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52.

11 फरवरी 2022

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा था। पहले मुझे प्रत्येक काम में अपने ऊपर विश्वास होता था, पर आप सा सहायक पाकर मुझे पग-पग पर आपसे सहारे की इच्छा होती है। अपने ऊपर से विश्वास ही उठ गया। आपके विचार में अपील करने के लिए कितने रुपये चाहिए?
ज्वालासिंह– ज्यादा नहीं तो चार-पाँच हजार तो अवश्य ही लग जायेंगे।
प्रेम– और मेरे पास चार-पाँच सौ भी नहीं है।
ज्वाला– इसकी चिन्ता नहीं। आपके नाम पर दस-बीस हजार मिल सकते हैं।
प्रेम– मैं ऐसा कौन सा जाति का नेता हूँ जिस पर लोगों की इतनी श्रद्धा होगी?
ज्वाला– जनता आपको आपसे अधिक समझती है। मैं आज ही चन्दा वसूल करना शुरू कर दूँगा।
प्रेम– मुझे आशा नहीं कि आपको इसमें सफलता होगी। सम्भव है दो-चार सौ रुपये मिल जायँ, लेकिन लोग यहीं समझेंगे कि उन्होंने भी कमाने का यह ढंग निकाला। चन्दे के साथ ही लोगों को सन्देह होने लगता है। आप तो देखते ही हैं, चन्दों ने हमारे कितने ही श्रेद्धेय नेताओं को बदनाम कर दिया। ऐसा बिरला ही कोई मनुष्य होगा जो चन्दों के भँवर में पड़कर बेदाग निकल गया हो। मेरे पास श्रद्धा के कुछ गहने अभी बचे हुए हैं। अगर वह सब बेच दिया जाय तो शायद हजार रुपये मिल जायँ।
इतने में शीलमणि इन लोगों के लिए नाश्ता लायी। यह बात उसके कानों में पड़ीं बोली-कभी उनके सुधि भी लेते हैं या गहनों पर हाथ साफ करना ही जानते हैं? अगर ऐसी ही जरूरत है तो मेरे गहने ले जाइये।
ज्वाला– क्यों न हो, आप ऐसी ही दानी तो हैं। एक-एक गहने के लिए तो आप महीनों रूठती हैं, उन्हें लेकर कौन अपनी जान गाढ़े से डाले!
शील– जिस आग से आदमी हाथ सेंकता है, क्या काम पड़ने पर उससे अपने चने नहीं भून लेता। स्त्रियाँ गहने पर प्राण देती हैं लेकिन अवसर पड़ने पर उतार भी फेंकती हैं।
मायाशंकर एक तरफ अपनी किताब खोले बैठा हुआ था, पर उसका ध्यान इन्हीं बातों की ओर था। एक कल्पना बार-बार उसके मन में उठ रही थी, पर संकोचवश उसे प्रकट न कर सकता था। कई बार इरादा किया कि कहूँ, पर प्रेमशंकर की ओर देखते ही जैसे कोई मुँह बन्द कर देता था। आँखें नीची हो जाती थीं! शीलमणि की बात सुनकर वह अधीन हो गया। ज्वालासिंह की तरफ कातर नेत्रों से देखता हुआ बोला–  आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूँ।
जवाला– हाँ-हाँ, शौक से कहो।
माया– इस महीने की मेरी पूरी वृत्ति अपील में खर्च कर दीजिये। मुझे रुपयों की कोई विशेष जरूरत नहीं है।
शीलमणि और ज्वालासिंह दोनों ने इस प्रस्ताव को बालोचित आवेश समझ कर प्रेमशंकर की तरफ मुस्कुराते हुए देखा। माया ने उनका यह भाव देखकर समझा, मुझसे धृष्टता हो गयी। ऐसे महत्त्व के विषय में मुझे बोलने का कोई अधिकार न था। चाचाजी दुस्साहस पर अवश्य नाराज होंगे। लज्जा से आँखें भर आयीं और मुँह से एक सिसकी निकल गयी। प्रेमशंकर ने चौंक कर उसकी तरफ देखा, हृदयत भावों को समझ गये। उसे प्रेमपूर्वक छाती से लगा कर आवश्वासन देते हुए बोले– तुम रोते क्यों हो बेटा? तुम्हारी यह उदारता देखकर मेरा चित्त जितना प्रसन्न हुआ है वह प्रकट नहीं कर सकता। तुम मेरे पुत्रतुल्य हो, और मुझे विश्वास है कि तुम्हारा जीवन परोपकारी होगा, लेकिन मैंने तुम्हारी शिक्षा के लिए जो व्यवस्थाएँ की हैं उनका व्यय तुम्हारी वृत्ति से कुछ अधिक ही है।
माया को अब कुछ साहस हुआ। बोला, मेरी शिक्षा पर इतने रुपये खर्च करने की क्या जरूरत है?
