फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के सत्ताधारी शासक थे। उनका हुक्म कानून के तुल्य था। किसी को चूँ करने की मजाल न थी। गाँव का दूध-घी, उपले-लकड़ी घास-पयाल, कद्दू-कुम्हड़े, हल-बैल, सब उनके थे। जो अधिकार गौस खाँ को जीवन-पर्यन्त न प्राप्त हुए वह समय के उलट-फेर और सौभाग्य से फैजुल्लाह को पहले ही दिन से प्राप्त हो गये। अन्याय और स्वेच्छा के मैदान में अब उनके घोड़ों को किसी ठोकर का भय न था। पहले कर्तारसिंह की ओर से कुछ शंका थी, किन्तु उनकी नीति-कुशलता ने शीघ्र ही उसकी अभक्ति को परास्त कर दिया। वह अब उनका आज्ञाकारी सेवक, उनका परम शुभेच्छु था। वह अब गला फाड़-फाड़कर रामायण का पाठ करता। सारे गाँव के ईंट-पत्थर जमा करके चौपाल के सामने ढेर दिये और उन पर घड़ों पानी चढ़ाता। घंटों चन्दन रंगड़ता, घंटों भंग घोटता, कोई रोक-टोक करने वाला न था! फैजुल्लाह खाँ नित्य प्रातःकाल टाँघन पर सवार हो कर गाँव का चक्कर लगाते, कर्तार और बिन्दा महाराज लट्ठ लिये उनके पीछे-पीछे चलते। जो कुछ नोचे-खसोटे मिल जाता वह लेकर लौट आते थे। यों तो समस्त गाँव उनके अत्याचार से पीड़ित था, पर मनोहर के घर पर इन लोगों कि विशेष कृपा थी। पूस में ही बिलासी पर बकाया लगान की नालिश हुई और उसके सब जानवर कुर्क हो गये। फैजू को पूरा विश्वास था कि अब की चैत में किसी से मालगुजारी वसूल तो होगी नहीं तो सभों पर बेदखली के दावे कर दूँगा और एक ही हल्के में सबको समेट लूँगा। मुसल्लम गाँव को बेदखली कर दूँगा, आमदनी चटपट दूनी हो जायगी। पर इस दुष्कल्पना से उन्हें सन्तोष न होता था। डाँट-फटकार, गाली-गलौज के बिना रोब जमाना कठिन था। अतएव नियमपूर्वक इस नीति का सदुपयोग किया जाने लगा। बिलासी मारे डर के घर से निकलती ही न थी। उसकी रब्बी खेत में खड़ी सूख रही थी, पानी कौन दे? न बैल अपने थे और न किसी से माँगने का ही मुँह था।
एक दिन सन्ध्या समय बिलासी अपने द्वार पर बैठी रो रही थी। यही उसको मालूम था। मनोहर की आत्महत्या की खबर उसे कई दिन पहले मिल चुकी थी। उसे अपने सर्वनाश का इतना शोक न था जितना इस बात का कि कोई उसकी बात पूछने वाला न था। जिसे देखिए उसे जली-कटी सुनाता था। न कोई उसके घर आता, न जाता। यदि वह बैठे-बैठे उकता कर किसी के घर चली जाती, तो वहाँ भी उसका अपमान किया जाता। वह गाँव की नागिन समझी जाती थी, जिसके विष ने समस्त गाँव को काल का ग्रास बना दिया। और तो और उसकी बहू भी उसे ताने देती थी। सहसा उसने सुना सुक्खू चौधरी अपने मन्दिर में आकर बैठे हैं। वह तुरन्त मन्दिर की ओर चली। वह सहानुभूति की प्यासी थी। सुक्खू इन घटनाओं के विषय में क्या कहते हैं, यह जानने की उसे उत्कृष्ट इच्छा थी। उसे आशा थी कि सुक्खू अवश्य निष्पक्ष भाव से अपनी सम्मति प्रकट करेंगे। जब वह मन्दिर के निकट पहुँची तो गाँव कि कितनी ही नारियों और बालिकाओं को वहाँ जमा पाया। सुक्खू की दाढ़ी बढ़ी हुई थी, सिर पर एक कन्टोप था और शरीर पर एक रामनामी चादर। बहुत उदास और दुखी जान पड़ते थे। नारियाँ उसने गौस खाँ की हत्या की चर्चा कर रही थीं। मनोहर की खूब ले-दे हो रही थी। बिलासी मन्दिर के निकट पहुँच कर ठिठक गयी कि इतने में सुक्खू ने उसे देखा और बोले, आओ बिलासी आओ बैठो। मैं तो तुम्हारे पास आप ही आने वाला था।
बिलासी– तुम तो कुशल से रहे?
