श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध से ज्ञानशंकर को कोई हानि न हो सकती थी।
ज्ञानशंकर ने निश्चय किया कि इस विषय में मुझे हाथ-पैर हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। सारी व्यवस्था मेरे इच्छानुकूल है। थानेदार स्वार्थवश इस मामले को बढ़ायेगा, सारे गाँव को फँसाने की चेष्टा करेगा और उसका सफल होना असन्दिग्ध है गाँव में कितनी ही एका हो, पर कोई-न-कोई मुखबिर निकल ही आयेगा। थानेदार ने लखनपुर के जमींदारी दफ्तर की जाँच-पड़ताल अवश्य ही की होगी। वहाँ मेरे ऐसे दो-चार पत्र अवश्य ही निकल आयेंगे जिनसे गाँववालों के साथ भाई-साहब की सहानुभूति और सदिच्छा सिद्ध हो सके। मैंने अपने कई पत्रों में गौस खाँ को लिखा है कि भाई साहब का यह व्यवहार मुझे पसन्द नहीं। हाँ, एक बात हो सकती है, सम्भव है कि गाँववाले रिश्वत देकर अपना गला छुड़ा लें और थानेदार अकेले मनोहर का चालान करे। लेकिन ऐसे संगीन मामले में थानेदार को इतना साहस नहीं हो सकता। वह यथासाध्य इस घटना को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करेगा। भाई साहब से अधिकारी वर्ग उनके निर्भय लोकवाद के कारण पहले से ही बदगुमान हो रहे हैं। सब-इन्स्पेक्टर उन्हें इस षड्यन्त्र का प्रेरक साबित करके अपना रंग जरूर जमायेगा। अभियोग सफल हो गया तो उसकी तरक्की भी होगी, पारितोषिक भी मिलेगा। गाँववाले कोई बड़ी रकम देने की सामर्थ्य नहीं रखते और थानेदार छोटी रकम के लिए अपनी आशाओं की मिट्टी में न मिलायेगा। बन्धु-विरोध का विचार मिथ्या है। संसार में सब अपने लिए जीते और मरते हैं, भावुकता के फेर में पड़कर अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारना हास्यजनक है।
ज्ञानशंकर का अनुमान अक्षरशः सत्य निकला। लखनपुर के प्रायः सभी बालिग आदमियों का चालान हुआ। बिसेसर साह को टैक्स की धमकी ने भेदिया बना दिया। जमींदारी दफ्तर का भी निरीक्षण हुआ। एक सप्ताह पीछे हाजीपुर में प्रेमशंकर की खाना तलाशी हुई और वह हिरासत में ले लिए गये।
सन्ध्या का समय था। ज्ञानशंकर मुन्नू को साथ लिये हवा खाने जा रहे थे कि डॉक्टर इर्फान ने यह समाचार कहा। ज्ञानशंकर के रोयें खड़े हो गये और आँखों में आँसू भर आये। एक क्षण के लिए बन्धु-प्रेम ने क्षुद्र भावों को दबा दिया लेकिन ज्यों ही जमानत का प्रश्न सामने आया, यह आवेग शान्त हो गया। घर में खबर हुई तो कुहराम मच गया। श्रद्धा मूर्छित हो गयी, बड़ी बहू तसल्ली देने आयीं। मुन्नू भी भीतर चला गया और माँ की गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगा।
प्रेमशंकर शहर से कुछ ऐसे अलग रहते थे कि उनका शहर के बड़े लोगों से बहुत कम परिचय था। वह रईसों से बहुत कम मिलते-जुलते थे। कुछ विद्वज्जनों ने पत्रों में कृषि सम्बन्धी लेख अवश्य देखे थे और उनकी योग्यता के कायल थे, किन्तु उन्हें झक्की समझते थे। उनके सच्चे शुभचिन्तकों में अधिकांश कालेज के नवयुवक, दफ्तरों के कर्मचारी या देहातों के लोग थे। उनके हिरासत में आने की खबर पाते ही हजारों आदमी एकत्र हो गये और प्रेमशंकर के पीछे-पीछे पुलिस स्टेशन तक गये; लेकिन उनमें कोई भी ऐसा न था, जो जमानत देने का प्रयत्न कर सकता।
लाला प्रभाशंकर ने सुना तो उन्मत्त की भाँति दौड़े हुए ज्ञानशंकर के पास जाकर बोले, बेटा, तुमने सुना ही होगा। कुल मर्यादा मिट्टी में मिल गयी। (रोकर) भैया की आत्मा को इस समय कितना दुःख हो रहा होगा। जिस मान-प्रतिष्ठा के लिए हमने जायदादें बर्बाद कर दी वह आज नष्ट हो गयी। हाय! भैया जीवन-पर्यन्त कभी अदालत के द्वार पर नहीं गये। घर में चोरियाँ हुईं, लेकिन कभी थानों में इत्तला तक न की कि तहकीकात होगी और पुलिस दरवाजे पर आयेगी। आज उन्हीं का प्रिय पुत्र...। क्यों बेटा, जमानत न होगी?
ज्ञानशंकर इस कातर अधीरता पर रुष्ट होकर बोले, मालूम नहीं हाकिमों की मर्जी पर है।
प्रभा– तो जाकर हाकिमों से मिलते क्यों नहीं? कुछ तुम्हें भी अपनी इज्जत की फिक्र है या नहीं?
ज्ञान– कहना बहुत आसान है, करना कठिन है।
प्रभा– भैया, कैसी बातें करते हो? यहाँ के हाकिमों में तुम्हारा कितना मान है? बड़े साहब तक तुम्हारी कितनी खातिर करते हैं यह लोग किस दिन काम आयेंगे? क्या इसके लिए कोई दूसरा अवसर आयेगा?
ज्ञान– अगर आपका यह आशय है कि मैं जाकर हाकिमों की खुशामत करूँ, उनसे रियायत की याचना करूँ तो यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं उनके खोदे हुए गढ़े में नहीं गिरना चाहता। मैं किस दावे पर उनकी जमानत कर सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि वह अपनी टेक नहीं छोड़ेंगे और मुझे भी अपने साथ ले डूबेंगे।
प्रभाशंकर ने लम्बी साँस भरकर कहा, हा भगवान! यह भाई भाइयों का हाल है! मुझे मालूम न था कि तुम्हारा हृदय इतना कठोर है। तुम्हारा सगा भाई आफत में पड़ा है और तुम्हारा कलेजा जरा भी नहीं पसीजता। खैर, कोई चिन्ता नहीं अगर मेरी सामर्थ्य से बाहर नहीं है तो मेरे भाई के पुत्र मेरे सामने यों अपमानित न हो पायेगा।
ज्ञानशंकर को अपने चाचा की दयार्द्रता पर क्रोध आ रहा था। वह समझते थे कि केवल मेरी अवहेलना करने के लिए यह इतने प्रगल्भ हो रहे हैं। इनकी इच्छा है कि मुझे भी अधिकारियों की दृष्टि में गिरा दें। लेकिन प्रभाशंकर बनावटी भावों के मनुष्य न थे। वह कुल-प्रतिष्ठा पर अपने प्राण तक समर्पण कर सकते थे। उनमें वह गौरव प्रेम था जो स्वयं उपवास करके आतिथ्य-सत्कार को अपना सौभाग्य समझता था, और जो अब, हा शो! इस देश से लुप्त हो गया है। धन उनके विचार में केवल मान-मर्यादा की रक्षा के लिए था, भोग-विलास और इन्द्रिय सेवा के लिए नहीं। उन्होंने तुरन्त जाकर कपड़े पहने, चोगा पहना, अमामा बाँधा और एक पुराने रईस के वेश में मैजिस्ट्रेट के पास जा पहुँचे। रात के आठ बजे चुके थे, इसकी जरा भी परवाह न की। साहब के सामने उन्होंने जितनी दीनता प्रकट की, जितने विनीत शब्दों में अपनी संकट-कथा सुनायी, जितनी नीच खुशामदकी, जिस भक्ति से हाथ बाँधकर खड़े हो गये, अमामा उतारकर साहब के पैरों पर रख दिया और रोने लगे, अपने कुल-मर्यादा की जो गाथा गायी और उसकी राज-भक्ति के जो प्रमाण दिये उसे एक नव शिक्षित युवक अत्यन्त लज्जा-जनक ही नहीं बल्कि हास्यापद समझता। लेकिन साहब पसीज गये। जमानत ले लेने का वादा किया पर रात हो जाने के कारण उस वक्त कोई कार्रवाही न हो सकी। प्रभाशंकर यहाँ से निराश लौटे। उनकी यह इच्छा कि प्रेमशंकर हिरासत में रात को न रहें पूरी न हो सकी। रात-भर चिन्ता में पड़े हुए करवटें बदलते रहे। भैया की आत्मा को कितना कष्ट हो रहा होगा? कई बार उन्हें ऐसा धोखा हुआ कि भैया द्वार पर खड़े रो रहे हैं। हाय! बेचारे प्रेमशंकर पर क्या बीत रही होगी। तंग अँधेरी दुर्गन्धयुक्त कोठरी में पड़ा होगा, आँखों में आँसू न थमते होंगे इस वक्त उससे कुछ न खाया गया होगा। वहाँ के सिपाही और चौकीदार उसे दिक कर रहे होंगे। मालूम नहीं, पुलिसवाले उसके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं? न