बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उसके बिना उनका यहाँ जरा भी जी न लगता। सारे दिन अपने कमरे में पड़े कुछ न कुछ सोचते या पढ़ते रहते थे। न कहीं सैर करने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। कृष्णमन्दिर की ओर भूल कर भी न जाते। उन्हें बार-बार यही पछतावा होता कि मैंने गायत्री को बनारस जाने से क्यों नहीं रोका? यह सब उसी भूल का फल है। श्रद्धा, प्रेमशंकर और बड़ी बहू ने यह सारा विष बोया है। उन्होंने गायत्री के कान भरे, मेरी ओर से मन मैला किया। कभी-कभी उन्हें उदभ्रान्त वासनाओं पर भी क्रोध आता और वह इस नैराश्य में प्रारब्ध के कायल हो जाते थे। हरि-इच्छा भी अवश्य कोई प्रबल वस्तु है, नहीं तो क्या मेरे सारे खेल यों बिगड़ जाते? कोई चाल सीधी ही न पड़ती? धन लालसा ने मुझसे क्या-क्या नहीं कराया? मैंने अपनी आत्मा की, कर्म की, नियमों की हत्या की और एक सती-साध्वी स्त्री के खून से अपने हाथों को रंगा, पर प्रारब्ध पर विजय न पा सका। अभीष्ट का मार्ग अवश्य दिखाई दे रहा है, पर मालूम नहीं वहाँ तक पहुँचना नसीब होगा या नहीं। इस क्षोभ और नैराश्य की दशा में उन्हें बार-बार गायत्री की याद आती, उसकी प्रतिभा-मू्र्ति आँखों में फिरा करती, अनुराग में डूबी हुई उसकी बातें कानों में गूँजने लगती, हृदय से एक ठंडी आह निकल जाती।
ज्ञानशंकर को अब नित्य यह धड़का लगा रहता था कि कहीं गायत्री मुझे अलग न कर दे। वह चिट्ठियाँ खोलते डरते थे कि कहीं गायत्री का कोई पत्र न निकल आये। उन्होंने उसको कई पत्र लिखे थे, पर उससे उन्हें शान्ति न मिलती थी। बनारस में क्या हो रहा है जानने के लिए वह व्यग्र रहते थे, पर ऐसा कोई न था जो वहाँ के समाचार विस्तारपूर्वक उनको लिखता। कभी-कभी वह स्वयं बनारस जाने का विचार करते, लेकिन डरते कि न जाने इसका क्या नतीजा हो। यहाँ तो उसकी आँखों से दूर पड़ा हूँ, सम्भव है कि कुछ दिनों में उसका क्रोध शान्त हो जाय। मुझे देखकर वह कहीं और भी अप्रसन्न हो जाय तो रही-सही आशा भी जाती रहे।
इस भाँति तीन-चार महीने बीत गये। भादों का महीना था। जन्माष्टमी आ रही थी। शहर में उत्सव मनाने की तैयारी हो रही थी। कई वर्षों से गायत्री के यहाँ उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। दूर-दूर से गवैये आते थे, रास-लीला की मंडलियाँ बुलायी जाती थीं, रईसों और हाकिमों को दावत दी जाती थी। ज्ञानशंकर ने समझा, गायत्री को यहाँ बुलाने का यह बहुत ही अच्छा बहाना है। एक लम्बा पत्र लिखा और बड़े आग्रह के साथ उसे बुलाया। कृष्णमन्दिर की सजावट होने लगी, लेकिन तीसरे ही दिन जवाब आया, मेरे यहाँ जन्माष्टमी न होगी, कोई तैयारी न की जाय। यह शोक का साल है, मैं किसी प्रकार का आनन्दोत्सव नहीं कर सकती, चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो। ज्ञानशंकर के हृदय पर बिजली सी गिर गयी! समझ गये कि यहाँ से विदा होने के दिन निकट आ गये। नैराग्य का रंग और भी गहरा हो गया। शंका ने ऐसा रूप धारण किया कि डाकिये की सूरत देखते ही उनकी छाती धड़-धड़ करने लगती थी। किसी बग्धी या मोटर की आवाज सुन कर सिर में चक्कर आ जाता था, गायत्री न हो। रात और दिन में बनारस से चार गाड़ियाँ आती थीं। यह ज्ञानशंकर के लिए कठिन परीक्षा की घड़ियाँ थीं। गाड़ियों