अध्यात्मपरक मन:चिकित्सा
मनःचिकित्सक अनेक बार अपने रोगियों के साथ सम्मोहन आदि की
क्रिया करते हैं | भगवान को भी अपने एक मरीज़ अर्जुन के मन का विभ्रम दूर करके
उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करना था | अतः जब जब अर्जुन भ्रमित होते – उनके मन
में कोई शंका उत्पन्न होती – भगवान कोई न कोई झटका उन्हें दे देते | यही कारण था
की महाभारत के युद्ध में प्रायः अधिकाँश नियमों को उठाकर ताक पर रख दिया गया था |
क्योंकि उस समय की परिस्थितियों के अनुसार किसी प्रकार भी उस धर्मयुद्ध में विजय
प्राप्त करके समस्त व्यवस्था को सुनियोजित रूप देना ही अर्जुन का लक्ष्य था | उस लक्ष्य
की प्राप्ति के लिये अर्जुन को समत्व बुद्धि अपनानी थी | उसे शत्रु मित्र छोटे बड़े
सबके लिये समान भाव रखते हुए युद्ध में प्रवृत्त होना था | तभी एक ओर जहाँ वह
दुर्योधन तथा दु:शासन आदि कौरवों से युद्ध कर सकता था वहीं भीष्म और द्रोण जैसे
गुरुजनों के साथ युद्ध करने में भी उसका संकोच समाप्त हो सकता था | इसीलिये कृष्ण
ने उसे योग का उपदेश दिया | यही थी अन्तर्मुखी होने की प्रक्रिया – सूक्ष्म
मनोविज्ञान, और इसी से समझ में आ सकता था जीवन का मूल्य |
“नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पम्प्यस्य
धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || गीता - - 2/40”
मनश्चिकित्सक का प्रथम कर्तव्य है रोगी को यथार्थ का
ज्ञान कराना | आरम्भ ही अभिक्रम है – इस कर्मयोग रूप मोक्ष मार्ग में अभिक्रम का
नाश नहीं होता तथा चिकित्सा आदि की भाँति इसमें प्रत्यवाय अर्थात् विपरीत फल नहीं
है | इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मरण रूप महान संसार भय से रक्षा
करता है |
ध्यान योग का बहिरंग साधन कर्म है | अतः जब तक ध्यान योग
पर आरूढ़ होने में समर्थ नहीं तब तक कर्तव्य कर्म अवश्य करते रहना चाहिये | जैसे
जैसे ध्यान योग के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है – मनुष्य के समस्त कर्म
स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं | यद्यपि कर्म कूप तालाब आदि छोटे जलाशयों की भाँति
अल्प फल देने वाले होते हैं – तो भी ज्ञान निष्ठा का अधिकार मिलने से पूर्व कर्म
ही करते रहना चाहिये | साथ ही, न तो कर्मफल में तृष्णा होनी चाहिये और न ही “यदि कर्मफलं न इष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेण |” भाव से कर्म में अनासक्ति ही होनी चाहिये | फलतृष्णा
रहित पुरुषार्थ द्वारा कार्य किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि होकर ज्ञान की
प्राप्ति होती है | अतः सिद्धि असिद्धि में समत्व भाव से कर्म करना चाहिये – समत्वं योग उच्यते | सकाम कर्म करने वाले तो कृपण होते हैं | इसी कृपणता के कारण मनुष्य
विक्षिप्त होता है, भयभीत होता है – यह सोचकर कि उसके किये गए कर्म का फल उसे
मिलेगा भी अथवा नहीं, और मिलेगा तो कितने समय में मिलेगा, कैसा मिलेगा – आदि
आदि... अर्थात् उसमें वणिकबुद्धि आ जाती है | जब बुद्धि इस मोहात्मक अविवेक का
उल्लंघन कर जाती है तब वह बिल्कुल शुद्ध हो जाती है | समाधि में अर्थात् चित्त के
