हिमालय - अदम्य साधना
की सिद्धि का प्रतीक
आज देश भर में एक ही विषय पर सब लोग बात कर रहे हैं –
सुशान्त सिंह मर्डर केस और कँगना रनौत तथा महाराष्ट्र सरकार के बीच वाद विवाद |
सारे समाचार पत्रों और सारे न्यूज़ चैनल्स के पास केवल यही दो विषय अधिकाँश में रह
गए हैं ऐसा जान पड़ता है | इन समाचारों को देखते सुनते पढ़ते मन व्यथित हुआ तो कुछ
अलग विषय पर लिखने का मन बना लिया |
आजकल तो कोरोना के कारण आवागमन अवरुद्ध है | ट्रेन, हवाई
जहाज़ और बसों से यात्रा यद्यपि फिर से आरम्भ हो रही हैं,
लेकिन फिर भी अभी सामाजिक वाहनों अर्थात पब्लिक ट्रांसपोर्ट के द्वारा यात्रा करने
का तो अभी विचार भी नहीं किया जा सकता | साथ ही कहीं जाकर होटल्स में रुकना भी अभी
उचित नहीं प्रतीत होता | अन्यथा तो दिल्ली की गर्मी और भीड़ भाड़ से बचने के लिये
साल में दो तीन बार किसी न किसी पर्वतीय प्रदेश के लिये सपरिवार प्रस्थान कर ही
जाते थे | पर्वतीय प्रदेश सदा से ही मन को लुभाते रहे हैं,
कारण सम्भवतः यही हो सकता है कि उत्तराँचल में ही अधिकाँश समय
व्यतीत हुआ – बचपन में नाते रिश्तेदारों के यहाँ जाने से लेकर युवावस्था में
उत्तराँचल कर्मस्थली भी रहा | पितृ नगर नजीबाबाद भी
उत्तराँचल का द्वार ही है | श्वसुरालय भी उत्तराँचल के एक
विशेष और आकर्षक स्थल ऋषिकेश गंगा मैया के समीप ही है | उत्तराँचल के इस समस्त आवागमन
तथा निवास के मध्य हमें अनुभव हुआ कि यदि ध्यान दें तो पाएँगे कि हिमालय वास्तव
में प्रतीक है हमारी भारतीय संस्कृति का |
भारत की शस्य श्यामला भूमि में जो निसर्गसिद्ध सुषमा है
उस पर भारतीय मनीषियों का अनादि काल से अनुराग रहा है | सामान्यतः
प्रकृति की साधारण वस्तुएँ भी मनुष्य मात्र के लिये आकर्षक होती हैं, परन्तु उसकी सुन्दरतम विभूतियों में मानव-वृत्तियाँ विशेष रूप से रमती हैं
| भारत की हिमाच्छादित शैलमाला की ऊषा की स्वर्णिम एवं
सन्ध्या की रक्तिम सुषमा तथा घनी अमराइयों की छाया में कल कल ध्वनि से बहती हुई
निर्झरिणी एवम् उसकी तीरवर्तिनी की वसन्तश्री के वैभव में ही मंत्रद्रष्टा ऋषि को
मन्त्र द्रष्ट हुए होंगे ऐसा हमें प्रतीत होता है | हमारे
वैदिक ऋषियों को प्रकृति के मनोरम अंक में क्रीड़ा करने का सौभाग्य सुलभ रहा |
हरे भरे उपवनों तथा सुन्दर निर्झरों के तट पर विचरण करते हुए उन्हें
प्रकृति के मनोहारी रूपों का परिचय प्राप्त हुआ होगा और उनके कण्ठों से फूट पड़ी
होंगी सुमधुर वैदिक ऋचाएँ | इन ऋचाओं में अभिव्यक्त
विचारधारा पर ध्यान देने से प्रतीत होता है कि हिमालय उनकी दृष्टि में
द्यावापृथिवी का समन्वित साकार रूप ही प्रकट हुआ होगा | इसी
कारण उन्होंने इसे मात्र भौतिक शक्ति के ही रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया, अपितु उसे एक सचेतन तत्व के रूप में अति-भौतिक शक्ति का पिता स्वीकार किया
| इस प्रकार हिमालय नगराज भी है और देवता भी है | वेदों में हिमालय को कहीं भी भौतिक रूप में स्वायत्त नहीं प्रकट किया है,
उसकी देवता रूप में प्रतिष्ठा है या फिर प्रकृति के अलंकरण के रूप
में | अथर्ववेद में राजा को पर्वत के समान होने का आदेश है :