प्रेम– क्यों, आखिर तुम्हें घर पर पढ़ाने के लिए अध्यापक रहेंगे या नहीं? एक अँग्रेजी और हिसाब पढ़ायेगा, एक हिन्दी और संस्कृत, उर्दू और फारसी, एक फ्रेंच और जर्मन, पाँचवाँ तुम्हें व्यायाम, घोड़े की सवारी, नाव चलाना शिकार खेलना सिखायेगा। इतिहास और भूगोल मैं पढ़ाया करूँगा।
माया– मेरी कक्षा में जो लड़के सबसे अच्छे हैं वे घर पर किसी मास्टर से नहीं पढ़ते। मैं उनको अपने से कम नहीं समझता।
प्रेम– तुम्हें हवा के लिए एक फिटन की जरूरत है। सवारी के अभ्यास के लिए दो घोड़े चाहिए।
माया– अपराध क्षमा कीजिएगा, मेरे लिए इतने मास्टरों की जरूरत नहीं है। फिटन, मोटर, शिकार, पोलो को भी मैं व्यर्थ समझता हूँ। हाँ, एक घोड़ा गोरखपुर से मँगवा दीजिए तो सवारी किया करूँ। नाव चलाने के लिए मैं मल्लाहों की नाव पर जा बैठूँगा। उनके साथ पतवार घुमाने और डांड चलाने में जो आनंद मिलेगा वह अकेले अध्यापक के साथ बैठने में नहीं आ सकता। अभी से लोग कहने लगे हैं कि इसका मिजाज नहीं मिलता। पदमू कई बार ताने दे चुके हैं! मुझे नक्कू रईसों की भाँति अपनी हँसी कराने की इच्छा नहीं है। लोग यही कहेंगे कि अभी कल तक तो एक मास्टर भी न था, आज दूसरों की सम्पति पा कर इतना घमंड हो गया है।
प्रेम– प्रतिष्ठा का ध्यान रखना आवश्यक है।
माया– मैं तो देखता हूँ आप इन चीजों के बिना ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, सभी आपकी इज्जत करते हैं। मेरे स्कूल के लड़के भी आपका नाम आदर से लेते हैं, हालाँकि शहर के और बड़े रईसों की हँसी उड़ाते हैं। मेरे लिए किसी विशेष चीज की जरूरत क्यों हो?
माया के प्रत्येक उत्तर पर प्रेमशंकर का हृदय अभिमान से फूला पड़ता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि इस लड़के में संतोष और त्याग का भाव क्योंकर उदित हुआ? इस उम्र में तो प्रायः लड़के टीमटाम पर जान देते हैं, सुन्दर वस्त्रों से उनका जी नहीं भरता, चमक-दमक की वस्तुओं पर लट्टू हो जाते है। यह पूर्व संस्कार हैं और कुछ नहीं। निरुत्तर होकर बोले– रानी गायत्री की यही इच्छा थी, नहीं तो इतने रुपये क्यों खर्च करतीं?
