपड़ी में ही थे कि गौस खाँ अपने तीनों चपरासियों के लिए हुए आए और झोंपड़े में आग लगवा दी। बाग की भूमि ज़मींदार की थी। असामियों को वहाँ झोपड़े बनवाने का कोई अधिकार न था। चपरासियों में दो बिलकुल नये थे– फैज और कर्तार। दोनों लकड़ी चलाने में कुशल थे, कई बार सजा पाए हुए। उनके हृदय में दया और शील का नाम न था पुराने आदमियों में केवल बिन्दा महाराज अपनी कुटिल नीति की बदौलत रह गये थे। अभी तक ताऊन की ज्वाला शान्त न हुई थी कि लोगों को विवश होकर बस्ती में आना पड़ा, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे ही दिन ठाकुर डपटसिंह प्लेग के झोंके में आ गये और कल्लू अहीर मरते-मरते बच गया। जितनी आरजू मिन्नत हो सकती थी वह सब्र की गयी, लेकिन अत्याचारियों पर कुछ असर न हुआ। झपट तो मर जाने के लिए तैयार हुआ। लट्ठ चलाकर बोला, गौस को आज जीता न छोड़ूँगा। अब क्या भय है? लेकिन कादिर खाँ उसके पैरों पर गिर पड़ा और समझा-बुझाकर घर लौटाया।
लखनपुर में एक बहुत बड़ा तालाब था। गाँव भर के पशु उसमें पानी पीते थे। नहाने-धोने का काम भी उससे चलता था।
जून का महीना था, कुओं का पानी पाताल तक चला गया था। आस-पास के सब गढ़े और तालाब सूख गये थे। केवल इसी बड़े तालाब में पानी रह गया था। ठीक उसी समय गौस खाँ ने उस तालाब का पानी रोक दिया। दो चपरासी किनारे आकर डट गये और पशुओं को मार-मार कर भगाने लगे। गाँव वालों ने सुना तो चकराये। क्या सचमुच ज़मींदार तालाब का पानी भी बन्द कर देगा। यह तालाब सारे गाँव का जीवन स्रोत था। लोगों को कभी स्वप्न में भी अनुमान न हुआ था कि ज़मींदार इतनी जबरदस्ती कर सकता है, उसका चिरकाल से इस पर अधिकार था। पर आज उन्हें ज्ञात हुआ कि इस जल पर हमारा स्वत्व नहीं है। यह ज़मींदार की कृपा थी कि वह इतने दिनों तक चुप रहा; किन्तु चिरकालीन कृपा भी स्वत्व का रूप धारण कर लेती हैं। गाँव के लोग तुरन्त तालाब के तट पर जमा हो गये और चपरासियों से वाद-विवाद करने लगे। कादिर खाँ ने देखा बात बढ़ा चाहती है तो वहाँ से हट जाना उचित समझा। जानते थे कि मेरे पीछे और लोग टल जायेंगे। किन्तु दो ही चार पग चले थे कि सहसा सुक्खू चौधरी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, कहाँ जाते हो कादिर भैया! जब तक यहाँ कोई निबटारा न हो जाय, तुम जाने न पाओगे। जब जा-बेजा हर एक मामले में इसी तरह दबना है, तो गाँव से सरगना काहे को बनते हो?
कादिर खाँ– तो क्या कहते हो लाठी चलाऊँ?
सुक्खू– और लाठी है किस दिन के लिए?
कादिर– किसके बूते पर लाठी चलेगी? गाँव में रह कौन गया है? अल्लाह ने पट्ठो को चुन लिया।
सुक्खू– पट्ठे नहीं हैं न सही, बूढ़े तो हैं? हम लोग की जिन्दगानी किस रोज काम आयेगी?
गौस खाँ को जब मालूम हुआ कि गाँव के लोग तालाब के तट पर जमा हैं तो वह भी लपके हुए आ पहुँचे और गरजकर बोले, खबरदार! कोई तालाब की तरफ कदम न रखे। सुक्खू आगे बढ़ आये और कड़ककर बोले, किसकी मजाल है जो तालाब का पानी रोके! हम और हमारे पुरुखा इसी से अपना निस्तार करते चले आ रहे हैं। ज़मींदार नहीं ब्रह्मा आकर कहें तब भी इसे न छोड़ेंगे, चाहे इसके पीछे सरबस लुट जाये।
गौस खाँ ने सुक्खू चौधरी को विस्मित नेत्रों से देखा और कहा, चौधरी, क्या इस मौके पर तुम भी दगा दोगे? होश में आओ।
सुक्खू– तो क्या आप चाहते हैं कि जमींदारी की खातिर अपने हाथ कटवा लूँ? पैरों में कुल्हाड़ी मार लूँ? खैरख्वाही के पीछे अपना हक नहीं छोड़ सकता।
करतार चपरासी ने हँसी करते हुए कहा, अरे तुमका का परी है, है कोऊ आगे-पीछे? चार दिन में हाथ पसारे चले जैहो। ई ताल तुमरे सँग न जाई।
वृद्धाजन मृत्यु का व्यंग्य नहीं सह सकते। सुक्खू ऐंठकर बोले– क्या ठीक है कि हम ही पहले चले जायेंगे? कौन जाने हमसे पहले तुम्हीं चले जाओ। जो हो, हम तो चले जायेंगे, पर गाँव तो हमारे साथ न चला जायेगा?
गौस खाँ– हमारे सलूकों का यही बदला है?
सुक्खू– आपने हमारे साथ सलूक किये हैं तो हमने भी आपके साथ सूलक किये हैं और फिर कोई सलूक के पीछे अपने हक-पद को नहीं छोड़ सकता।
फैजू– तो फौजदारी करने का अरमान है?