“ध्रुवाद्यौर्ध्रुवापृथिवी ध्रुवं विश्मिदं जगत् | ध्रुवासः
पर्वता इमे ध्रुवो राष्ट्रा विशामयम् ||”
ऋग्वेद में हिमालय को स्रष्टा की महिमा से उद्भूत बताया
गया है | तथापि मानव प्रकृति का दुलारा शिशु है | उसकी गोदी में पला है | फिर भला उसका प्रभाव उस पर
क्यों न पड़ता ? उसने अनुभव किया कि मेरे पास जो कुछ भी है
वह इस प्रकृति का दान ही है | हिमालय ही के आँगन में आदिम
मानव ने आँखें खोली थीं और वहीँ उसको ज्ञान का प्रकाश मिला था | अतः उसे कहना पड़ा “उपह्वरे गिरीणाम् संगमे च नदीनां धिया विप्रोऽजायत |”
पर्वतों के ढालों, मेखलाओं तथा सरिताओं के पावन संगमों
में ही विद्वानों और ऋषियों की मेधा प्रेरणा से अनुप्राणित हुई | इस विलक्षण एवं रमणीय सौन्दर्यानुभूति से ही ऋषि की मेधा अनुप्राणित हुई
और उसने भाव विभोर होकर उषा, सूर्य, पर्जन्य,
अग्नि, नदी, मरुद्गण,
द्यावापृथिवी के लिये अपनी कोमल और मधुर भावसिक्त वाणी से भाव सुमन
समर्पित किये | इसीलिये वेदों में हिमालय एक पर्वतमात्र नहीं
वरन् मानवता तथा प्रकृति के प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ एवं प्राणी के प्रति
सद्भावना, सहानुभूति, आत्मीयता और वसुधैव
कुटुम्बकं की उदार भावना के प्रतीक के रूप में आया है | और
इसी भावना का विकास आगे पुराणों, उपनिषदों, अरण्यकों और महाकाव्यों में इन शब्दों हुआ है – “पाषाणपि पीयूषं स्पन्दते |”
ब्रह्मपुराण, विष्णुपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण, गरुड़पुराण,
शिवपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण इत्यादि लगभग
सभी पुराणों में इस समाधिस्थ शैलराट का व्यापक वर्णन उपलब्ध होता है | पौराणिक कथाओं में हिमालय प्राकृतिक सौन्दर्य का भण्डार, देवों किन्नरों गन्धर्वों और यक्षों की क्रीड़ास्थली, असुरों और दानवों की विलास एवं संघर्ष भूमि, ऋषियों
मुनियों मनीषियों का साधना क्षेत्र एवं मर्त्य मानव का कर्मक्षेत्र बताया गया है |
यज्ञ के उपकरणों का भण्डार, यज्ञ भूमि का
श्रृंगार और अनमोल रत्नों का भण्डार हिमालय अपनी दिव्यता, भव्यता
एवं विशालता के कारण मानव के मन में सदा से ही जिज्ञासा एवं जिगीषा उत्पन्न करता
रहा है | उपनिषदों के आख्यान और आरण्यकों के व्याख्यान
हिमालय की सुरम्य उपत्यकाओं में ही जन्मे हैं | लौकिक
महाकाव्यों के कथानकों का अनुसन्धान भी इसी हिमालय के प्रांगण में हुआ है |
आदिकाव्यों रामायण और महाभारत से लेकर संस्कृत साहित्य के
श्रृंगारकालीन साहित्य तक में हिमालय समान रूप से वाग्वैभव के लिये उपयुक्त
उपकरणों की प्राप्ति का स्रोत रहा है |
पुराणों में कथा आती है की एक युग में धरती पर अत्यधिक
अत्याचार और अनाचार होने के कारण धरती बंजर हो गई | भू निवासी अन्न जल
के अभाव में पीड़ित हो गए | और स्वर्ग के देवता यज्ञ भाग न
प्राप्त होने के कारण क्षीण, असमर्थ एवं श्रीहीन हो गए |
पृथिवीपति पृथु के समक्ष सबने मिलकर धरती के इस व्यवहार के विरुद्ध
समायोजन प्रस्तुत किया | रजा पृथु ने धरती को बुलाया और
किंचित कठोर मुद्रा में पूछा “तुम धरती माता हो न ?”