जाने उससे क्या कहलाना चाहते हों? इस विभाग में जाकर आदमी पशु हो जाता है। मेरा दयाशंकर कैसा सुशील लड़का था, जब से पुलिस में गया है मिजाज ही और हो गया। अपनी स्त्री तक की बात नहीं पूछता। अगर मुझपर कोई मामला आ पड़े तो मुझसे बिना रिश्वत लिये न रहे। प्रेमशंकर पुलिसवालों की बातों में न आता होगा और वह सब-के-सब उसे और भी कष्ट दे रहे होंगे। भैया इस पर जान देते थे। कितना प्यार करते थे, और आज इसकी यह दशा?
प्रातःकाल प्रभाशंकर फिर मैजिस्ट्रेट के बँगले पर गये। मालूम हुआ कि साहब शिकार खेलने चले गये हैं। वहाँ से पुलिस के सुपरिण्टेण्डेण्ट के पास गये। यह महाशय अभी निद्रा में मग्न थे। उनसे दस बजे के पहले भेंट होने की सम्भावना न थी। बेचारे यहाँ से भी निराश हुए और तीसरे पहर तक बे-दाना, बे-पानी, हैरान-परेशान, इधर-उधर दौड़ते रहे। कभी इस दफ्तर में जाते, कभी उस दफ्तर में। उन्हें आश्चर्य होता था कि दफ्तरों के छोटे कर्मचारों क्यों इतने बेमुरौवत और निर्दय होते हैं। सीधी बात करनी तो दूर रही, खोटी-खरी सुनाने में भी संकोच नहीं करते। अन्त में चार बजे मैजिस्ट्रेट ने जमानत मंजूर की लेकिन हजार- दो-हजार की नहीं पूरे दस हजार की वह भी नकद। प्रभाशंकर का दिल बैठ गया। एक बड़ी साँस लेकर वहाँ से उठे और धीरे-धीरे घर चले, मानों शरीर निर्जीव हो गया है। घर आकर वह चारपाई पर गिर पड़े और सोंचने लगे, दस हजार का प्रबन्ध कैसे करूँ? इतने रुपये मुझे विश्वास पर कौन देगा? तो क्या जायदाद रेहन रख दूँ? हाँ इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। मगर घरवाले किसी तरह राजी न होंगे, घर में लड़ाई ठन जायगी। बहुत देर तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे, भोजन का समय आ पहुँचा। बड़ी बहू बुलाने आयीं। प्रभाशंकर में उनकी ओर विनीत भाव से देखकर कहा, मुझे बिलकुल भूख नहीं है।
बड़ी बहू– कैसी भूख है जो लगती नहीं? कल रात नहीं खाया, दिन को नहीं खाया, क्या इस चिन्ता में प्राण दे दोगे? जिन्हें चिन्ता होनी चाहिए, जो उनका हिस्सा उड़ाते हैं, उनके माथे पर तो बल तक नहीं है और तुम दाना-पानी छोड़े बैठे हो! अपने साथ घर के प्राणियों को भी भूखों मार रहे हो। प्रभाशंकर ने सजल नेत्र होकर कहा, क्या करूँ, मेरी तो भूख-प्यास बन्द हो गयी है, कैसा सुशील, कितना कोमल प्रकृति कितना शान्तचित्त लड़का है। उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने फिर रही है। भोजन कैसे करूँ? विदेश में था तो भूल गये थे, उसे खो बैठे थे, पर खोये रत्न को पाने के बाद उसे चोरों के हाथ में देखकर सब्र नहीं होता।
बड़ी बहू– लड़का तो ऐसा है कि भगवान् सबको दें। बिलकुल वही लड़कपन का स्वभाव है, वही भोलापन, वही मीठी बातें वही प्रेम। देखकर छाती फूल उठती है। घमण्ड तो छू तक नहीं गया। पर दाना-पानी छोड़ने से तो काम न चलेगा चलो कुछ थोड़ा-सा खा लो।
प्रभाशंकर– दस हजार नकद जमानत माँगी गयी है।
बड़ी बहू– ज्ञानू से कहते क्यों नहीं कि मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू। प्रेमू का आधा नफा क्या श्रद्धा के भोजन-वस्त्रों में ही खर्च हो जाता है?