माया– यदि उनकी यह इच्छा होती तो यह वह मुझे ताल्लुकेदारों के स्कूलों में नहीं भेज देतीं? मुझे आपकी सेवा में रखने से उनका उद्देश्य यही होगा कि मैं आपके ही पदचिह्न पर चलूँ।
प्रेम– तो यह रुपये खर्च क्योंकर होंगे?
माया– इसका फैसला रानी अम्माँ ने आप पर ही छोड़ दिया है। मुझे आप उसी तरह रखिए जैसे आप अपने लड़के को रखते हैं। मुझे ऐसी शिक्षा न दीजिये और ऐसे व्यसनों में न डालिये कि मैं अपनी दीन प्रजा के दुःख-दर्द में शरीक न हो सकूँ। आपके विचार में मेरी शिक्षा की यही सबसे उत्तम विधि है?
प्रेम– नहीं, मेरा विचार तो ऐसा नहीं, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए ऐसा ही करना पड़ेगा। नहीं तो लोग यहीं कहेंगे कि मैं तुम्हारी वृत्ति का दुरुपयोग कर रहा हूँ।
माया– तो आप मुझे इस ढंग पर शिक्षा देना चाहते हैं जिसे आप स्वयं उपयोगी नहीं समझते। लोगों के दुराक्षेपों से बचने के ही लिए आप ने यह व्यवस्थाएँ की हैं।
प्रेमशंकर शरमाते हुए बोले– हाँ बात तो कुछ ऐसी ही है।
माया– मैंने अपने वजीफे के खर्च करने की और भी विधि सोची है। आप बुरा न मानें तो कहूँ।
प्रेम– हाँ-हाँ, शौक से कहो। तुम्हारी बातों से मेरी आत्मा प्रसन्न होती है। मैं तुम्हें इतना विचारशील न समझता था।
ज्वालासिंह– इस उम्र में मैंने किसी को इतना चैतन्य नहीं देखा।
शीलमणि प्रेमशंकर की ओर मुँह करके मुस्कुरायी और बोली– इस पर आपकी ही परछायीं पड़ी है।
माया– मैं चाहता हूँ कि मेरा वजीफा गरीब लड़कों की सहायता में खर्च किया जाय। दस-दस रुपये की १९९ वृत्तियाँ दी जायें तो मेरे लिए दस रुपये बच रहेंगे। इतने में मेरा काम अच्छी तरह चल सकता है।
प्रेमशंकर पुलकित होकर बोले– बेटा, तुम्हारी उदारता धन्य है, तुम देवात्मा हो। कितना देवदुर्लभ त्याग है! कितना संतोष! ईश्वर तुम्हारे इन पवित्र भावों को सुदृढ़ करें, पर मैं तुम्हारे साथ इतना अन्याय नहीं कर सकता।
माया– तो दो-चार वृत्तियाँ कम कर दीजिये, लेकिन यह सहायता उन्हीं लड़कों को दी जाय जो यहाँ आकर खेती और बुनाई का काम सीखें।
ज्वाला– मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ। मेरी राय में तुम्हें अपने लिए कम से कम ५०० रुपये रखने चाहिए बाकी रुपये तुम्हारी इच्छा के अनुसार खर्च किये जायँ। ७५ वृत्तियाँ बुनाई और ७५ खेती के काम सिखाने के लिए दी जाये। भाई साहब कृषिशास्त्र और विज्ञान में निपुण हैं। बुनाई का काम मैं सिखाया करूँगा। मैंने इसका अच्छी तरह अभ्यास कर लिया है।
प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह का खंडन करते हुए कहा– मैं इस विषय में रानी गायत्री की आज्ञा और इच्छा के बिना कुछ नहीं करना चाहता।
मायाशंकर ने निराश भाव से ज्वालासिहं को देखा और फिर अपनी किताब देखने लगा।
इसी समय डॉ. इर्फानअली के दीवानखाने में भी इसी विषय पर वार्तालाप हो रहा था। डाक्टर साहब सदैव अपने पेशे की दिल खोलकर निन्दा किया करते थे। कभी-कभी न्याय और दर्शन के अध्यापक बन जाने का इरादा करते। लेकिन उनके विचार में स्थिरता न थी, न विचारों को व्यवहार में लाने के लिए आत्मबल ही था। नहीं, अनर्थ यह था कि वह जिन दोषों की निन्दा करते थे उन्हें व्यवहार में लाते हुए जरा भी संकोच न करते थे, जैसे कोई जीर्ण रोगी पथ्यों से ऊब कर सभी प्रकार के कुपथ्य करने लगे। उन्हें इस पेशे की धन-लोलुपता से घृणा थी, पर आप मुवक्किलों को बड़ी निर्दयता से निचोड़ते थे। वकीलों की अनीति का नित्य रोना रोते थे। पर आप दुर्नीति के परम भक्त थे। अपने हलवे-माँडे से काम था, मुवक्किल चाहे मरे या जिये। इसकी स्वार्थपरायणता और दुर्नीति के ही कारण लखनपुर का सर्वनाश हुआ था।