“हाँ महाराज हूँ !” धरती ने कहा “किन्तु धराधिप यह
प्रश्न क्यों कर रहे हैं ?”
“क्यों कर रहा हूँ ? क्या तुम
भूलोकवासियों की विपन्नता नहीं देख रही हो ? क्यों तुम्हें
अमरों की क्षीणता और हीनता का आभास नहीं होता ? तुम तो
रत्नगर्भा वसुंधरा हो – कहाँ है तुम्हारी वह रत्नराशि और वसुभण्डार ? क्या अपनी समस्त तृण, लता, वनस्पति
और पुष्कल समृद्धि को उदरसात् करने के लिये ही तुम “धरती माता” बनी हो ?” धरती ने कहा “राजन् ! अनाचार बढ़ता देखकर मैंने समस्त रत्नराशि और औषधियाँ
तथा हरीतिमा आदि अपने उदर में छिपा ली हैं | आप उसे प्राप्त
करना चाहते हैं तो एक ही उपाय है – मैं गोरूप धारण करूँगी | आप
मेरे लिये उपयुक्त बछड़ा खोज करें | अपने वात्सल्य से पिन्हा
कर मैं यह समग्र सामग्री दूध के रूप में प्रस्तुत कर दूँगी |” तब पृथु ने नवीन उत्पन्न हुए पर्वत हिमालय को बछड़ा बनाया और धरती ने उसके
लिये अपना सर्वस्व उंडेल दिया | अतः पुराणों में हिमालय को
धरती का प्रिय वत्स भी कहा गया है – “यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते
दोग्धरि दोहदक्षे | भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च
पृथूपदिष्टाम् दुदुहुर्धरित्रीम् ||”
पुराण की यह कथा हिमालय के आविर्भाव के पश्चात् एक नूतन
सृष्टि,
एक नवीन भू भाग एवं नव्य राष्ट्र की नव्य संस्कृति के विकास की कथा
है जो चिर पुराण है और चिर नवीन भी है | भारत की यही
संस्कृति है – जो आत्मदान की संस्कृति है, पर के लिये स्व के
उत्सर्ग की संस्कृति है | पुराण की कथाएँ हिमालय को उसी
संस्कृति का अग्रदूत सिद्ध करती हैं जो अपने तप और एकनिष्ठ प्रेम से देवशक्तियों
को भी संचालित करने को प्रस्तुत है | दूसरी ओर विष्णुपुराण
में स्वयं विष्णु ने कहा है कि मैंने पर्वतराज हिमालय की सृष्टि यज्ञ के साधन के
लिये की है | भौतिक रूप में ही नहीं, आध्यात्मिक
रूप में भी यज्ञ की अंगभूत सामग्री प्रस्तुत करने वाला एकमात्र हिमालय पर्वत ही है
| सोमलता जैसी यज्ञवल्ली हिमालय में ही उत्पन्न होती है |
इस वल्ली द्वारा स्वयं को निष्पीडित करके, स्व
को उत्सर्ग करके एक भारत के व्यापक चक्र में स्थापित करने का प्रयत्न ही यज्ञ है |
और हिमालय साक्षात् यज्ञरूप है | इसीलिये वह
इस आर्यावर्त का प्रतिनिधि है | आर्यावर्त अर्थात हिमालय और
हिमालय अर्थात आर्यावर्त | इस प्रकार हिमालय भारत की मात्र
पार्थिव समृद्धि का दर्पोन्नत किरीट ही नहीं है, वरन् यह
भारत की आध्यात्मिक, भौतिक एवं सांस्कृतिक प्रगति का प्रकाश
स्तम्भ भी है | यह हमारी अदम्य साधना की सिद्धि का प्रतीक भी
है और हमारे जीवन दर्शन का मूक दर्शक भी है | यह इस देश की
जगद्धात्री शक्ति का पिता भी है और देश का कुल गुरु भी है |