समाधान द्वारा विक्षिप्त हुई बुद्धि अचल और दृढ़ हो जाती है – स्थिर हो जाती है |
अतः यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धि की स्थिरता चाहने वाले को इन्द्रियों को वश में करना
अत्यन्त आवश्यक है | यही है अध्यात्मयुत मनोविज्ञान |
भारतीय जीवन दर्शन – भारतीय मनोविज्ञान – अध्यात्म पर ही
आधारित है | भारतीय जन मानस में एक ही आस्था है “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” और इस प्रकार अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा अन्ततः मोक्षरूप परम पद को
प्राप्त करना | इस लक्ष्य से थोड़ा सा भी च्युत होते ही मति विभ्रम हो जाता है |
यही कारण था कि भगवान का विराट रूप देखकर जब अर्जुन भयभीत और भ्रमित हो गए तब
भगवान ने उनसे यही कहा कि तू युद्ध करे या न करे, इन सबका अन्त तो अवश्यम्भावी है
| फिर क्यों नहीं तू निमित्त मात्र होकर युद्ध करता ? मनःचिकित्सक का वास्तविक
कार्य यही है – यथार्थ का ज्ञान कराना – मनुष्य को उसकी ज़मीन से जोड़ना |
इस प्रकार अर्जुन को यह जो अन्तर्मुखी बनाने की प्रक्रिया
हुई यही है सूक्ष्म मनोविज्ञान | तदुपरान्त भगवान ने अर्जुन को आत्मस्वरूप के
दर्शन कराए और धीरे धीरे ज्ञान का बीजारोपण किया | इस प्रकार उनके मन को परिवर्तित
करके उन्हें त्याग और वैराग्य का मार्ग बताया | जिससे उनके मन के विभ्रम का, मोह
का नाश हुआ और वे कर्तव्य कर्म में प्रस्तुत हुए | यह थी अध्यात्म के द्वारा
अर्जुन की मनश्चिकित्सा | युद्ध के लिये कटिबद्ध अर्जुन ने स्वयं कहा “नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || गीता - 18/73” हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति
प्राप्त हुई | इसलिये मैं संशयरहित होकर स्थिरबुद्धि वाला हो गया हूँ और अब आपकी
आज्ञा का पालन करूँगा |
सम्भवतः कुछ लोगों का विचार हो कि निष्काम कर्मयोग तो
सन्यासियों के लिये होता है, गृहस्थ जीवन जीने वालों के लिये, सामाजिक जीवन जीने
वालों के लिये तो यह निष्काम कर्मयोग सम्भवतः उन्हें कर्म ही न करने दे | किन्तु
यदि ऐसा होता तब तो अर्जुन – जो कि मोहवश क्षात्रधर्म से विमुख होकर गाण्डीव छोड़कर
बैठ गए थे - गीता का उपदेश सुनकर सब कुछ छोड़ छाड़ कर सन्यासी हो जाते | किन्तु ऐसा
नहीं हुआ | अपितु इस उपदेश को सुनकर ही उन्होंने आजीवन गृहस्थ रहकर अपने कर्तव्य
का पालन किया |
जब इस प्रकार अध्यात्म मार्ग से मन का विभ्रम दूर करके,
उसे स्थिर करके कर्तव्य कर्म में प्रवृत्त किया जा सकता है, तो भला क्यों नहीं
किसी भी बड़े से बड़े अपराधी का भी हृदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता इस प्रकार
अध्यात्म परक मन:चिकित्सा के द्वारा ? यहाँ तक कि सम्पूर्ण समाज का हृदय परिवर्तन
किया जा सकता है | और फिर तब किसी भी प्रकार के सामाजिक भय से, धर्म के भय से, लोक
मर्यादा के भय से, जाति के भय से, मान प्रतिष्ठा के भय से, अथवा अन्य किसी भी
प्रकार के मानसिक विकार से व्यक्ति को, समाज को मुक्ति प्राप्त हो सकती है और अनेक
प्रकार के अपराधों को होने से रोका जा सकता है | इस प्रकार की अध्यात्मपरक
मन:चिकित्सा का मार्ग कठिन अवश्य है, लम्बा भी है, किन्तु इसके परिणाम भी उतने ही
दूरगामी हैं...