प्रभाशंकर– उससे क्या कहूँ सुने भी? वह पश्चिमी सभ्यता का मारा हुआ है, जो लड़के को बालिग होते ही माता-पिता से अलग कर देती है। उसने वह शिक्षा पायी है जिसका मूल तत्त्व स्वार्थ है। उसमें अब दया, विनय सौजन्य कुछ भी नहीं रहा। वह अब केवल अपनी इच्छाओं का, इन्द्रियों का दास है।
बड़ी बहू– तो तुम इतने रुपये का क्या बन्दोबस्त करोगे?
प्रभाशंकर– क्या कहूँ किसी से ऋण लेना पड़ेगा।
बड़ी बहू– ऐसा जान पड़ता है कि थोड़ा-सा हिस्सा जो बचा हुआ है उसे भी अपने सामने ही ठिकाने लगा दोगे। यह तो कभी नहीं देखा कि जो रुपये एक बार लिये गये वह फिर दिये गये हों। बस, जमीन के ही माथे जाती है।
प्रभाशंकर– जमीन मेरी गुलाम है, मैं जमीन का गुलाम नहीं हूँ।
बड़ी बहू– मैं कर्ज न लेने दूँगी, जाने कैसा पड़े। कैसा न पड़े, अन्त में सब बोझ तो हमारे ही सिर पड़ेगा। लड़कों को कहीं बैठने का ठाँव भी न रहेगा।
प्रभाशंकर ने पत्नी की ओर कठोर दृष्टि से देखकर कहा, मैं तुमसे सलाह नहीं लेता हूँ और न तुमको इसका अधिकारी समझता हूँ। तुम उपकार को भूल जाओ, मैं नहीं भूल सकता। मेरा खून सफेद नहीं है। लड़कों की तकदीर में आराम लिखा होगा आराम करेंगे, तकलीफ लिखी होगी तकलीफ भोगेंगे। मैं उनकी तकदीर नहीं हूँ। आज दयाशंकर पर कोई बात आ पड़े तो गहने बेच डालने में भी किसी को इनकार न होगा। मैं प्रेमू को दयाशंकर से जौ भर भी कम नहीं समझता।
बड़ी बहू ने फिर भोजन करने के लिए अनुरोध किया और प्रभाशंकर फिर नहीं-नहीं करने लगे। अन्त में उसने कहा, आज कद्दू के कबाब बने हैं। मैं जानती कि तुम न खाओगे तो क्यों बनवाती?
प्रभाशंकर की उदासीनता लुप्त हो गयी। उत्सुक होकर बोले, किसने बनाये हैं?
बड़ी बहू– बहू ने।
प्रभा– अच्छा, तो थाली परसाओ। भूख तो नहीं है, पर दो-चार कौर खा ही लूँगा।
भोजन के पश्चात् प्रभाशंकर फिर उसी चिन्ता में मग्न हुए। रुपये कहाँ से लायें? बेचारे प्रेमशंकर को आज फिर हिरासत में रात काटनी पड़ी। बड़ी बहू ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि मैं कर्ज न लेने दूँगी। और यहाँ कर्ज के सिवा और कोई तदवीर न थी। आज लाला जी फिर सारी रात जागते रहे। उन्होंने निश्चय कर लिया कि घरवाले चाहे जितना विरोध करें, पर मैं अपना कर्त्तव्य अवश्य पूरा करूँगा। भोर होते ही वह सेठ दीनानाथ के पास जा पहुँचे और अपनी विपत्ति-कथा कह सुनायी। सेठ जी से उनका पुराना व्यवहार था। उन्हीं की बदौलत सेठ जी ज़मींदार हो गये थे। मामला करने पर राजी हो गये। लिखा-पढ़ी हुई और दस बजते-बजते प्रभाशंकर के हाथों में दस हजार की थैली आ गयी। वह ऐसे प्रसन्न थे मानो कहीं पड़ा हुआ धन मिल गया हो। गद्गद होकर बोले, सेठ जी किन शब्दों में आपका धन्यवाद दूँ, आपने मेरे कुल की मर्यादा रख ली। भैया की आत्मा स्वर्ग में आपका यश गायेगी।
यहाँ से वह सीधे कचहरी गये और जमानत के रुपये दाखिल कर दिए। इस समय उनका हृदय ऐसा प्रफुल्लित था जैसे कोई बालक मेला देखने जा रहा हो। इस कल्पना से उनका कलेजा उछल पड़ता था कि भैया मेरी भक्ति पर कितने मुग्ध हो रहे होंगे!