सुक्खू– तो फौजदारी क्यों करें, क्या हाकिम का राज नहीं है? हाँ, जब हाकिम न सुनेगा तो जो तुम्हारे मन में है वह भी हो जायेगा। यह कहकर सुक्खू ताल के किनारे से चले आये और उसी वक्त बैलगाड़ी पर बैठकर अदालत चले। दूसरे दिन दावा दायर हो गया।
लाला मौजीलाल पटवारी की साक्षी पर हार-जीत निर्भर थी। उनकी गवाही गाँव वालों के अनुकूल हुई। गौस खाँ ने उसे फोड़ने में कोई कसर न उठा रखी, यहाँ तक कि मार-पीट की भी धमकी दी। पर मौजीलाल का इकलौता बेटा इसी ताऊन में मर चुका था। इसे वह अपने पूर्व संचित पापों का फल समझते थे। सन्मार्ग से विचलित न हुए। बेलाग साक्षी दी। सुक्खू चौधरी की डिगरी हो गयी और यद्यपि उनके कई सौ रुपये खर्च हुए पर गाँव में उनकी खोई प्रतिष्ठा फिर जम गयी। धाक बैठ गयी। सारा गाँव उनका भक्त हो गया। इस विजय का आनन्दोत्सव मनाया गया। सत्यनारायण की कथा हुई, ब्राह्मणों का भोज हुआ और तालाब के चारों ओर पक्के घाट की नींव पड़ गयी। गौस खाँ के भी सैकड़ों रुपये खर्च हो गये। ये काँटे उन्होंने ज्ञानशंकर से बिना पूछे ही बोये थे। इसलिए इसका फल भी उन्हीं को खाना पड़ा। हराम का धन हराम की भेंट हो गया।
गौस खाँ यह चोट खाकर बौखला उठे। सुक्खू चौधरी उनकी आँखों में काँटे की तरह खटकने लगा। दयाशंकर इस हल्के से बदल गये थे। उनकी जगह पर नूर आलम के एक दूसरे महाशय नियुक्त हुए थे। गौस खाँ ने इनके राह-रस्म पैदा करना शुरू किया। दोनों आदमियों में मित्रता हो गयी और लखनपुर पर नयी-नयी विपत्तियों का आक्रमण होने लगा।
वर्षा के दिन थे। किसानों को ज्वार और बाजरे की रखवाली से दम मारने का अवकाश न मिलता। जिधर देखिए हा-हू की ध्वनि आती थी। कोई ढोल बजाता था, कोई टीन के पीपे पीटता था। दिन को तोतों के झुंड टूटते थे, रात को गीदड़ के गोल; उस पर धान की क्यारियों में पौधे बिठाने पड़तें थे। पहर रात रहे ताल में जाते और पहर रात गये आते थे। मच्छरों के डंक से लोगों की देह में छालें पड़ जाते थे। किसी का घर गिरता था, किसी के खेत में मेड़े कटी जाती थीं। जीवन-संग्राम की दोहाई मची हुई थी। इसी समय दारोगा नूर आलम ने गाँव में छापा मारा। सुक्खू चौधरी ने कभी कोकीन का सेवन नहीं किया था, उसकी सूरत नहीं देखी थी, उसका नाम नहीं सुना था, लेकिन उनके घर में एक तोला कोकीन बरामद हुई। फिर क्या था, मुकदमा तैयार हो गया। माल के निकलने की देर थी, हिरासत में आ गये। उन्हें विश्वास हो गया कि मैं बरी न हो सकूँगा। उन्होंने स्वयं कई आदमियों को इसी भाँति सजा दिलायी थी। हिरासत में आने के एक क्षण पहले वह घर से गये और एक हाँडी लिये हुए आये। गाँव के सब आदमी जमा थे। उनसे बोले, भाइयो, राम-राम! अब तुमसे बिदा होता हूँ। कौन जाने फिर भेंट हो या न हो! बूढ़े आदमी की जिन्दगानी का क्या भरोसा ऐसे ही भाग होंगे तो भेंट होगी। इस हाँडी में पाँच हजार रुपये हैं यह कादिर भाई को सौंपता हूँ। तालाब का घाट बनवा देना। जिन लोगों पर मेरा जो कुछ आता है वह सब छोड़ता हूँ। यह देखो, सब कागज-पत्र अब तुम्हारे सामने फाड़े डालता हूँ। मेरा किसी के यहाँ कुछ बाकी नहीं।, सब भर पाया।
दरोगा जी वहीं उपस्थित थे। रुपयों की हाँडी देखते ही लार टपक पड़ी। सुक्खू को बुलाकर कान में कहा, कैसे अहमक हो कि इतने रुपये रखकर भी बचने की फिक्र नहीं करते?
सुक्खू-अब बचकर क्या करना है ! क्या कोई रोने वाला बैठा है?
नूर आलम– तुम इस गुमान में होगे कि हाकिम को तुम्हारे बुढ़ापे पर तरस आ जायेगी। और वह तुमको बरी कर देगा। मगर इस धोखे में न रहना। यह डटकर रिपोर्ट लिखूँगा और ऐसी मोतबिर शहादत पेश करूँगा कि कोई बैरिस्टर भी जबान ना खोल सकेगा। मैं दयाशंकर नहीं हूँ, मेरा नाम नूर आलम है। चाहूँ तो एक बार खुदा को भी फँसा दूँ।
सुक्खू ने फिर उदासीन भाव से कहा, आप जो चाहें करें। अब जिन्दगी में कौन-सा सुख है कि किसी का ठेंगा सिर पर लूँ? गौस खाँ का दया-स्रोत्र उबल पड़ा। फैजू और कर्तार भी बुलबुला उठे और बिन्दा महाराज तो हाँडी की ओर टकटकी लगाये ताक रहे थे।
सब ने अलग-अलग और फिर मिलकर सुक्खू को समझाया; लेकिन वह टस से मस न हुए। अन्त में लोगों ने कादिर को घेरा। नूर आलम ने उन्हें अलग से जाकर कहा, खाँ साहब, इस बूढ़े को जरा समझाओ क्यों जान देने पर तुला हुआ है? दो साल से कम की सजा न होगी। अभी मामला मेरे हाथ में है। सब कुछ हो सकता है। हाथ से निकल गया तो कुछ न होगा। मुझे उसके बुढ़ापे पर तरस आता है।
गौस खाँ बोले– हाँ, इस वक्त इस पर रहम करना चाहिए। अब की ताऊ ने बेचारे का सत्यानाश कर दिया।
कादिर खाँ जाकर सुक्खू को समझाने लगे। बदनामी का भय दिखाया, कारावास की कठिनाइयाँ बयान कीं, किन्तु सुक्खू जरा भी न पसीजा। जब कादिर खाँ ने बहुत आग्रह किया और गाँव के सब लोग एक स्वर से समझाने लगे तो सुक्खू उदासीन भाव से बोला, तुम लोग मुझे क्या समझाते हो? मैं कोई नादान बालक नहीं हूँ। कादिर खाँ से मेरी उम्र दो-ही-चार दिन कम होगी। इतनी बड़ी जिन्दगानी अपने बन्धुओं को बुरा करने में कट गयी। मेरे दादा मरे तो घर में भूनी भाँग तक न थी। कारिन्दों से मिल कर मैं आज गाँव का मुखिया बन बैठा हूँ। चार आदमी मुझे जानते हैं और मेरा आदर करते हैं, पर अब आँखों के सामने से परदा हट गया। उन कर्मों का फल कौन भोगेगा? भोगना तो मुझी को है, चाहे यहाँ भोगूँ, चाहे नरक में। यह सारी हाँडी मेरे पापों से भरी हुई है। इसी ने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया। कोई एक चुल्लू पानी देने वाला न रहा। यह पाप की कमाई पुण्य कार्य में लग जाय तो अच्छा है। घाट बनवा देना, अगर कुछ और लगे तो अपने पास से लगा देना। मैं जीता बचा तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा।
दूसरे दिन सुक्खू का चालान हुआ। फैजू और कर्तार ने पुलिस की ओर से साक्षी दी। माल बरामद हो ही गया था। कई हजार रुपयों का घर से निकलना पुष्टिकारक प्रमाण हो गया। कोई वकील भी न था। पूरे दो साल की सजा हो गयी। निरपराध निर्दोष सुक्खू गौस खाँ के वैमनस्य और ईर्ष्या का लक्ष्य बन गया।
सारा गाँव थर्रा उठा। इजाफा लगान के खारिज होने में लोगों ने समझा था कि अब किसी बात की चिन्ता न रही। मानो ईश्वर ने अभय प्रदान कर दिया। पर अत्याचार के ये नये कथकंडे देख कर सबके प्राण सूख गये। जब सुक्खू चौधरी जैसा शक्तिशाली मनुष्य दम-के-दम में तबाह हो गया तो दूसरों का कहना ही क्या? किन्तु गौस खाँ को अब भी सन्तोष न हुआ। उनकी यह लालसा कि सारा गाँव मेरा गुलाम हो जाय, मेरे इशारे पर नाचे, अभी तक पूरी न हुई थी। मौरूसी काश्तकारों में अभी तक कई आदमी बचे हुए थे। कादिर खाँ अब भी था, बलराज और मनोहर अब भी आँखों में खटकते थे। यह सब इस बाग के काँटे थे। उन्हें निकाले बिना सैर करने का आनन्द कहाँ?
लखनपुर शहर से दस मील की दूरी पर था। हाकिम लोग आते और जाते यहाँ जरूर ठहरते। अगहन का महीना लगा ही था कि पुलिस के एक बड़े अफसर का लश्कर आ पहुँचा। तहसीलदार स्वयं रसद का प्रबन्ध करने के लिए आये। चपरासियों की एक फौज साथ थी। लश्कर में सौ सवा-सौ आदमी थे। गाँव के लोगों ने यह जमघट देखा तो समझा कि कुशल नहीं है। मनोहर ने बलराज को ससुराल भेज दिया और ससुराल वालों को कहला भेजा कि इसे चार-पाँच दिन न आने देना। लोग अपनी लकड़ियाँ और भूसा उठा-उठाकर घरों में रखने लगे। लेकिन बोवनी के दिन थे; इतनी फुरसत किसे थी?
प्रातःकाल बिसेसर साह की दूकान खोल ही रहे थे कि अरदली के दस-बारह चपरासी दुकान पर आ पहुँचे। बिसेसर ने आटे-दाल के बोरे खोल दिये; जिन्सें तौली जाने लगीं। दोपहर तक यही ताँता लगा रहा। घी के कनस्तर खाली हो गये। तीन पड़ाव के लिए जो सामग्री एकत्र की थी, अभी समाप्त हो गयी। बिसेसर के होश उड़ गये। फिर आदमी मंडी दौड़ाये। बेगार की समस्या इससे कठिन थी। पाँच बड़े-बड़े घोड़ों के लिए हरी घास छीलना सहज नहीं था। गाँव के सब चमार इस काम में लगा दिये गये। कई नोनिये पानी भर रहे थे। चार आदमी नित्य सरकारी डाक लेने के लिए सदर दौड़ाये जाते थे। कहारों को कर्मचारियों की खिदमत से सिर उठाने की फुरसत न थी। इसलिए जब दो बजे साहब ने हुक्म दिया कि मैदान में घास छीलकर टेनिस कोर्ट तैयार किया जाय तो वे लोग भी पकड़े गये जो अब तक अपनी वृद्धावस्था या जाति सम्मान के कारण बचे हुए थे। चपरासियों ने पहले दुखरन भगत को पकड़ा। भगत ने चौंककर कहा, क्यों मुझसे क्या काम है? चपरासी ने कहा, चलो लश्कर में घास छीलनी है।
भगत– घास चमार छीलते हैं, यह हमारा काम नहीं है।
इस पर चपरासी ने उनकी गरदन पकड़कर आगे धकेला और कहा चलते हो या यहाँ कानून बघारते हो?
भगत– अरे तो ऐसा क्या अन्धेर है? अभी ठाकुर जी का भोग तक नहीं लगा।
चपरासी– एक दिन में ठाकुर जी भूखों न मर जायेंगे।
भगत ने वाद-विवाद करना उचित न समझा, सिपाहियों के बीच से निकल गये और भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर दिये। सिपाहियों ने धड़ाधड़ किवाड़ पीटना शुरू किया। एक सिपाही ने कहा, लगा दें आग, वहीं भुन जाये। दुखरन ने भीतर से कहा, बैठो भोग लगाकर आ रहा हूँ। चपरासियों ने खपरैल फोड़ने शुरू किए। इतने में कई चपरासी कादिर खाँ आदि को साथ लिये आ पहुँचे। डपटसिंह पहर रात रहे घर से गायब हो गये थे। कादिर ने कहा, भगत घर में क्यों घुसे बैठे हो? चलो; हम लोग भी चलते हैं। भगत ने द्वार खोला और बाहर निकल आये। कादिर हँसकर बोले– आज हमारी-तुम्हारी बाजी है। देखें कौन ज्यादा घास छीलता है। भगत ने कुछ उत्तर न दिया। सब लश्कर के मैदान में आये और घास छीलने लगे।
मनोहर ने कहा– खाँ साहब के कारण हम भी चमार हो गये।
दुखरन्– भगवान् की इच्छा। जो कभी न किया, वह आज करना पड़ा।
कादिर– ज़मींदार के असामी नहीं हो? खेत नहीं जोतते हो?
मनोहर– खेत जोतते हैं तो उसका लगान नहीं देते हैं? कोई भकुआ एक पैसा भी तो नहीं छोड़ता।
कादिर– इन बातों में क्या रखा है? गुड़ खाया है तो कान छिदाने पड़ेंगे। कुछ और बातचीत करो। कल्लू, अबकी तुम ससुराल में बहुत दिन तक रहे। क्या-क्या मार लाये?
कल्लु– मार लाया? यह कहो जान लेकर आ गया। यहाँ से चला तो कुल साढ़े तीन रुपये पास थे। एक रुपये की मिठाई ली, आठ आने रेल का किराया दिया, दो रुपये पास रख लिये। वहाँ पहुँचते ही बड़े साले ने अपना लड़का लाकर मेरी गोद में रख दिया। बिना कुछ दिये उसे गोद में कैसे लेता? कमर से एक रुपया निकालकर उसके हाथ में रख दिया। रात को गाँव भर की औरतों ने जमा होकर गाली गायीं। उन्हें भी कुछ नेग-दस्तूर मिलना ही चाहिए था। एक ही रुपये की पूँजी थी, वह उनकी भेंट की। न देता तो नाम हँसाई होती। मैंने समझा, यहाँ रुपयों का काम ही क्या है और चलती बेर कुछ न कुछ बिदाई मिल ही जायेगी। आठ दिन चैन से रहा। जब चलने लगा तो सामने एक मटका खाँड़, एक टोकरी ज्वार की बाल और एक थैली में कुछ खटाई भर कर दी। पहुँचाने के लिए एक आदमी साथ कर दिया। बस बिदाई हो गयी। अब बड़ी चिन्ता हुई कि घर तक कैसे पहुँचूँगा? जान न पहचान, माँगूँ किससे? उस आदमी के साथ टेसन तक आया। इतना बोझ लेकर पैदल घर तक आना कठिन था। बहुत सोचते-समझते सूझी कि चलकर ज्वार की बाल कहीं बेच दूँ। आठ आने भी मिल जायेंगे। तो काम चल जायेगा। बाजार में आकर एक दूकानदार से पूछा, बालें लोगे? उसने दाम पूछा। मेरे मुँह से निकला दाम तो मैं नहीं जानता, आठ आने दो, ले लो। बनिये ने समझा चोरी का माल है। थैला पटका, बालें रखवा लीं और कहा चुपके से चले जाओ, नहीं तो चौकीदार को बुलाकर थाने भिजवा दूँगा तो भैया क्या करता? सब कुछ वहीं छोड़कर भागा। दिन भर का भूखा-प्यासा पहर रात घर आया। कान पकड़े कि अब ससुराल न जाऊँगा।
कादिर– तुम तो सस्ते ही छूट गये। एक बेर मैं भी ससुराल गया था। जवानी की उमर थी। दिन-भर धूप में चला तो रतौंधी हो गयी। मगर लाज के मारे किसी से कहा तक नहीं। खाना तैयार हुआ तो साली दालान में बुलाकर भीतर चली गयी। दालान में अँधेरा था। मैं उठा तो कुछ सूझा ही नहीं कि किधर जाऊँ। न किसी को पुकारते बने, न पूछते। इधर-उधर टटोलने लगा। वहीं एक कोने में मेढ़ा बँधा हुआ था। मैं उसके ऊपर जा पहुँचा। वह मेरे पैर के नीचे से झपटकर ऊपर उठा और मुझे एक ऐसा सींग मारा कि मैं दूर जा गिरा। यह धमाका सुनते वही साली दौड़ी हुई आयी और अन्दर ले गयी। आँगन में मेरे ससुर और दो-तीन बिरादर बैठे हुए थे। मैं भी जा बैठा। पर सूझता न था कि क्या करूँ। सामने खाना रखा था। इतने में मेरी सास कड़े-छड़े पहने छन-छन करती हुई दाल की रकाबी में घी डालने आयी। मैंने छन-छन की आवाज सुनी तो रोंगटे खड़े हो गये। अभी तक घुटों में दर्द हो रहा था। समझा कि शायद मेढ़ा छूट गया। खड़ा होकर लगा पैंतरे बदलने। सास को भी एक घूँसा लगाया। घी की प्याली उनके हाथ से छूट पड़ी। वह घबड़ा के भागीं। लोगों ने दौड़कर मुझे पकड़ा और पूछने लगे, क्या हुआ, क्या हुआ? शरम के मारे मेरी जबान बन्द हो गयी। कुछ बोली ही न निकली। साला दौड़ा हुआ गया और एक मौलवी को लिवा आया। मौलवी ने देखते ही कहा, इस पर सईद मर्द सवार है। दुआ-ताबीज होने लगी। घर में किसी ने खाना न खाया। सास और ससुर मेरे सिरहाने बैठे बड़ी देर तक रोते रहे और मुझे बार-बार हँसी आये। कितना ही रोकूँ हँसी न रुके। बारे मुझे नींद आ गयी। भोरे उठ कर मैंने किसी से कुछ न पूछा न ताछा, सीधे घर की राह ली। दुखरन भगत, अपनी ससुराल की बात तुम भी कहो।
दुखरन– मुझे इस बखत मसखरी नहीं सूझती। यही जी चाहता है कि सिर पटक कर मर जाऊँ।
मनोहर– कादिर भैया, आज बलराज होता तो खून-खराबी हो जाती। उससे यह दुर्गत न देखी जाती।
कादिर– फिर वह दुखड़ा ले बैठे। अरे जो अल्लाह को यहीं मंजूर होता कि हम लोग इज्जत-आबरू से रहें तो कास्तकार क्यों बनाता? ज़मींदार न बनाता, चपरासी न बनाता, थाने का कान्सटेबिल न बनाता कि बैठे-बैठे दूसरों पर हुकुम चलाया करते? नहीं तो यह हाल है कि अपना कमाते हैं, अपना खाते हैं, फिर भी जिसे देखो धौंस जमाया करता है। सभी की गुलामी करनी पड़ती है। क्या ज़मींदार, क्या सरकार, क्या हाकिम सभी की निगाह हमारे ऊपर टेढ़ी है। और शायद अल्लाह भी नाराज हैं। नहीं तो क्या हम आदमी नहीं हैं। कि कोई हमसे बड़ा बुद्धिमान है? लेकिन रो कर क्या करें? कौन सुनता है? कौन देखता है? खुदा ताला ने आँखें बन्द कर लीं। जो कोई भलामानुष दरद बूझाकर हमारे पीछे खड़ा भी हो जाता है तो बेचारे की जान भी आफत में फँस जाती है। उसे तंग करने के लिए, फँसाने के लिए तरह-तरह के कानून गढ़ लिए जाते हैं। देखते तो हो, बलराज के अखबार में कैसी-कैसी बातें लिखी रहती हैं। यह सब अपनी तकदीर की खूबी है।
यह कहते-कहते कादिर खाँ रो पड़े। वह हृदय-ताप जिसे वह हास्य और प्रमोद से दबाना चाहते थे, प्रज्वलित हो उठा। मनोहर ने देखा तो उसकी आँखें रक्तपूर्ण हो गयीं– पददलित अभिमान की मूर्ति की तरह।
चारों में से कोई न बोला। सब के सब सिर झुकाये चुपचाप घास छीलते रहे, यहाँ तक कि तीसरा पहर हो गया। सारा मैदान साफ हो गया। सबने खुरपियाँ रख दीं और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गये। बेचारे समझते थे कि गला छूट गया, लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आकर हुक्म दिया, गोबर लाकर इसे लीप दो, खूब चिकना कर दो, कोई कंकड़-पत्थर न रहने पाये। कहाँ हैं नाजिर जी, इन सबको डोल रस्सी दिलवा दीजिए।
नाजिर जी ने तुरन्त डोल और रस्सी मँगाकर रख दी। कादिर खाँ ने डोल उठाया और कुएँ की तरफ चले, लेकिन दुखरन भगत ने घर का रास्ता लिया तहसीलदार ने पूछा, इधर कहाँ?
दुखरन ने उद्दण्डता से कहा– घर जा रहा हूँ।
तहसीलदार– और लीपेगा कौन?
दुखरन– जिसे गरज होगी वह लीपेगा।
तहसीलदार– इतने जूते पड़ेंगे कि दिमाग की गरमी उतर जायेगी।
दुखरन– आपका अख्तियार है– जूते मारिये चाहें फाँसी दीजिए, लेकिन लीप नहीं सकता।
कादिर– भगत, तुम कुछ न करना। जाओ, बैठे ही रहना। तुम्हारे हिस्से का काम मैं कर दूँगा।
दुखरन– मैं तो अब जूते खाऊँगा। जो कसर है वह भी पूरी हो जाये।
तहसीलदार– इस पर शामत सवार है। है कोई चपरासी, जरा लगाओ तो बदमाश को पचास जूते, मिजाज ठंडा हो जाये!
यह हुक्म पाते ही एक चपरासी ने लपककर भगत को इतने जोर से धक्का दिया कि वह जमीन पर गिर पड़े और जूते लगाने लगा। भगत् जड़वत् भूमि पर पड़ रहे। संज्ञा शून्य हो गये, उनके चेहरे पर क्रोध या ग्लानि का चिह्न भी न था। उनके मुख से हाय तक न निकलती थी। दीनता ने समस्त चैतन्य शक्तियों का हनन कर दिया था। कादिर खाँ कुएँ पर से दौड़े हुए आये और उस निर्दय चपरासी के सामने सिर झुककर बोले, सेख जी, इनके बदले मुझे जितना चाहिए मार लीजिए, अब बहुत हो गया।
चपरासी ने धक्का देकर कादिर खाँ को ढकेल दिया और फिर जूता उठाया कि अकस्मात् सामने से एक इक्के पर प्रेमशंकर और डपटसिंह आते दिखाई दिये। प्रेमशंकर पर हृदय-विदारक दृश्य देखने ही इक्के से कूद पड़े और दौड़े हुए चपरासी के पास आ कर बोले, खबरदार जो फिर हाथ चलाया।
चपरासी सकते में आ गया। कल्लू, मनोहर सब डोल-रस्सी छोड़-छाड़ कर दौड़े और उन्हें सलाम कर खड़े हो गये। प्रेमशंकर के चारों ओर एक जमघट सा हो गया। तहसीलदार ने कठोर स्वर में पूछा, आप कौन हैं? आपको सरकारी काम में मुदाखिलत करने का क्या मजाल है?
प्रेमशंकर– मुझे नहीं मालूम था कि गरीबों को जूते लगवाना भी सरकारी काम है। इसने क्या खता की थी, जिसके लिए आपने यह सजा तजवीज की?
तहसीलदार– सरकारी हुक्म की तामील से इन्कार किया। इससे कहा गया था कि इस मैदान को गोबर से लीप दे, पर इसने बदजबानी की।
प्रेम– आपको मालूम नहीं था कि यह ऊँची जाति का काश्तकार है? जमीन लीपना या कूड़ा फेंकना इनका काम नहीं है।
तहसीलदार– जूते की मार सब कुछ करा लेती है।
प्रेमशंकर का रक्त खौल उठा, पर जब्त से काम लेकर बोले, आप जैसे जिम्मेदार ओहदेदार की जबान से यह बात सुनकर सख्त अफसोस होता है।
मनोहर आगे बढ़कर बोला, सरकार, आज जैसी दुर्गति हुई है वह हम जानते हैं। एक चमार बोला, दिन भर घास छीला, अब कोई पैसा ही नहीं देता। घंटों से चिल्ला रहे हैं।
तहसीलदार ने क्रोधोन्मत्त होकर कहा, आप यहाँ से चले जायँ, वरना आपके हक में अच्छा न होगा। नाजिर जी, आप मुँह क्या देख रहे हैं? चपरासियों से कहिए, इन चमारों की अच्छी तरह खबर लें। यही इनकी मजदूरी है।
चपरासियों ने बेगारों को घेरना शुरू किया। कान्स्टेबलों ने भी बन्दूकों के कुन्दे चलाने शुरू किये। कई आदमियों को चोट आ गयी। प्रेमशंकर ने जोर से कहा, तहसीलदार साहब, मैं आपसे मिन्नत करता हूँ कि चपरासियों को मारपीट करने से मना कर दें, वरना इन गरीबों का खून हो जायेगा।
तहसीलदार– आपके ही इशारों से इन बदमाशों ने सरकशी अख्तियार की है। इसके जिम्मेदार आप हैं। मैं समझ गया, आप किसी किसान-सभा से ताल्लुक रखते हैं।
प्रेमशंकर ने देखा तो लखनपुर वालों के चेहरे रोष से विकृत हो रहे थे। प्रतिक्षण शंका होती थी कि इनमें से कोई प्रतिकार न कर बैठे। प्रति क्षण समस्या जटिलतर होती जाती थी। तहसीलदार और अन्य कर्मचारियों से मनुष्यता और दयालुता की अब कोई आशा न रही। तुरन्त अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। गाँव वालों की ओर रुख करके बोले, तहसीलदार साहब का हुक्म मानो। एक आदमी भी यहाँ से न जाय। आदमियों को मुँहमाँगी मजूरी दी जायेगी। इसकी कुछ चिन्ता मत करो।
यह शब्द सुनते ही सारे आदमी ठिठक गये और विस्मित हो कर प्रेमशंकर की ओर ताकने लगे। सरकारी कर्मचारियों को भी आश्चर्य हुआ। मनोहर और कुछ कुल्लू कुएँ की तरफ चले। चमारों ने गोबर बटोरना शुरू किया। डपटसिंह भी मैदान से ईंट-पत्थर उठा-उठा कर फेंकने लगे। सारा काम ऐसी शान्ति से होने लगा, मानो कुछ हुआ ही न था। केवल दुखरन भगत अपनी जगह से न हिले।
प्रेमशंकर ने तहसीलदार से कहा, आपकी इजाजत हो तो यह आदमी अपने घर जाय। इसे बहुत चोट आ गयी है।
तहसीलदार ने कुछ सोचकर कहा, हाँ, जा सकता है।
भगत चुपके से उठे और धीरे-धीरे घर की ओर चले। इधर दम के दम में आदमियों ने मैदान लीप-पोत कर तैयार कर दिया। सब ऐसा दौड़-दौड़ कर उत्साह से काम कर रहे थे मानो उनके घर बरात आयी हो।
सन्ध्या हो गयी थी। प्रेमशंकर जमीन पर बैठे हुए विचारों में मग्न थे– कब तक गरीबों पर यह अन्याय होगा? कब उन्हें मनुष्य समझा जायेगा? हमारा शिक्षित समुदाय कब अपने दीन भाइयों की इज्जत करना सीखेगा? कब अपने स्वार्थ के लिए अपने अफसरों की नीच खुशामद करना छोड़ेगा।
इतने में तहसीलदार साहब सामने आकर खड़े हो गये और विनय भाव से बोले, आपको यहाँ तकलीफ हो रही है, मेरे खेमे में तशरीफ ले चलिए। माफ कीजिएगा, मैंने आपको पहचाना न था। गरीबों के साथ हमदर्दी देखकर। आपकी तारीफ करने को जी चाहता है। आप बड़े खुशनसीब हैं कि खुदा ने आपको ऐसा दर्दमन्द दिल अता फरमाया है। हम बदनसीबों की जिन्दगी तो अपनी तनपरवरी में ही गुजरती है। क्या करूँ? अगर अभी साफ कह दूँ कि बेगार में मजदूर नहीं मिलते तो नालायक समझा जाऊँ। आँखों से देखता हूँ कि मजदूरों को आठ आने रोज मिलते हैं, पर इन साहब बहादुर से इतनी मजूरी माँगूँ तो यह हर्गिज न देंगे। सरकार ने कायदे बहुत अच्छे बनाये हैं, लेकिन ये हुक्काम उनकी परवा ही नहीं करते। कम-से-कम ५०) के मिट्टी के बर्तन उठे होंगे। लकड़ी, भूसा पुआल सैकड़ों मन खर्च हो गये। कौन इनकी कीमत देता है? अगर कायदे पर अमल करने लगूँ तो एक लमहे भर रहना दुश्वार हो जाय और अकेला कर ही क्या सकता हूँ? मेरे और भाई भी तो हैं। उनकी सख्तियाँ आप देखें तो दाँतों तले उँगली दबा लें। खुदा ने जिसके घर में रूखी रोटियां भी दी हों, वह कभी यह मुलाजमत न करे। आइए; बैठिए, आपको सैकड़ों दास्तानें सुनाऊँ, जिनमें तहसीलदारों को कायदे के मुताबिक अमल करने के लिए जहन्नुम में भेज दिया गया है। मेरे ऊपर खुद एक बार गुजर चुकी है।