लेकिन जब से प्रेमशंकर ने उपद्रवकारियों के हाथों से उनकी रक्षा की थी तभी से उनकी रीति-नीति और आचार-विचार में एक विशेष जागृति सी दिखायी देती थी। उनकी धन-लिप्सा अब उतनी निर्दय न थी, मुवक्किलों से बड़ी नम्रता का व्यवहार करते, उनके वृत्तान्त को विचारपूर्वक सुनते, मुकदमें को दिल लगा कर तैयार करते, इतना ही नहीं बहुधा गरीब मुवक्किलों से केवल शुकराना लेकर ही सन्तुष्ट हो जाते थे। इस सदव्यवहार का कारण केवल यही नहीं था कि वह अपने खोये हुए सम्मान को फिर प्राप्त करना चाहते थे, बल्कि प्रेमशंकर का सन्तोषमय, निष्काम और निःस्पृह जीवन उनके चित्त की शान्ति और सहृदयता का मुख्य प्रेरक था। उन्हें जब अवसर मिलता प्रेमशंकर से अवश्य मिलने जाते और हर बार उनके सरल और पवित्र जीवन से मुग्ध होकर लौटते थे। अब तक शहर में कोई ऐसा साधु, सात्विक पुरुष न था जो उन पर अपनी छाप डाल सके। अपने सहवर्गियों में वह किसी को अपने से अधिक विवेकशील, नीतिपरायण और सहृदय न पाते थे। इस दशा में वह अपने को ही सर्वश्रेष्ठ समझते थे और वकालत की निन्दा करके अपने को धन्य मानते थे। उनकी स्वार्थ वृत्ति को उन्मत्त करने के लिए इतना ही काफी था, पर अब उनकी आँखों के सामने एक ऐसा पुरुष उपस्थित था जो उन्हीं का सा विद्वान लेख और वाणी में उन्हीं का सा कुशल था, पर कितना विनयी, कितना उदार, कितना दयालु, कितना शान्तिचित्त! जो उनकी असाधुता से दुःखी होकर भी उनकी उपेक्षा न करता था। अतएव अब डॉक्टर साहब को अपने पिछले अपकारों पर पश्चात्ताप होता था। वह प्रायश्चित करके अपयश और कलंक के दाग को मिटाना चाहते थे। उन्हें लज्जावश प्रेमशंकर से अपील के लिए अनुरोध करने का साहस न होता था, पर उन्होंने संकल्प कर लिया था कि अपील में अभियुक्तों को छुड़ाने के लिए दिल तोड़ कर प्रयत्न करूँगा। वह अपील के खर्च का बोझ भी अपने ही सिर लेना चाहते थे। महीनों से अपील की तैयारी कर रहे थे मुकदमें की मिस्लें विचारपूर्वक देख डाली थीं, जिरह के प्रश्न निश्चित कर लिए थे और अपना कथन भी लिख डाला था। उन्हें इतना मालूम हो गया था कि ज्वालासिंह के आने पर अपील होगी। उनके आने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे।
प्रातःकाल का समय था। डॉक्टर साहब को ज्वालासिंह के आने की खबर मिल गयी थी। उनसे मिलने के लिए जा रहे थे कि सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ। उनकी सौम्यमूर्ति पर काला चुगा बहुत खुलता था। सलाम-बंदी के बाद सैयद साहब ने इर्फान अली की ओर सन्देह की दृष्टि से देखकर कहा– आपने देखा, इन दोनों भाइयों ने रानी गायत्री को कैसा शीशे में उतार लिया? एक साहब ने रियासत हाथ में कर ली और दूसरे साहब दो हजार रुपये के मौरूसी वसीकेदार बन गये। लौड़े की तालीम में ज्यादा-से-ज्यादा चार-पाँच सौ रुपये खर्च हो जायेंगे, और क्या? दुनिया में कैसे-कैसे बगुला भगत छिपे हुए है!
ईजाद हुसेन की बदगुमानी का मर्ज था। जब से उन्हें यह बात मालूम हुई थी, उनकी छाती पर साँप लोट रहा था, मानों उन्हीं की जेब से रुपये निकाले जाते हैं। यह कितना अनर्थ था कि प्रेमशंकर को तो दो हजार रुपये महीने बिना हाथ पैर हिलाये घर बैठे मिल जायँ और उस गरीब को इतना छल-प्रपंच करने पर भी रोटियों की चिन्ता लगी रहे!
डॉक्टर महाशय ने व्यंग्य भाव से कहा– इस मौके पर आप चूक गये। अगर आप रानी साहिबा की खिदमत में डेपुटेशन लेकर जाते तो इत्तहादी यतीमखाने’ के लिए एक हजार का वसीका जरूर बँध जाता।
ईजाद हुसेन– आप तो जनाब मजाक करते हैं। मैं ऐसा खुशनसीब नहीं हूँ। मगर दुनिया में कैसे-कैसे लोग पड़े हुए हैं जो तर्क का नूरानी जाल फैला कर सोने की चिड़िया फँसा लेते हैं
डॉक्टर साहब ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा– लाला ज्ञानशंकर की निस्बत आप जो चाहे ख्याल करें, लेकिन बाबू प्रेमशंकर जैसे नेकनीयत आदमी पर आपका शुबहा करना बिलकुल बेजा है और जब वह आपके मददगारों में हैं तो आपका उनसे बदगुमान होना सरासर बेइन्साफी है। मैं उन्हें अर्से से जानता हूँ और दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा बेलौस आदमी इस शहर में क्या इस मुल्क में मुश्किल से मिलेगा। वह अपने को मशहूर नहीं करते, लेकिन कौम की जो खिदमत कर रहे हैं काश और लोग भी करते तो यह मुल्क रश्के फिर्दोस (स्वर्गतुल्य) हो जाता। जो आदमी दस रुपये माहवार पर जिन्दगी बसर करे, अपने मजदूरों से मसावत (बराबरी) का बर्ताव करे, मजलूमों (अन्याय पीड़ित) की हिमायत करने में दिलोजान से तैयार रहे, अपने उसूलों (सिद्धान्त) पर अपनी जायदाद तक कुर्बान कर दे, उसकी निस्बत ऐसा शक करना शराफत के खिलाफ है, आप उनके मुलाजिमों को सौ रुपए माहवार पर भी रखना चाहें तो न आयेंगे। वह उनके नौकर नहीं हैं, बल्कि पैदावार में बराबर के हिस्सेदार हैं। गायत्री गजब की मर्दुमशनास (आदमियों को पहचानने वाली) औरत मालूम होती है।
ईजाद हुसेन ने चकित हो कर कहा– वाकई वह दस रुपये माहवार पर बसर करते हैं? यह क्योंकर?