के आने के समय उनकी नींद आप ही आप खुल जाती थी। चार दिन तक उनकी यह हालत रही। पाँचवें दिन की डाक से गायत्री की रजिस्टरी चिट्ठी आयी। शिरनामा देखते ही ज्ञानशंकर के पाँव तले से जमीन सरक गयी। निश्चय हो गया कि यह मुझे हटाने का परवाना है, नहीं तो रजिस्टरी चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत थी? काँपते हुए हाथों से पत्र खोला। लिखा था– मैं आज बद्रीनाथ जा रही हूँ। आप सावधानी से रियासत का प्रबन्ध करते रहियेगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है, इसी भरोसे ने मुझे यह यात्रा करने पर उत्साहित किया है। इसके बाद वह आदेश था जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है। ज्ञानशंकर का चित्त कुछ शान्त हुआ। लिफाफा रख दिया सोचने लगे, बात वही हुई जो वह चाहते थे। गायत्री सब कुछ उनके सिर छोड़कर चली गयी। यात्रा कठिन है, रास्ता दुर्गम है, पानी खराब है, इन विचारों ने उन्हें जरा देर के लिए चिन्ता में डाल दिया। कौन जानता है क्या हो। वह इतने व्याकुल हुए कि एक बार जी में आया क्यों न मैं भी बद्रीनाथ चलूँ? रास्ते में भेंट हो जायेगी। वहाँ तो उसके कोई कान भरनेवाला न होगा सम्भव है मैं अपना खोया हुआ विश्वास फिर जमा लूँ, प्रेम के बुझे हुए दीपक को फिर जला दूँ, इस सन्दिग्ध दशा का अन्त हो जाय। गायत्री के बिना अब उन्हें कुछ सूना मालूम होता था। यह विपुल सम्पति अगर सुख-सरिता थी तो गायत्री उसकी नौका थी। नौका के बिन जलविहार का आनन्द कहाँ? पर थोड़ी देर में उनका यह आवेग शान्त हो गया। सोचा, अभी वह मुझसे भरी बैठी है, मुझे देखते ही जल जायेगी। मेरी ओर से उसका चित्त कितना कठोर हो गया है। माया को मुझसे छीन लेती है। अपने विचार में उसने मुझे कड़े से कड़ा दंड दिया है। ऐसी दशा में मेरे लिए सबसे सुलभ यही है कि अपनी स्वामिभक्ति से, सुप्रबन्ध से, प्रजा-हित से, उसे प्रसन्न करूँ। प्रेमशंकर ने अच्छा निशाना मारा। बगुला भगत है, बैठे-बैठे दो हजार रुपये मासिक की जागीर बना ली। बेचारा माया कहीं का न रहा। प्रेमशंकर उसे कुशल कृषक बना देंगे, लेकिन चतुर इलाकेदार नहीं बना सकते। उन्हें खबर ही नहीं कि रईसों की कैसी शिक्षा होनी चाहिए। खैर, जो कुछ हो, मेरी स्थिति उतनी शोचनीय नहीं है जितना मैं समझता था।
ज्ञानशंकर ने अभी तक दूसरी चिट्ठियाँ न खोली थीं। अपने चित्त को यों समझा कर उन्होंने दूसरा लिफाफा उठाया तो राय साहब का पत्र था। उनके विषय में ज्ञानशंकर को केवल इतना ही मालूम था कि विद्या के देहान्त के बाद वह अपनी दवा कराने के लिए मंसूरी चले गये हैं। पत्र खोलकर पढ़ने लगे–
बाबू ज्ञानशंकर, आशीर्वाद। दो-एक महीने पहले मेरे मुँह से तुम्हारे प्रति आशीर्वाद का शब्द न निकलता, किन्तु अब मेरे मन की वह दशा नहीं है। ऋषियों का वचन है कि बुराई से भलाई पैदा होती है। मेरे हक में यह वचन अक्षरशः चरितार्थ हुआ। तुम मेरे शत्रु हो कर परम मित्र निकले। तुम्हारी बदौलत मुझे आज यह शुभ अवसर मिला। मैं अपनी दवा कराने के लिए मंसूरी आया, लेकिन यहाँ मुझे वह वस्तु मिल गयी जिस पर मैं ऐसे सैकड़ों जीवन न्योछावर कर सकता हूँ। मैं भोग-विलास का भक्त था। मेरे समस्त प्रवृत्तियाँ जीवन का सुख भोगने में लिप्त थीं। लोक-परलोक की चिन्ताओं को मैं अपने पास न आते देता था। यहाँ मुझे एक दिव्य आत्मा के सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हो गया और अब मुझे यह ज्ञात हो रहा है कि मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया। मैंने योग का अभ्यास किया, शिव और शक्ति की आराधना की, अपनी आकर्षण-शक्ति को बढ़ाया यहाँ तक कि मेरी आत्मा विद्युत का भंडार हो गयी, पर इन सारी क्रियाओं का उद्देश्य केवल वासनाओं की तृत्ति थी। कभी-कभी भोग के आनन्द में मग्न होकर मैं समझता था यही आत्मिक शान्ति है, पर अब ज्ञात हो रहा है कि मैं भ्रम-जाल में फँसा हुआ था! उसी अज्ञान की दशा में अपने को आत्मज्ञानी समझता हुआ मैं संसार में प्रस्थान कर जाता, लेकिन तुमने वैद्य की तलाश में घर से बाहर निकाला और दैवयोग से शारीरिक रोग के वैद्य की जगह मुझे आत्मिक रोगों का वैद्य मिल गया। मेरे हृदय से तुम्हारे कल्याण की प्रार्थना निकलती है, लेकिन याद रखो, मेरी शुभ कामनाओं से तुम्हारा जितना हित होगा उससे कहीं ज्यादा अहित गायत्री की ठंडी साँसों से होगा। विद्या के आत्मघात ने उसे सचेत कर दिया है। ऐसी दशा में अन्य स्त्रियाँ प्रसन्न होतीं, लेकिन गायत्री की आत्मा सम्पूर्णतः निर्जीव नहीं हुई थी। उसने तुम्हारे मन्त्र को विफल कर दिया। तुम्हारा अन्तः करण अब गायत्री के लिए खुला हुआ पृष्ठ है। तुम उसकी शापाग्नि से किसी तरह बच नहीं सकते। तुम्हें जल्द अपनी तृष्णाओं को साथ लिये ही संसार से जाना पड़ेगा। अतएव मुनासिब है कि तुम अपने जीवन के गिने-गिनाये दिन आत्म-शुद्धि में व्यतीत करो। तुम्हारे कल्याण का यही मार्ग है। मैं अपनी कुल जायदाद मायाशंकर को देता हूँ। वह होनहार बालक है और कुल को उज्ज्वल करेगा। उसके वयस्कत्व तक तुम रियायत का प्रबन्ध करते रहो। मुझे अब उससे कोई प्रयोजन नहीं है।
यह पत्र पढ़कर ज्ञानशंकर के मन में हर्ष की जगह एक अव्यक्त शंका उत्पन्न हुई। वह भविष्यवाणी के कायल न थे, लेकिन ऐसे पुरुष के मुँह से अनिष्ट की बातें सुनकर जिसके त्याग ने उसके आत्मज्ञानी होने में कोई सन्देह न रखा हो, उनका हृदय कातर हो गया। इस समय उनके जीवन की चिर-संचित अभिलाषा पूरी हुई थी। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी जल्द राय साहब की विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। नहीं, वह उसकी ओर से निराश हो चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि राय साहब उसे ट्रस्ट के हवाले कर जायेंगे। यह सब शंकाएँ मिथ्या निकलीं। लेकिन तिस पर भी इस पत्र से उन्हें वही दुश्शंका हुई जो किसी स्त्री को अपनी दाईं आँखें फड़कने से होती है। उनकी दशा इस समय उस मनुष्य की सी थी जिसे डाकुओं की कैद में मिठाइयाँ खाने को मिले! सूखे ठूँठ का कुसुमित होना किसे आशंकित नहीं कर देगा? वह एक घंटे तक चिन्ता में डूबे रहे। इसके बाद वह कृष्णमन्दिर में गये और बड़े
उत्साह से जन्माष्टमी के उत्सव की तैयारियाँ करने लगे।
ज्ञानशंकर के जीवनाभिनय में अब से एक नये दृश्य का सूत्रपात हुआ, पहले से कहीं ज्यादा शुभ्र, मंजु और सुखद। अभी दस मिनट पहले उनकी आशा-नौका मँझधार में पड़ी चक्कर खा रही थी, पर देखते-देखते लहरें शान्त हो गयीं। वायु अनुकूल हो गयी और नौका तट पर आ पहुँची, जहाँ दृष्टि की परम सीमा के निधियों का भव्य विस्तृत उपवन लहरा रहा था।