प्रेमशंकर को तहसीलदार से सहानुभूति हो गयी। समझ गये कि यह बेचारे विवश हैं। मन में लज्जित हुए कि मैंने अकारण ही इनसे अविनय की। उनके साथ खेमे में चले गये। वहाँ बहुत देर तक बातें होती रहीं। तहसीलदार साहब बड़े साधु सज्जन निकले अधिकार-विषयक घटनायें समाप्त हो चुकीं तो अपनी पारिवारिक कठिनाइयों का बयान करने लगे। उनके तीन पुत्र कॉलेज में पढ़ते थे। दो लड़कियां विधवा हो गयी थीं एक विधवा बहिन और उसके बच्चों का भार भी सिर पर था। २०० रुपये में बड़ी मुश्किल से गुजर होता था। अतएव जहाँ अवसर और सुविधा देखते थे, वहाँ रिश्वत लेने में उज्र न था। उन्होंने यह वृत्तान्त ऐसे सरल और नम्र भाव से कहा कि प्रेमशंकर को उनसे स्नेह-सा हो गया। वहाँ से उठे तो ८ बज चुके थे, चौपाल की तरफ जाते हुए दुखरन भगत के द्वार पर पहुँचे तो एक विचित्र दृश्य देखा। गाँव के कितने ही आदमी जमा थे। और भगत उनके बीच में खड़े हाथ में शालिग्राम की मूर्ति लिए उन्मत्तों की भाँति बहक-बहक कर कह रहे थे– यह शालिग्राम है। अपने भक्तों पर बड़ी दया रखते हैं? सदा उनकी रक्षा किया करते हैं। इन्हें मोहनभोग बहुत अच्छा लगता है। कपूर और धूप की महक बहुत अच्छी लगती है। पूछो, मैंने इनकी कौन सेवा नहीं की? आप सत्तू खाता था, बच्चे चबेना चबाते थे, इन्हें मोहनभोग का भोग लगाता था। इनके लिए जाकर कोसों से फूल और तुलसीदल लाता था। अपने लिए तमाखू चाहे न रहे, पर इनके लिए कपूर और धूप की फिकिर करता था। इनका भोग लगा के तब दूसरा काम करता था। घर में कोई मरता ही क्यों न हो, पर इनकी पूजा-अर्चना किये बिना कभी न उठता था। कोई दिन ऐसा न हुआ कि ठाकुरदारे में जाकर चरणामृत न पिया हो, आरती न ली हो, रामायण का पाठ न किया हो। यह भगती और सर्धा क्या इसलिए कि मुझ पर जूते पड़ें, हकनाहक मारा जाऊँ, चमार बनूँ? धिक्कार मुझ पर जो फिर ऐसे ठाकुर का नाम लूँ, जो इन्हें अपने घर में रखूँ, और फिर इनकी पूजा करूँ! हाँ, मुझे धिक्कार है! ज्ञानियों ने सच कहा है कि यह अपने भगतों के बैरी हैं, उनका अपमान कराते हैं, उनकी जड़े खोदते हैं, और उससे प्रसन्न रहते हैं जो इनका अपमान करे। मैं अब तक भूला हुआ था। बोलो मनोहर, क्या कहते हो, इन्हें कुएँ में फेंकूँ या घूरे पर डाल दूँ, जहाँ इन पर रोज मनों कूड़ा पड़ा करे या राह में फेंक दूँ जहाँ सबेरे से साँझ तक इन पर लातें पड़ती रहें?
मनोहर– भैया तुम जानकर अनजान बनते हो। वह संसार के मालिक हैं, उनकी महिमा अपरम्पार है।
कादिर– कौन जानता है, उनकी क्या मरजी है? बुराई से भलाई करते हैं। इतना मन न छोटा करो।
दुखरन– (हँसकर) यह सब मन को समझाने का ढकोसला है। कादिर मियाँ, यह पत्थर का ढेला है, निरा मिट्टी का पिंडी। मैं अब तक भूल में पड़ा हुआ था। समझता था, इसकी उपासना करने से मेरे लोक-परलोक दोनों बन जाएँगे। आज आँखों के सामने वह परदा हट गया। यह निरा मिट्टी का ढेला है। यह लो महाराज, जाओ जहाँ तुम्हारा जी चाहे! तुम्हारी यही पूजा है। तीस साल की भगती का तुमने मुझे जो बदला दिया है, मैं भी तुम्हें उसी का बदला देता हूँ।
यह कहकर भगत ने शालिग्राम की प्रतिमा को जोर से एक ओर फेंक दिया। न जाने कहाँ जाकर गिरी। फिर दौड़े हुए घर में गये पिटारी लिये हुए बाहर निकले। मनोहर लपका कि पिटारी उनके हाथ से छीन लूँ। लेकिन भगत ने उसे अपनी ओर आते देखकर फुर्ती से पिटारी खोली और उसे हवा में उछाल दी। सभी सामग्रियाँ इधर-उधर फैल गयीं। तीस वर्ष की धर्म-निष्ठा और आत्मिक श्रद्धा नष्ट हो गयी। धार्मिक विश्वास की दीवार हिल गयी। और उसकी ईंट बिखर गयीं।
कितना हृदय-विदारक दृश्य था। प्रेमशंकर का हृदय गद्गद हो गया। भगवान्! इस असभ्य, अशिक्षित और दरिद्र मनुष्य का इतना आत्माभिमान? इसे अपमान ने इतना मर्माहत कर दिया! कौन कहता है, गँवारों में भावना निर्जीव हो जाती है? कितना दारुण आघात है जिसने भक्ति, विश्वास तथा आत्मगौरव को नष्ट कर डाला!
प्रेमशंकर सब आदमियों के पीछे खड़े थे। किसी ने उन्हें नहीं देखा। वह वहीं से चौपाल चले गये। वहाँ पलंग बिछा तैयार था। डपटसिंह चौका लगाते थे, कल्लू पानी भरते थे। उन्हें देखते ही गौस खाँ झुककर आदाब-अर्ज बजा लाये और कुछ सकुचाते हुए बोले, हुजूर को तहसीलदार साहब के यहाँ बड़ी देर हो गयी।
प्रेमशंकर– हाँ, इधर-उधर की बातें करने लगे। क्यों, यहाँ कहार नहीं है क्या? ये लोग क्यों पानी भर रहे हैं? उसे बुलाइए, मुनासिब मजदूरी दी जायगी।
गौस खाँ– हुजूर, कहार तो चार घर थे, लेकिन सब उजड़ गये। अब एक आदमी भी नहीं है।
प्रेमशंकर– यह क्यों?