११ बजे का समय था, मैजिस्ट्रेट के इजलास पर लखनपुर के अभियुक्त हाथों में हथकड़ियाँ पहने खड़े थे। शहर के सहस्रों मनुष्य इन विचित्र जीवधारियों को देखने के लिए एकत्र हो गये थे। सभी मनोहर को एक निगाह देखने के लिए उत्सुक हो रहे थे। कोई उसे धिक्कारता था, कोई कहता था अच्छा किया। अत्याचारियों के साथ ऐसा ही करना चाहिए। सामने एक वृक्ष के नीचे बिलासी मन मारे बैठी हुई थी। बलराज के चेहरे पर निर्भयता झलक रही थी। डपटसिंह और दुखरन भगत चिन्तित दीख पड़ते थे। कादिर खाँ धैर्य की मूर्ति बने हुए थे। लेकिन मनोहर लज्जा और पश्चात्ताप से उद्विग्न हो रहा था। वह अपने साथियों से आँख न मिला सकता था। मेरी ही बदौलत गाँव पर यह आफत आयी है, यह ख्याल उसके चित्त से एक क्षण के लिए भी न उतरता था। अभियुक्तों से जरा हटकर बिसेसर साह खड़े थे– ग्लानि की सजीव मूर्ति बने। पुलिस के कर्मचारी उन्हें इस प्रकार घेरे थे, जैसे किसी मदारी को बालक-वृन्द घेरे रहते हैं। सबसे पीछे प्रेमशंकर थे, गम्भीर और अदम्य। मैजिस्ट्रेट ने सूचना दी– प्रेमशंकर जमानत पर रिहा किये गये।
प्रेमशंकर ने सामने आकर कहा, मैं इस दया-दृष्टि के लिए आपका अनुगृहीत हूँ, लेकिन जब मेरे ये निरपराध भाई बेड़ियाँ पहने खड़े हैं तो मैं उनका साथ छोड़ना उचित नहीं समझता।
अदालत में हजारों ही आदमी खड़े थे। सब लोग प्रेमशंकर को विस्मित हो कर देखने लगे। प्रभाशंकर करुणा से गद्गद होकर बोले, बेटा मुझ पर दया करो। कुछ मेरी दौड़-धूप, कुछ अपनी कुल मर्यादा और कुछ अपने सम्बन्धियों के शाक-विलाप का ध्यान करो। तुम्हारे इस निश्चय से मेरा हृदय फटा जाता है।
प्रेमशंकर ने आँखों में आँसू भरे हुए कहा, चाचा जी, मैं आपके पितृवत प्रेम और सदिच्छा का हृदय से अनुगृहीत हूँ। मुझे आज ज्ञात हुआ कि मानव-हृदय कितना पवित्र कितना उदार, कितना वात्सल्यमय हो सकता है। पर मेरा साथ छूटने से इन बेचारों की हिम्मत टूट जायेगी, ये सब हताश हो जायँगे। इसलिए मेरा इनके साथ रहना परमावश्यक है। मुझे यहाँ कोई कष्ट नहीं है। मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे इन दीनों को तसकीन और तसल्ली देने का अवसर प्रदान किया। मेरी आपसे एक और विनती है। मेरे लिए वकील की जरूरत नहीं है। मैं अपनी निर्दोषिता स्वयं सिद्ध कर सकता हूँ। हाँ, यदि हो सके तो आप इन बेजबानों के लिए कोई वकील ठीक कर लीजिएगा, नहीं तो संभव है कि इनके ऊपर अन्याय हो जाये।
लाला प्रभाशंकर हतोत्साह होकर इजलास के कमरे से बाहर निकल आये।