इर्फान– अपनी जरूरतों को घटा कर हम और आप तकल्लुफ (विलास) की चीजों को जरूरियात में शामिल किये हुए हैं और रात-दिन उसी फिक्र में परेशान रहते हैं। यह नफ्स (इन्द्रिय) की गुलामी है। उन्होंने इसे अपने काबू में कर लिया है। हम लोग अपनी फुर्सत का वक्त जमाने और तकदीर की शिकायत करने में सर्फ करते हैं। रात-दिन इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि क्योंकर और मिले। और ही हवस हलाल और हराम का भी लिहाज नहीं करते। उन्हें मैंने कभी अपने तकदीर के दुखड़े रोते हुए नहीं पाया। वह हमेशा खुश नजर आते हैं गोया कोई गम ही नहीं...
इतने में बाबू ज्वालासिंह आ पहुँचे। डॉक्टर साहब ने उठ कर हाथ मिलाया। शिष्टाचार के बाद पूछा– अब तो आपका इरादा यहाँ मुस्तकिल तौर पर रहने का है न?
ज्वाला– जी हाँ, आया तो इसी इरादे से हूँ?
इर्फान– फरमाइए, अपील कब होगी?
ज्वाला– इसका जिक्र पीछे करूँगा। इस वक्त तो मुझे सैयद से कुछ अर्थ करना है। हुजूर के दौलतखाने पर हाजिर हुआ था। मालूम हुआ आप तशरीफ रखते हैं। मुझे बाबू प्रेमशंकर ने आपसे यह पूछने के लिए भेजा है कि आप मायाशंकर को उर्दू-फारसी पढ़ाना मंजूर करेंगे।
इर्फान– मंजूर क्यों न करेंगे, घर बैठे-बैठे क्या करते हैं? जलसे तो साल में दस-पाँच ही होते हैं और रोटियों की फिक्र चौबीसों घंटे सिर पर रहती है। तनख्वाह की क्या तजवीज की है?
ज्वाला– अभी १०० रुपये माहवार मिलेंगे।
इर्फान– बहुत माकूल है। क्यों मिर्जासाहब, मंजूर है न? ऐसा मौका फिर आपको न मिलेगा।
ईजाद हुसेन ने कृतज्ञ भाव से कहा– दिलोजान से हाजिर हूँ। मेरी जबान में ताकत नहीं है कि इस एहसान का शुक्रिया अदा कर सकूँ। हैरत तो यह है कि मुझे उनसे एक ही बार नियाज हासिल हुआ और उन्हें मेरी परवरिश का इतना खयाल है।
ज्वाला– वह आदमी नहीं फरिश्ते हैं। आपके यतीमखाने का कई बार जिक्र कर चुके हैं। शायद यतीमों के लिए कुछ वजीफे मुकर्रर करना चाहते हैं। इस वक्त सब कितने यतीम हैं?
उपकार ने ईजाद हुसेन के हृदय को पवित्र भावों से परिपूरित कर दिया था। अतिशयोक्ति से काम न ले सके। एक क्षण तक वह असमंजस में पड़े रहे, पर अन्त में सद्भावों ने विजय पायी। बोले– जनाब, अगर आपने किसी दूसरे मौके पर यह सवाल किया होता तो मैं उसका कुछ और भी जवाब देता, पर आप लोगों की शराफत और हमदर्दी का मुझ जैसे दगाबाज आदमी पर भी असर पड़ ही गया। मेरे यहाँ दो किस्सों के यतीम हैं। एक मुस्तकिल और दूसरे फसली जरूरत के वक्त इन दोनों की तायदात पचास से भी बढ़ जाती है, लेकिन फसली यतीमों को निकाल दीजिए तो सिर्फ दस यतीम रह जाते हैं। मुमकिन है कि आप इनको यतीम न खयाल करें, लेकिन मैं समझता हूँ कि गरीब आदमी से अजीजों के लड़के सच्चे यतीम हैं।
इर्फान अली ने मुस्कराकर कहा– तो हजरत, आपने क्या यतीमखाने का स्वाँग ही खड़ा कर रखा है? कम-से-कम मुझसे तो पर्दा न रखना चाहिए था। तभी आपने अपनी सारी जायदाद यतीमखाने के नाम लिख दी थी।
ईजाद हुसेन ने शर्म से सिर झुका कर कहा– किबला, जरूरत इन्सान से सब कुछ करा लेती है। मैं वकील नहीं, बैरिस्टर नहीं, ताजिर जागीरदार नहीं; एक मामूली लियाकत का आदमी हूँ। मुझ बदनसीब के बालिद टोंक की रियासत में ऊँचे मंसबदार थे। हजारों की आमदनी थी, हजारों का खर्च। जब तक वह जिन्दा रहे मैं आजाद घूमता रहा, कनकैये और बटेरों से दिल बहलाता रहा। उनकी आँखें बन्द होते ही खानदान की परवरिश का भार मुझ पर पड़ा और खानदान भी वह जो ऐश का आदी था। मेरी गैरत ने गवारा न किया कि जिन लोगों पर वालिद मरहूम ने अपना साया कर रखा था उनसे मुँह मोड़ लूँ। मुझमें लियाकत न हो, पर खानदानी गैरत मौजूद थी। बुरी सोहबतों ने दगा और मक्र को फन में पुख्ता कर दिया। टोंक में गुजरान की कोई सूरत न देखी तो सरकारी मुलाजमत कर ली और कई जिलों की खाक छानता हुआ यहाँ आया। आमदनी कम थी, खर्च ज्यादा। थोड़े दिनों में घर की लेई-पूँजी गायब हो गयी। अब सिवाय इसके और कोई सूरत न थी कि या तो फाके करूँ या गुजरान की कोई राह निकालूँ। सोचते-सोचते यही सूझी जो अब कर रहा हूँ।
इर्फानअली– अन्दाजन आपको सालाना कितना रुपये मिल जाते होंगे?
ईजाद– अब क्या कुछ भी पर्दा न रहने दीजिएगा?
इर्फान– अधूरी कहानी नहीं छोड़ी जाती।
ईजाद– तो जनाब, कोई बँधी हुई रकम है नहीं, और न मैं हिसाब लिखने का आदी हूँ। जो कुछ मुकद्दर में है मिल जाता है। कभी-कभी एक-एक महीने में हजारों की याफत हो जाती है, कभी महीनों रुपये की सूरत देखनी नसीब नहीं होती। मगर कम हो या ज्यादा, इस कमाई में बरकत नहीं है। हमेशा शैतान की फटकार रहती है। कितनी ही अच्छी गिजा खाइये, कितने ही कीमती कपड़े पहिनिये, कितने ही शान से रहिये, पर वह दिली इतमीनान नहीं हासिल होता जो हलाल की रूखी रोटियों और गजी-गाढ़ों में है। कभी-कभी तो इतना अफसोस होता है कि जी चाहता है जिन्दगी का खातमा हो जाय तो बेहतर। मेरे लिए सौ रुपये लाखों के बराबर हैं। इन्शा अल्लाह, इर्शाद भी जल्द ही किसी-न-किसी काम में लग जायेगा तो रोजी की फिक्र से निजात हो जायेगी। बाकी जिन्दगी तोबा और इबादत में गुजरेगी, इत्तहाद की खिदमत अब भी करता रहूँगा, लेकिन अब से यह सच्ची खिदमत होगी, खुदगर्जी से पाक। इसका सबाब खुदा बाबू प्रेमशंकर को अदा करेगा।
थोड़ी देर अपील के विषय में परामर्श करने के बाद ज्वालासिंह मिर्जा साहब को साथ ले कर हाजीपुर चले। डॉक्टर साहब भी साथ हो लिये। 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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