गौस खाँ– अब हूजूर से क्या बतलाऊँ, हमीं लोगों की शरारत और जुल्म से। यहाँ हमेशा तीन-चार चपरासी रहते हैं। एक-एक के लिए एक-एक खिदमतगार चाहिए। और मेरे लिए तो जितने खिदमतगार हों उतने थोड़े हैं। बेचारे सुबह से ही पकड़ लिए जाते थे, शाम को छुट्टी मिलती थी। कुछ खाने को पा गये, नहीं तो भूखे ही लौट जाते थे। आखिर सब के सब भाग खड़े हुए, कोई कलकत्ता गया, कोई रंगून। अपने बाल बच्चों को भी लेते गये। अब यह हाल है कि हाथों से बर्तन-तक धोने पड़ते हैं।
प्रेमशंकर– आप लोग इन गरीबों को इतना सताते क्यों हैं? अभी तहसीलदार साहब लश्कर वालों की सारी बेइन्साफियों का इलजाम आपके ही सिर मढ़ रहे थे।
गौस खाँ– हुजूर तो फरिस्ते हैं, लेकिन हमारे छोटे सरकार का ऐसा ही हुक्म है। आजकल खतों में बार-बार ताकीद करते हैं कि गाँव में एक भी दखलदार असामी न रहने पाये। हुजूर का नमक खाता हूँ तो हुजूर के हुक्म की तामील करना मेरा फर्ज है, वरना खुदाताला को क्या मुँह दिखलाऊँगा। इसीलिए मुझे इन बेकसों पर सभी तरह की सख्तियाँ करनी पड़ती हैं। कहीं मुकदमें खड़े कर दिये। कहीं बेगार में फँसा दिया, कहीं आपस में लड़ा दिया। कानून का हुक्म है कि आदमियों को लगान देते ही पाई-पाई की रसीद दी जाय, लेकिन मैं सिर्फ उन्हीं लोगों को रसीद देता हूँ जो जरा चालाक हैं, गँवारों को यों ही टाल देता हूँ। छोटे सरकार का बकाया पर इतना जोर है कि पाई भी बाकी रहे तो नालिश कर दो। कितने ही असामी तो नालिश से तंग आकर निकल भागे। मेरे लिए तो जैसे छोटे सरकार हैं वैसे हुजूर भी हैं। आपसे क्या छिपाऊँ? इस तरह की धाँधलियों में हम लोगों का भी गुजर बसर हो जाता है, नहीं तो इस थोड़ी-सी आमदनी से गुजर होना मुश्किल था।
इतने में बिसेसर, मनोहर, कादिर खाँ आदि भी आ गये और आज का वृत्तान्त कहने लगे। मनोहर दूध लाये। कल्लू ने दही पहुँचाया। सभी प्रेमशंकर के सेवा-सत्कार में तत्पर थे। जब वह भोजन करके लेटे तो लोगों ने आपस में सलाह की कि बाबू साहब को रामायण सुनायी जाय। बिसेसर शाह अपने घर से ढोल-मजीरा लाये। कादिर ने ढोल लिया। मजीरे बजने लगे और रामायण का गान होने लगा, प्रेमशंकर को हिन्दी भाषा का अभ्यास न था और शायद ही कोई चौपाई उनकी समझ में आती थी, पर वह इन देहातियों के विशुद्ध धर्मानुराग का आनन्द उठा रहे थे। कितने निष्कपट, सरल-हृदय, साधु लोग हैं। इतने कष्ट झेलते हैं, इतना अपमान सहते हैं, लेकिन मनोमालिन्य का कहीं नाम नहीं। इस समय सभी आमोद के नशे में चूर हो रहे हैं।
रामायण समाप्त हुई तो कल्लू बोला, कादिर चाचा, अब तुम्हारी कुछ हो जाये।
कादिर ने बजाते हुए कहा, गा तो रहे हो, क्या इतनी जल्दी थक गये।
मनोहर– नहीं भैया, अब वह अपनी कोई अच्छी-सी चीज सुना दो। बहुत दिन हुए नहीं सुना, फिर न जाने कब बैठक हो। सरकार, ऐसा गायक इधर कई गाँव में नहीं है।
कादिर– मेरे गँवारू गाने में सरकार को क्या मजा आयेगा।
प्रेमशंकर– नहीं-नहीं, मैं तुम्हारा गाना बड़े शौक से सुनूँगा।
कादिर– हुजूर, गाते क्या हैं रो लेते हैं; आपका हुक्म कैसे टालें?
यह कहकर कादिर खाँ ने ढोल का स्वर मिलाया और यह भजन गाने लगा–
मैं अपने राम को रिझाऊँ।
जंगल जाऊँ न बिरछा छेड़ूँ न कोई डार सताऊँ।
पात-पात में है अविनासी, वाही में दरस कराऊँ।
मैं अपने राम को रिझाऊँ।
ओखद खाऊँ न बूटी लाऊँ, ना कोई बैद बुलाऊँ।
पूरन बैद मिले अविनासी, ताहि को नबज दिखाऊँ।
मैं अपने राम को रिझाऊँ
कादिर के गले में यद्यपि लोच और माधुर्य न था, पर ताल और स्वर ठीक था। कादिर इस विद्या में चतुर था। प्रेमशंकर भजन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। इसका एक-एक शब्द भक्ति और उद्गार में डूबा हुआ था। व्यवसायी गायकों की नीरसता और शुष्कता की जगह अनुरागमय, भाव-रस परिपूर्ण था।
गाना समाप्त हुआ तो एक नकल की ठहरी। कल्लू इस कला में निपुण था। कादिर मियाँ राजा बने, कल्लू मंत्री बिसेसर साह सेठ बन गये। डपटसिंह ने एक चादर ओढ़ ली और रानी बन बैठे। राजकुमार की कमी थी। लोग सोचने लगे कि यह भाग किसे दिया जाय। प्रेमशंकर ने हँसकर कहा कोई हरज न हो तो मुझे राजकुमार बना दो। यह सुनकर सब-के-सब फूल उठे। नकल शुरू हो गयी।