अध्यात्म और मनोविज्ञान
अक्सर लोग वैराग्य के अभ्यास द्वारा मन का निग्रह करके
ईश्वर प्राप्ति की बात करते हैं | यह प्रक्रिया अध्यात्म की प्रक्रिया है | यहाँ
हम बात कर रहे हैं अध्यात्म और मनोविज्ञान के परस्पर सम्बन्ध की | क्या सम्बन्ध है
आपस में अध्यात्म और मनोविज्ञान का ? क्या अध्यात्म के द्वारा मनोवैज्ञानिक
चिकित्सा सम्भव है ? किन परिस्थितियों में मनुष्य भ्रमित हो सकता है ? तो, सबसे
पहले विचार करते हैं कि मनुष्य भ्रमित कब होता है | किन परिस्थितियों में वह उचित
निर्णय नहीं ले पाता |
भय व आतंक के वातावरण में मनुष्य लक्ष्य च्युत हो जाता
है, उसे कर्तव्याकर्तव्य का भान नहीं रहता, और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में कई
बार वह ग़लत निर्णय ले बैठता है | यह भय किसी भी बात का हो सकता है | अक्सर सुनने
में आता है कि प्रेम करने वाले नवविवाहितों को “ऑनर किलिंग” के नाम पर मौत के घाट
उतार दिया गया | कहीं किसी दादी ने अपनी लड़की के सर से भूत का साया उतारने के लिये
अपनी ही पोती की बलि दे दी | कहीं किसी पुत्र ने सम्पत्ति विवाद के चलते अपने माता
पिता को ही मौत की नींद सुला दिया | कहीं विवाहेतर सम्बन्धों के कारण पति अथवा
पत्नी ने अपने जीवन साथी की ही जान ले ली | इनमें ये मनोविकार कहीं समाज के भय अथवा
झूठे अहंकार की पुष्टि हेतु, तो कहीं धर्म के भय से, तो कहीं कुछ छिन जाने के भय से आ
जाते हैं | कुछ लोगों का स्वभाव होता है केवल “मैं” और “मेरा” (जिसे Attention seeking syndrome भी कहा जाता है) के कारण दूसरों को परेशान करना और स्वयं भी उपहास का
पात्र बन जाना |
किन्तु विचारणीय बात यह है कि क्या स्वस्थ मनोवृत्ति वाले
लोग ऐसे कृत्य कर सकते हैं ? वास्तव में ऐसे लोग मानसिक रूप से अस्वस्थ लोग हैं |
किसी न किसी प्रकार की कुंठा से ग्रस्त हैं ये लोग | कहीं कोई एथलीट खेल में प्रथम
आने के लिये नशीली दवाओं का सेवन करता पकड़ा जाता है | यह प्रतिष्ठा का भय है |
धर्म का भय, लोक मर्यादा का भय, जाति अथवा समाज का भय, मान प्रतिष्ठा का भय – किसी
प्रकार का भी भय मनुष्य को विक्षिप्त कर सकता है |
और इन सबसे भी बढ़कर होता है मृत्यु का भय | हम अपने
रास्ते यातायात के नियमों के अनुकूल गाड़ी चला रहे हैं कि अचानक ऐसा होता है कि
किसी दूसरी कार का ड्राइवर बिना आगे पीछे दाएँ बाएँ देखे गाड़ी सड़क पर ले आता है |
उस समय दो ही बातें हो सकती हैं – यदि हममें समझदारी है, साहस है, तो हम सफ़ाई से
अपनी गाड़ी एक ओर को बचाकर निकाल ले जाने का प्रयास करेंगे | इतने पर भी यदि
दुर्घटना घट जाती है तो उसमें हमारा कोई दोष नहीं होगा | किन्तु यदि हममें साहस का
अभाव है और हम आशंकित अथवा भयभीत हो जाते हैं तो हमारी गाड़ी किसी दूसरी गाड़ी से
अवश्य ही टकराएगी और हम अपने साथ साथ दूसरी गाड़ी के ड्राइवर को भी दुर्घटना का
शिकार बना देंगे |
