अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस
कल अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस है, और ग्यारह
मार्च को महाशिवरात्रि का पावन पर्व है... जब समस्त हिन्दू सम्प्रदाय पूर्ण
श्रद्धाभाव से देवाधिदेव भगवान शंकर और उनकी परम शक्ति माँ पार्वती की पूजा अर्चना
करेगा | जगह जगह रुद्राभिषेक किये जाएँगे | क्योंकि रूद्र तो समस्त देवों की आत्मा
हैं – या यों कह लीजिये की समस्त देव रूद्र की आत्मा हैं | समस्त प्रकृति-पुरुषमय
जगत रूद्र का ही तो रूप है | लेकिन एक बात जो हिन्दू मान्यता में विशेष रूप से पाई
जाती है वो ये कि कोई भी देवता अपनी शक्ति के बिना अधूरे हैं – फिर चाहें वो रूद्र
ही क्यों न हों... तभी तो सती के आत्मदाह के पश्चात् शिव अपने क्रोध पर संयम न रख
सके थे... कोई भी बड़ा कार्य स्वयं शंकर अपनी शक्ति माँ पार्वती के बिना नहीं कर
सकते, चाहे कितने ही कामदेवों को भस्म क्यों न कर दें... क्योंकि शिव पार्वती के
मिलन से ही तो जन्म लेते हैं असुरों के संहारक कार्तिकेय... जनक-जननी के आज्ञाकारी
और समस्त ऋद्धि-सिद्धि-बुद्धि को देने वाले गणेश... समस्त दृश्यमान जगत प्रकृति-पुरुषमय
है... प्रकृति के बिना पुरुष अपूर्ण है... और प्रकृति नारीरूपा है... स्त्री स्वयं
शक्ति है... स्त्री - जो विद्यादायिनी माँ वाणी भी है तो श्रीप्रदा माँ लक्ष्मी भी
है और साथ ही दुष्टों की संहारक माँ दुर्गा भी है... और आज समस्त विश्व उसी स्त्री
शक्ति को नमन करने हेतु महिला दिवस मना रहा है...
जैसा कि हममें से बहुत से लोग जानते भी
होंगे, इस वर्ष का महिला दिवस की थीम है “चूज़
टू चेलेंज” यानी चुनौती के लिए चुनें रखी गई है | हम
सक्रिय रूप से रूढ़ियों को चुनौती देने, पूर्वाग्रह से लड़ने, धारणाओं
को व्यापक बनाने, स्थितियों को सुधारने और महिलाओं की उपलब्धियों का जश्न
मनाने के लिए चुन सकते हैं | हमारे विचार से इस थीम का यही आशय है कि अपने विचारों और
अपने कर्तव्यों के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं – हमें ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी यदि
हम एक जागरूक नागरिक कहलाना चाहते हैं | एक महिला होने के नाते
हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम समाज से असमानता और लिंग भेद के कारण जो महिलाओं
पर अत्याचार होते हैं या महिलाओं को कम करके आँका जाता है उसे समाप्त करने की दिशा
में क़दम उठाएँ | महिलाओं की उपलब्धियों पर गर्वित होना सीखें | हमें
यह मानना होगा कि स्त्री और पुरुष कभी भी समान नहीं हो सकते | लेकिन
साथ ही ये भी सच है कि दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है | और
जब कोई किसी से कम नहीं है तो भेद भाव का फिर प्रश्न ही कहाँ रह जाता है | लेकिन
ये हो रहा है | तो हमें इसी दिशा में कार्य करना है...
जब सारी की सारी प्रकृति ही नारीरूपा है – अपने भीतर अनेकों रहस्य समेटे – शक्ति के अनेकों स्रोत समेटे -
जिनसे मानवमात्र प्रेरणा प्राप्त करता है... और जब सारी प्रकृति ही शक्तिरूपा है
तो भला नारी किस प्रकार दुर्बल या अबला हो सकती है ?
लेकिन फिर भी ऐसा माना जाता है | आख़िर
क्यों ? इसके लिए हमें आत्ममन्थन की आवश्यकता होगी...