सुक्खू– जीता हूँ, बस यही कुशल है। जेल से छूटा तो बद्रीनाथ चला गया। वहाँ से जगन्नाथ होता हुआ चला आता हूँ। बद्रीनाथ में एक महात्मा के दर्शन हो गये, उसने गुरुमन्त्र भी ले लिया। अब माँगता-खाता फिरता हूँ। गृहस्थी के जंजाल से छूट गया।
बिलासी ने डरते-डरते पूछा, यहाँ का हाल तो तुमने सुना ही होगा?
सुक्खू– हाँ, जब से आया हूँ वही चर्चा हो रही है और उसे सुनकर मुझे तुम पर ऐसी श्रद्घा हो गयी है कि तुम्हारी पूजा करने को जी चाहता है। तुम क्षत्राणी हो, अहीर की कन्या हो कर भी क्षत्राणी हो। तुमने वही किया जो क्षत्राणियाँ किया करती हैं। मनोहर भी क्षत्री है, उसने वही किया जो क्षत्री करते हैं। वह वीर आत्मा था। इस मन्दिर में अब उसकी समाधि बनेगी और उसकी पूजा होगी। इसमें अभी किसी देवता की स्थापना नहीं हुई है, अब उसी वीर-मूर्ति की स्थापना होगी। उसने गाँव की लाज रख ली, स्त्री की मर्जाद रख ली। यह सब क्षुद्र आत्माएँ बैठी उसे बुरा-भला कह रही हैं। कहती हैं, उसने गाँव का सर्वनाश कर दिया। इनमें लज्जा नहीं है, अपनी मर्यादा का कुछ गौरव नहीं है। उसने गाँव का सर्वनाश नहीं किया, उसे वीरगति दे दी, उसका उद्धार कर दिया! नारियों की रक्षा करना पुरुषों का धर्म है। मनोहर ने अपने धर्म का पालन किया। उसको बुरा वही कह सकता है जिसकी आत्मा मर गयी है, जो बेहया हो गया है। गाँव के दस-पाँच पुरुष फाँसी चढ़ जायें तो कोई चिन्ता नहीं, यहाँ एक-एक स्त्री के पीछे लाखों सिर कट गये हैं। सीता के पीछे रावण का राज्य विध्वंस हो गया। द्रौपदी के पीछे १८ लाख योद्धा मर मिटे। इज्जत के लिए दस-पाँच जाने चली जायें तो क्या बड़ी बात है! धन्य है मनोहर तेरे साहस को, तेरे पराक्रम को, तेरे कलेजे को।
सुक्खू का एक-एक शब्द वीर रस में डूबा हुआ है। बिलासी के हृदय में वह गुद-गुदी हो रही थी, जो अपनी सराहना सुनकर हो सकती है। जी चाहता था, सुक्खू के चरणों पर सिर रख दूँ, किन्तु अन्य स्त्रियाँ सुक्खू की ओर कुतूहल से ताक रही थीं कि यह क्या बकता है।
एक क्षण के बाद सुक्खू ने बिलासी से पूछा, खेती-बारी का क्या हाल है।
बिलासी के खेत सूख रहे थे, पर अपनी विपत्ति-कथा सुनाकर वह सुक्खू को दुखी नहीं करना चाहती थी। बोली, दादा, तुम्हारी दया से खेती अच्छी हो गयी है, कोई चिन्ता नहीं है।
कई और साधु आ गये जो सुक्खू के साथी जान पड़ते थे। उन्होंने धूनी जलायी और चरस के दम लगाने शुरू किये। गाँव के लोग भी एक-एक करके वहाँ से चलने लगे। जब बिलासी जाने लगी तो सुक्खू ने कहा, बिलासी मैं पहर रात रहे यहाँ से चला जाऊँगा, घूमता-घामता कई महीनों में आऊँगा। तब यहाँ मूर्ति की स्थापना होगी। हम उस यज्ञ के लिए भीख माँग कर रुपये जमा करते हैं। तुम्हें किसी बात की तकलीफ हो तो कहो।
बिलासी– नहीं दादा, तुम्हारी दया से कोई तकलीफ नहीं।
सूक्खू तो प्रातःकाल चले गये,पर बिलासी पर उनकी भावनापूर्ण बातों का गहरा असर पड़ा। अब वह किसी दलित दीन की भांति गाँववालों के व्यंग्य और लांछन न सुनती और न किसी को उस पर उतनी निर्भयता से आक्षेप करने का साहस ही होता था। इतना ही नहीं, बिलासी की बातचीत, चाल-ढाल से अब आत्म-गौरव टपकता था। कभी-कभी वह बढ़ कर बातें करने लगती, पड़ोसियों से कहती– लाज बेचकर अपनी चमड़ी को बचाओ, यहाँ इज्जत के पीछे जानें तक दे देते हैं। मैं विधवा हो गयी तो क्या, घर सत्यानाश हुआ तो क्या, किसी के सामने आँख तो नीची नहीं हुई। अपनी लाज तो रक्खी। पति की मृत्यु और पुत्र का वियोग अब उतना असह्य न था।
एक दिन उसने इतनी डींग मारी कि उसकी बहू से न रहा गया। चिढ़ कर बोली– अम्माँ ऐसी बातें करके घाव पर नमक न छिड़को। तुम सब सुख-विलास कर चुकी हो, अब विधवा हो गयी तो क्या? उन दुखियारियों से पूछो जिनकी अभी पहाड़-सी उमर पड़ी है, जिन्होंने अभी जिन्दगी का कुछ सुख नहीं जाना है। अपनी मरजाद सबको प्यारी होती है, पर उसके लिए जनम-भर का रँड़ापा सहना कठिन है। तुम्हें क्या, आज नहीं कल राँड़ होतीं! तुम्हारे भी खेलने-खाने के दिन होते तो देखती कि अपनी लाज को कितनी प्यारी समझती हो।
बिलासी तिलमिला उठी। उस दिन से बहू से बोलना छोड़ दिया, यहाँ तक कि बलराज की भी चर्चा न करती। जिस पुत्र पर जान देती थी, उसके नाम से भी घृणा करने लगी। बहू के इन अरुचिकर शब्दों ने उसके मातृ-स्नेह का अन्त कर दिया, जो २५ साल के जीवन का अवलम्बन और आधार बना हुआ था। कुछ दिनों तक तो उसने मौन रूप से अपना कोप प्रकट किया, किन्तु जब यह प्रयोग सफल होता दिखायी न पड़ा तो उसने बहू की निन्दा करनी शुरू की। गाँव में कितनी ही ऐसी वृद्धा महिलाएँ थीं जो अपनी बहुओं से जला करती थीं। उन्हें बिलासी से सहानुभूति हो गयी। शनैःशनैः यह कैफियत हुई कि बिलासी के बरोठे में सासों की नित्य बैठक होती और बहुओं के खूब दुखड़े रोये जाते। उधर बहुओं ने भी अपनी आत्मरक्षा के लिए एक सभा स्थापित की। इसकी बैठक नित्य दुखरन भगत के घर होती। बिलासी की बहू इस सभा की संचालिका थी। इस प्रकार दोनों में विरोध बढ़ने लगा। यहाँ की बातें किसी-न-किसी प्रकार वहाँ जा पहुँचती और वहाँ की बातें भी किन्हीं गुप्त दूतों द्वारा आ जातीं। उनके उत्तर दिये जाते, उत्तरों के प्रत्युत्तर मिलते और नित्य यही कार्यक्रम चलता रहता था। इस प्रश्नोत्तर में जो आकर्षण था, वह अपनी विपत्ति और विडम्बना पर आँसू बहाने में कहाँ था? इस व्यंग-संग्राम में एक सजीव आनन्द था। द्वेष की कानाफूसी शायद मधुर गान से भी अधिक शोकहारी होती है।
यहाँ तो यह हाल था, उधर फसल खेतों में सूख रही थी। मियाँ फैजुल्लाह सूखे को देख कर खिल जाते थे। देखते-देखते चैत का महीना आ गया। मालगुजारी का तकाजा होने लगा। गाँव के बचे हुए लोग अब चेते। वह भूल से गये थे कि मालगुजारी भी देनी है। दरिद्रता में मनुष्य प्रायः भाग्य पर आश्रित हो जाता है। फैजुल्लाह ने सख्ती करनी शुरू की। किसी को चौपाल के सामने धूप में खड़ा करते किसी को मुश्कें कस कर पिटवाते। दीन नारियों के साथ और भी पाशविक व्यवहार किया जाता। किसी की चूड़ियाँ तोड़ी जातीं, किसी के जूड़े नोचे जाते! इन अत्याचारों को रोकनेवाला अब कौन था? सत्याग्रह में अन्याय को दमन करने की शक्ति है, यह सिद्धान्त भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध हो गया। फैजू जानता था कि पत्थर दबाने से तेल न निकलेगा। लेकिन इन अत्याचारों से उसका उद्देश्य गाँववालों का मान-मर्दन करना था। इन दुष्कृत्यों से उसकी पशुवृत्ति को असीम आनन्द मिलता था।
धीरे-धीरे जेठ भी गुजरा, लेकिन लगान की एक कौड़ी न वसूल हुई। खेत में अनाज होता तो कोई न कोई महाजन खड़ा हो जाता, लेकिन सूखी खेती को कौन पूछता है? अन्त में ज्ञानशंकर ने बेदखली दायर करने की ठान ली। इसी की देरी थी नालिश हो गयी, किन्तु गाँव में रुपयों का बन्दोबस्त न हो सका। उज्रदारी करने वाला भी कोई न निकला। सबको विश्वास था कि एकतरफा डिग्री होगी और सब के सब बेदखल हो जायेंगे। फैजू और कर्तार बगलें बजाते फिरते थे। अब मैदान मार लिया है। खाँ साहब गये तो क्या, गाँव साफ हो गया। कोई दाखिलकार असामी रहेगा ही नहीं, जितनी चाहें जमीन की दर बढ़ा सकते हैं। हजार की जगह दो हजार वसूल होंगे। इस कारगुजारी का सेहरा मेरे सिर बँधेगा। दूर-दूर तक मेरी धूम हो जायगी। इन कल्पनाओं से फैजू मियाँ फूलें नहीं समाते थे।
निदान फैसले की तारीख आ गयी। कर्तारसिंह ने मलमल का ढीला कुरता और गुलाबी पगड़ी निकाली, जूते में कड़वा तेल भरा, लाठी में तेल मला, बाल बनवाये और माथे पर भभूत लगायी। फैजुल्लाह खाँ ने चारजामे की मरम्मत करायी, अपनी काली अचकन और सफेद पगड़ी निकाली। बिन्दा महाराज ने भी धुली हुई गाढ़े की मिर्जई और गेरू में रँगी हुई धोती पहनी। बेगारों के सिरों पर कम्बल, टाट आदि लादे गये और तीनों आदमी कचहरी चलने को तैयार हुए। केवल खाँ साहब की नमाज की देर थी।
किन्तु गाँव में जरा भी हलचल न थी। मर्दों में कादिर के छोटे लड़के के सिवा और सभी नीच जातियों के लोग थे, जिन्हें मान- अपमान का ज्ञान ही न था; और वह बेचारा कानूनी बातों से अनभिज्ञ था। झपट के दिल में ऐसा हौल समाया हुआ था कि घर से बाहर ही न निकलते थे। रही स्त्रियाँ वे दीन अबलाएँ कानून का मर्म क्या जानें! आज भी नियमानुसर उनके दोनों अखाड़े जमे हुए थे। बूढ़ियाँ कहती थीं, खेत निकल जायें, हमारी बला से, हमें क्या करना है? आज मरे कल दूसरा दिन। रहे भई तो हमारे किस काम आयेंगे? इन रानियों का घमंड तो चूर हो जायेगा! यहाँ तक कि विलासी भी जो इस सारी विपत्ति-कथा की कैकेयी थी, आज निश्चित बैठी हुई थी। विपक्षी दल को आज सन्धि-प्रार्थना की इच्छा हो रही थी, लेकिन कुछ तो अभिमान और कुछ प्रार्थना की स्वीकृति की निराशा इच्छा को व्यक्त न होने देती थी।
आठ बजे खाँ साहब की नमाज पूरी हुई। इधर विन्दा महाराज ने चबेना खा कर तम्बाकू फाँका और कर्तारसिंह ने घोड़े को लाने का हुक्म दिया कि इतने में सुक्खू चौधरी सामने से आते दिखाई दिये। वही पहले का-सा वेश था, सिर पर कन्टोप, ललाट पर चन्दन, गले में चादर, हाथ में एक चिपटा। आकर चौपाल में जमीन पर बैठ गये। गाँव के लड़के जो उनके साथ दौड़ते आये थे। बाहर ही रुक गये। फैजू ने पूछा, चौधरी कहो, खैरयित से तो रहे? तुम्हें जेल से निकले कितना अरसा हुआ।
चौधरी ने कर्तार से चिलम ली, एक लम्बा दम लगाया। और मुँह से धुएँ को निकालते हुए बोले, आज बेदखली की तारीख है न।
कर्तार-कागद-पत्तर देखा जाय तो जान पड़े। यहाँ नित एक न एक मामला लगा ही रहता है। कहाँ तक कोई याद रखे।
चौधरी– बेचारों पर एक विपत्ति तो थी ही, यह एक और बला सवार हो गयी।
फैजू– मैं मजबूर हो गया। क्या करता? जाब्ते और कानून से बँध हुआ हूँ। चैत, बैशाख, जेठ– तीन महीने तक तकाजे करता रहा, इससे ज्यादा मेरे बस में और क्या था।
यह कहकर उन्होंने चौधरी की ओर इस अन्दाज से देखा, मानों वह शील और दया के पुतले हैं।
चौधरी– अगर आज सब रुपये वसूल हो जायें तो मुकदमा खारिज हो जायगा न?
फैजू ने विस्मित हो कर चौधरी को देखा और बोले, खर्चे का सवाल है।
चौधरी– अच्छा, बतलाइए आपके कुल कितने रुपये होते हैं? खर्च भी जोड़ लीजिए। कुछ रुपये भी निकाले और खाँ साहब की ओर परीक्षा भाव से देखने लगे। फैजू के होश उड़ गये, कर्तार के चेहरे का रंग उड़ गया, मानों घर से किसी के मरने की खबर आ गयी हो। बिन्दा महाराज ने ध्यान से रुपयों को देखा। उन्हें सन्देह हो रहा था कि यह कोई इन्द्रजाल न हो। किसी के मुँह से बात न निकलती थी। जिस आशालता को बरसों से पाल और सींच रहे थे वहाँ आँख के सामने एक पशु के विकराल मुख का ग्रास बनी जाती थी। इस अवसर के लिए उन लोगों ने कितनी आयोजनाएँ की थीं, कितनी कूटनीति से काम लिया था, कितने अत्याचार किए थे! और जब वह शुभ घड़ी आयी तो निर्दय भाग्य-विधाता उसे हाथों से छीन लेता था। गौस खाँ का खून रंग ला कर अब निष्फल हुआ जाता था। आखिर फैजू ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, इसका फैसला तो अब अदालत के हाथ है।
अदालत का नाम लेकर वह चौधरी को भयभीत करना चाहते थे।
चौधरी– अच्छी बात है तो वहीं चलो।
कर्तार ने नैतिक सर्वज्ञता के भाव से कहा, पहले ये लोग मोहलत की दर्खास्त दें, उस दर्खास्त पर हमारी तरफ से उजरदारी होगी, इस पर हाकिम जो कुछ तजवीज करेगा वह होगा। हम लोग रुपये कैसे ले सकते हैं? जाब्ते के खिलाफ है।
बिन्दा महाराज के सम्मुख एक दूसरी समस्या उपस्थित थी– इसे इतने रुपये कहाँ मिल गये? अभी जेल से छूट कर आया है। गाँव वालों से फूटी कौड़ी भी न मिली होगी। इसके पास जो लेई-पूँजी थी। वह तालाब और मन्दिर बनवाने में खर्च हो गयी। अवश्य उसे कोई जड़ी-बूटी हाथ लग गई है, जिससे वह रुपये बना लेता है। साधुओं के हाथ में बड़े-बड़े करतब होते हैं।
फैजू समझ गये कि इस धाँधली से काम न चलेगा। कहीं इसने अदालत के सामन जाकर सब रुपये गिन दिये तो अपना-सा मुँह ले कर जाना पड़ेगा। निराश हो कर जूते उतार दिये और नालिश की पर्तें निकाल कर हिसाब जोड़ने लगे, उस पर अदालत का खर्च, अमलों की रिसवत वकील का हिसाब, मेहनताना, ज़मींदार का नजराना आदि और बढ़ाया तब बोले, कुल १७५० रुपये होते हैं।
चौधरी– फिर देख लीजिए, कोई रकम रह न गयी हो। मगर यह समझ लेना कि हिसाब से एक कौड़ी भी बेशी ली तो तुम्हारा भला न होगा?
बिन्दा महाराज ने सशंक हो कर कहा, खाँ साहब जरा फिर जोड़ लो।
कर्तार– सब जोड़ा-जोड़ाया है, रात-दिन यही किया करते हैं, लाओ निकालो १७५०)।
चौधरी– १७५०) लेना है तो अदालत में ही लेना, यहाँ तो मैं १००० रुपये से बेसी न दूँगा।
फैजू– और अदालत का खर्च?
सहसा चौधरी ने अपना चिमटा उठाया और इतने जोर से फैजुल्लाह के सिर पर मारा कि वह जमीन पर गिर पड़ा। तब बोले, यही अदालत का खर्च है, जी चाहें और ले लो। बेईमान, पापी कहीं का! कारिन्दा बना फिरता है। कल का बनिया आज का सेठ! इतनी जल्दी आँखों में चरबी छा गयी। तू भी तो किसी ज़मींदार का असामी है। तेरा घर देख आया हूँ। तेरे माँ-बाप, भाई-बन्द सबका हाल देख आया हूँ। वहाँ उन सब का बेगार भरते-भरते कचूमर निकल जाया करता है। तूने चार अक्षर पढ़ लिये तो जमीन पर पाँव नहीं रखता। दीन-दुखियों को लूटता फिरता है। ८००० रुपये की नालिश है, १००) अदालत का खरच है। मैं कचहरी जाकर पेशकार से पूछ आया। उसके तू १७५०) माँगता है! और क्यों रे ठाकुर तू भी इस तुरक के साथ पड़ कर अपने को भूल गया? चिल्ला-चिल्ला कर रामायण पढ़ता है, भागवत की कथा कहता है, ईट-पत्थर के देवता बना कर पूजता है। क्या पत्थर पूजते-पूजते तेरा हृदय भी पत्थर हो गया? यह चन्दन क्यों लगाता है? तुझे इसका क्या अधिकार है? तू धन के पीछे धरम को भूल गया? तुझे धन चाहिए? तेरे भाग्य में धन लिखा है तो यह थैली उठा ले। (यह कह कर चौधरी ने रुपयों की थैली कर्तार की ओर फेंकी) देख तो मेरे भाग्य में धन है या नहीं? तेरा मन इतना पापी हो गया है कि तू सोना भी छुए तो मिट्टी हो जायगा। थैली छू कर देख ले, अभी ठीकरी हुई जाती है।
कर्तार ने पहले बड़े धृष्ट अश्रद्धा के साथ बातें करना शुरू की थीं। वह यह दिखाना चाहता था, मैं साधुओं का भेष देख कर रोब में आने वाला आदमी नहीं हूँ, ऐसे भोले-भोले काठ के उल्लू कहीं और होंगे। पर चौधरी की यह हिम्मत देखकर और यह कठोपदेश सुनकर उसकी अभक्ति लुप्त हो गयी। उसे अब ज्ञान हुआ कि यह वह चौधरी नहीं है जो गौस खाँ की हाँ-में-हाँ मिलाया करता था, किन्तु बिना परीक्षा किए वह अब भी भक्ति-सूत्र में न बँधना चाहता था, यहाँ तक कि वह उसकी सिद्घि का परदा खोलकर उनकी खबर लेने पर उतारू था। उसने थैली को ध्यान से देखा, रुपयों से भरी हुई थी। तब उसने डरते-डरते थैली उठायी, किन्तु उसके छूते ही एक अत्यन्त विस्मयकारी दृश्य दिखायी दिया। रुपये ठीकरे हो गये! यह कोई मायालीला थी अथवा कोई जादू या सिद्धि कौन कह सकता है। मदारी का खेल था या नजरबन्दी का तमाशा, चौधरी ही जाने। रुपये की जगह साफ लाल-लाल ठीकरे झलक रहे थे। कर्तार के हाथ से थैली छूट कर गिर पड़ी। वह हाथ बाँध कर बड़े भक्ति-भाव से चौधरी के पैरों पर गिर पड़ा। और बोला, बाबा मेरा अपराध क्षमा कीजिए मैं अधम, पापी दुष्ट हूँ, मेरा उद्धार कीजिए। मैं अब आपकी ही सेवा में रहूँगा, मुझे इस लोभ के गड्ढे से निकालिए।
चौधरी– दीनों पर दया करो और वही पुण्य तुम्हें गड्ढे से निकालेगा। दया ही सब मन्त्रों का मूल है।
फैजू मियाँ गर्द झाड़ कर उठ बैठे थे। वृद्ध दुर्बल चौधरी उस समय उनकी आँखों में एक देव-सा दीख पड़ता था। यह चमत्कार देख कर वह भी दंग रह गये। अपनी खता माफ कराने लगे– बाबा जी क्या करें! जंजाल में फँस कर सभी कुछ करना पड़ता है। अहलकार, अमले, अफसर, अर्दली, चपरासी सभी की खातिर करनी पड़ती है। अगर यह चालें न चलें तो उनका पेट कैसे भरें? वहाँ एक दिन भी निबाह न हो। अब मुझे भी गुलामी में कबूल कीजिए।
कर्तार ने चिलम पर चरस रख कर चौधरी को दी। बिन्दा महाराज का संशय भी मिट चुका था। बोले, कुछ जलपान की इच्छा हो तो शर्बत बनाऊँ। फैजुल्लाह ने उनके बैठने को अपना कालीन बिछा दिया। चौधरी प्रसन्न हो गये। अपनी झोली से एक जड़ी निकाल कर दी और कहा, यह मिर्गी की आजमायी हुई दवा है। जनम की मिर्गी भी इससे जाती रहती है। इसे हिफाजत से रखना और देखो, आज ही मुकदमा उठा लेना। यह एक हजार के नोट हैं गिन लो। सब असामियों को अलग-अलग बाकी की रसीद दे देना। अब मैं जाता हूँ। कुछ दिनों में फिर आऊँगा।