कभी कभी कुछ मन्दबुद्धि लोग सत्ता, धन या पद के दम्भ में
भी लक्ष्यच्युत होकर उल्टे सीधे काम कर बैठते हैं | सत्ता खोने का भी भय मनुष्य को
आतंकित करता रहता है | आतंकित अथवा भयग्रस्त होकर किसी भी प्रकार का अनुचित कार्य
कर बैठना भ्रमित होना है | कहने का तात्पर्य है कि मोहवश, क्रोधवश, लोभवश अथवा
अहंकारवश मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, भ्रमित हो जाता है | अतः इस भ्रम से
मुक्ति पाने के लिये मन से मृत्यु का तथा अन्य किसी भी प्रकार का भय दूर करके,
व्यर्थ के मोह, लोभ, क्रोध अथवा अहंकार से मुक्त होकर लक्ष्यप्राप्ति की ओर अग्रसर
होना आवश्यक है | ज्ञानी पुरुष के साथ यह स्थिति नहीं आती, क्योंकि उसे पूर्ण सत्य
अर्थात जीवन के अन्तिम सत्य का ज्ञान हो जाता है | जिसे यह ज्ञान नहीं होता उसे ही
दिशा निर्देश की आवश्यकता होती है |
यही कार्य श्रीकृष्ण ने किया | अर्जुन ने जब दोनों सेनाओं
में अपने ही प्रियजनों को आमने सामने खड़े देखा तो उनकी मृत्यु से भयाक्रान्त हो
श्री कृष्ण की शरण पहुँचे “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् |” तब
भगवान ने सर्वप्रथम उनके मन से मृत्यु का भय दूर किया | मृत्यु को अवश्यम्भावी,
देह को असत् तथा आत्मा को सत् बताते हुए अर्जुन को लोकमर्यादानुसार धर्ममार्ग पर
चलते हुए लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग बताया | उनका लक्ष्य उन्हें बताया | थोड़ी
फटकार देते हुए उनसे कहा कि जब तू अशोच्य के विषय में शोक करता है तो फिर
बुद्धिमानों की भाँति बातें करने का नाटक क्यों करता है ? तू तो मुझे बिल्कुल
उन्मत्त जान पड़ता है जो मूर्खता और बुद्धिमत्ता इन दोनों परस्पर भावों को एक साथ
दिखा रहा है | जबकि वास्तवकिता तो यह है कि आत्मज्ञानी न तो मृत वस्तुओं के विषय
में शोक करता है और न ही जीवित वस्तुओं के विषय में कुछ सोचता है | जिस प्रकार
शरीर की कौमार, यौवन और जरा ये तीन अवस्थाएँ होती हैं उसी प्रकार एक चौथी अवस्था
भी होती है – देहान्तर प्राप्ति की अवस्था | जिस प्रकार एक अवस्था से दूसरी अवस्था
में प्रवेश करने पर आत्मा न तो मरती है और न ही पुनः उत्पन्न होती है, उसी प्रकार
एक देह की समाप्ति पर आत्मा नष्ट नहीं हो जाती और न ही दूसरी देह में प्रवेश करने
पर उसकी पुनरुत्पत्ति ही होती है – क्योंकि जिसका अन्त ही नहीं हुआ उसकी पुनरुत्पत्ति कैसे
होगी... वह तो अजर अमर शाश्वत सत्य है...
“अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः |
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत !” 2/13 स्वप्न व माया के शरीर
की भाँति ये सब शरीर अन्तवन्त हैं | जबकि आत्मा नित्य और निर्विकार है | अतः आत्मा
को नित्य और निर्विकार मानकर तू युद्ध कर |
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2019/11/16/spirituality-and-psychology/