हम अपने वैदिक समाज पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि उस काल
में प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री पुरुष के कर्तव्य व अधिकार समान थे, किन्तु उनमें
कर्तव्य पहले आता था - दोनों के ही लिये | वैदिक समाज में तलाक़ का प्रचलन नहीं था,
किन्तु नारी को इतना अधिकार अवश्य था कि यदि पति असाध्य रोग से पीड़ित है,
परस्त्रीगामी है, गुरु अथवा देवता से शापित है, ईर्ष्यालु है अथवा पत्नी के सम्मान
की रक्षा नहीं कर सकता तो पत्नी उस पुरुष का त्याग करके एक वर्ष पश्चात्
पुनर्विवाह कर सकती थी (नारदीय मनुस्मृति 15-16/1) साथ ही जो व्यक्ति अपनी सुशील,
मृदुभाषिणी, गुणवती, संतानवती पत्नी का त्याग करेगा वह दण्ड का भागी होगा (नारदीय
मनुस्मृति 97) इसी प्रकार स्त्रियों के साथ यदि कोई व्यभिचार करता है तो उसके लिये
भी कठोर दण्ड का विधान था | इसका कारण उस समय की स्वस्थ वैवाहिक परम्परा थी |
विवाह से पूर्व लड़का लड़की भली भाँति एक दूसरे को देख परख कर ही विवाह बन्धन में
बंधते थे | दहेज़ जैसे घिनौने शब्द से लोग उस समय अपरिचित थे | साथ ही लड़का और लड़की
दोनों को शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व और शास्त्र शास्त्रादि में निष्णात हो
जाने पर ही अपना जीवन साथी चयन करने की सलाह दी जाती थी | उस समय यद्यपि तलाक़ की
व्यवस्था नहीं थी फिर भी पर्दाप्रथा उस समय नहीं थी क्योंकि माना जाता था कि पर्दा
स्त्री के जीवन की बहुत बड़ी रुकावट होता है | अथर्व / 7-38-4 और 12-3-52 में
स्त्रियों के सभा समितियों में जाकर भाग लेने और बोलने का वर्णन आता है | उस समय
की नारी प्रातः उठकर यही कहती थी कि सूर्योदय के साथ मेरा सौभाग्य भी ऊँचा उठता
चला जाता है, मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूँ, मैंने अपने सभी शत्रु निःशेष कर
दिये हैं | एक ओर जहाँ इतनी उन्नत अवस्था नारी की थी वहीं आज वह ज़रा भी सर उठाने
का प्रयास करती है तो उस प्रयास को दबा दिया जाता है – कहीं खोखले हो चुके रीति
रिवाज़ों की आड़ लेकर तो कहीं उसे अबला बनाकर | किन्तु क्या अपनी इस अवस्था के लिये
नारी स्वयं ज़िम्मेदार नहीं है ? जब सारी की सारी
प्रकृति ही नारीरूपा है – अपने भीतर अनेकों रहस्य समेटे – शक्ति के अनेकों स्रोत समेटे - जिनसे मानवमात्र प्रेरणा प्राप्त करता
है... और जब सारी प्रकृति ही शक्तिरूपा है तो भला नारी किस प्रकार दुर्बल या अबला
हो सकती है ?
अगर नारी खुद अपनी ताक़त को समझ जाए, खुद अपना मूल्य आँकना सीख ले,
तो उसे आवशयकता ही नहीं किसी से अपना सम्मान माँगने की | माँगने से भीख मिला करती
है, सम्मान नहीं | न ही सभाओं में बहस का मुद्दा बनाकर नारी को उसका सम्मान और
सुरक्षा दिलाई जा सकती है | नारी को स्वयं के आत्मविश्वास में वृद्धि करनी होगी और
पूरी ताक़त से समाज के बीच आना होगा | तब साहस नहीं होगा किसी में कि उसकी तरफ़
टेढ़ी आँख कर दे या उसका किसी भी प्रकार से शोषण कर सके | क्योंकि समाज की धुरी,
समाज का एक सशक्त स्तम्भ नारी ही का यदि सम्मान नहीं किया जा सका, यदि उसे ही लड़ना
पड़ा अपने अधिकारों और सम्मान के लिये तो ऐसे समाज का क्या हाल होगा इसका अनुमान
स्वतः ही लगाया जा सकता है |
आज
की नारी शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक और आर्थिक हर स्तर पर
पूर्ण रूप से सशक्त और स्वावलम्बी है और इस सबके लिए उसे न तो पुरुष पर निर्भर
रहने की आवश्यकता है न ही वह किसी रूप में पुरुष से कमतर है | पुरुष – पिता के रूप में नारी का
अभिभावक भी है और गुरु भी, भाई के रूप में उसका मित्र भी है और पति के रूप में
उसका सहयोगी भी - लेकिन किसी भी रूप में नारी को अपने अधीन मानना पुरुष के अहंकार
का ही द्योतक है | हम अपने बच्चों को बचपन से ही नारी का सम्मान करना सिखाएँ चाहे सम्बन्ध
कोई भी हो... पुरुष को शक्ति की सामर्थ्य और स्वतन्त्रता का सम्मान करना ही चाहिए...
देखा जाए तो नारी सेवा और त्याग का जीता जागता उदाहरण है, इसलिए उसे अपने सम्मान और अधिकारों की
किसी से भीख माँगने की आवश्यकता नहीं... सभी को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाएँ...