महाशिवरात्रि पर्व
ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्तीयमामृतात् ||
आज समस्त हिन्दू समाज भगवान शिव की पूजा अर्चना का
पर्व महाशिवरात्रि का पावन पर्व मना रहा है | प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष
की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के व्रत का पालन किया जाता है, जिसे शिव पार्वती के विवाह का अवसर माना जाता है – अर्थात मंगल के साथ
शक्ति का मिलन | कुछ पौराणिक मान्यताएँ इस प्रकार की भी हैं
कि इसी दिन महादेव के विशालकाय स्वरूप अग्निलिंग से सृष्टि का आरम्भ हुआ था |
जो भी मान्यताएँ हों, महाशिवरात्रि का पर्व
समस्त हिन्दू समाज में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है | इसी
दिन ऋषि बोधोत्सव भी है, जिस दिन आर्यसमाज के प्रवर्तक
स्वामी दयानन्द को सच्चे शिवभक्त का ज्ञान प्राप्त हुआ था और उनके हृदय से उदगार
फूटे थे कि सच्चा शिव किसी मन्दिर या स्थान विशेष में विराजमान मूर्ति में निवास
नहीं करता, अपितु वह इस सृष्टि के प्राणिमात्र में विराजमान
है, और इसलिए प्राणिमात्र की सेवा ही सच्ची ईश्वरभक्ति है |
आज दिन में दो बजकर 41 मिनट के लगभग विष्टि (भद्रा) करण और सिद्ध योग में चतुर्दशी तिथि का आगमन होगा
जो कल दिन में लगभग तीन बजे तक रहेगी और उसके बाद अमावस्या तिथि आरम्भ हो जाएगी |
अतः निशीथ काल की पूजा और अभिषेक इसी दिन मध्य रात्रि में बारह बजकर
छह मिनट से लेकर बारह बजकर पचपन मिनट तक किया जाएगा | जिन लोगों को रात्रि में
अभिषेक नहीं करना है और दिन में ही व्रत रखकर रात्रि में उसका पारायण करना चाहते
हैं वे लोग भी इसी दिन व्रत रख सकते हैं | लेकिन जो लोग दिन
में कुछ ही देर के लिए व्रत रखना चाहते हैं उन्हें कल दिन में व्रत रखकर अपराह्न
तीन बजे तक व्रत का पारायण कर देना चाहिए |
जो लोग पूर्णतः वैदिक विधि विधान के साथ भगवान शंकर
के चार अभिषेक करते हैं तो उनके लिए प्रथम प्रहर के अभिषेक का समय है आज सिंह लग्न
में सायं 6:27 से आरम्भ होकर तुला लग्न में रात्रि
9:29 तक, द्वितीय प्रहर के अभिषेक का
समय तुला लग्न में रात्रि 9:29 से आरम्भ होकर वृश्चिक लग्न
में अर्द्ध रात्रि 12:31 तक, तृतीय
प्रहर के अभिषेक का समय वृश्चिक लग्न में अर्द्ध रात्रि 12:31 से आरम्भ होकर कल धनु लग्न में सूर्योदय से पूर्व 3:32 तक और चतुर्थ प्रहर के अभिषेक का समय कल सूर्योदय से पूर्व धनु लग्न में 3:32
से आरम्भ होकर कुम्भ लग्न में प्रातः 6:34 तक रहेगा
|
भगवान शिव की पूजा अर्चना जहाँ होगी वहाँ आनन्द और
आशीर्वाद की वर्षा तो निश्चित रूप से होगी ही | शिव को तो कहा ही “औघड़दानी” जाता है | शिवरात्रि के
पर्व के साथ बहुत सी कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं और उन सभी कथाओं में कुछ न कुछ
प्रेरणादायक उपदेश भी निहित हैं | लेकिन हमारे विचार से :
जन जन को शिव का रूप और कण कण को शंकर समझेंगे |
तो “शं करोतीति शंकरः” खुद ही सार्थक हो जाएगा ||
अर्थात – जो शं यानी शान्ति प्रदान करे वह शंकर –
किन्तु शंकर भी तभी जन जन को शान्ति और कल्याण प्रदान करेंगे जब हम प्रकृति के कण कण में – प्रत्येक जन मानस में – शंकर का
अनुभव करेंगे और साथ ही प्रकृति को तथा प्रकृति के मध्य निवास कर रहे किसी भी
प्राणी को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाने का संकल्प लेंगे – तभी वास्तव में
शिवाराधन सार्थक माना जाएगा और तभी हमें अनुभव होगा कि हमारा रोम रोम प्रसन्नता से
प्रफुल्लित होकर ताण्डव कर रहा है जो कि समस्त प्रकार की दुर्भावनाओं से मोक्ष तथा
कल्याण का – शान्ति का प्रतीक होगा | साथ ही एक और
महत्त्वपूर्ण तथ्य, शिवरात्रि अमावस्या के साथ आती है – यानी
चन्द्रमा की नव प्रस्फुटित शीतल किरणों को आगे करके आती है – जो एक प्रकार से
अन्धकार अर्थात सभी प्रकार के अज्ञान और कुरीतियों तथा दुर्भावनाओं पर प्रकाश
अर्थात ज्ञान और सद्भावनाओं की विजय का भी प्रतीक है |
भगवान् शिव की महिमा का वर्णन तथा
उनकी प्रार्थना के लिए बहुत सारे स्तोत्र और मन्त्र हमारे ऋषि मुनियों ने उच्चरित
किये हैं – जिनमें “शिवाष्टक” भी अनेक प्रकार के हैं, जिनके भावार्थ भी
प्रायः सामान ही हैं | उन्हीं में से आज प्रस्तुत है एक “शिवाष्टक”...
प्रभुमीशमनीशमशेषगुणं गुणहीनमहीश
गरलाभरणम् |
रण निर्जित दुर्जय दैत्यपुरं प्रणमामि
शिवं शिवकल्पतरुम् ||1||
गिरिराज सुतान्वित वामतनुं
तनुनिन्दितराजित कोटिविधुम् |
विधिविष्णुशिरोधृत पादयुगं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम्
||2||
शशलान्च्छितरंजित सन्मुकुटं कटिलम्बितसुन्दर
कृत्तिपटम् |
सुरशैवलिनी कृतपूतजटं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम्
||3||
नयनत्रयभूषित चारुमुखं मुखपद्मपराजित कोटिविधुम्
|
विधुखण्डविमण्डित भालतटं प्रणमामि शिवं
शिवकल्पतरुम् ||4||
वृषराज निकेतनमादि गुरुं गरलाशनमाजिविषाणधरम् |
प्रमथाधिपसेवक रन्जनकं प्रणमामि शिवं
शिवकल्पतरुम् ||5||
मकरध्वजमत्तमतंग हरं करिचर्मगनागविबोधकरम् |
वरमार्गणशूलविषाणधरं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||6||
जगदुद्भवपालननाशकरं त्रिदिवेशशिरोमणि धृष्टपदम् |
प्रियमानवसाधुजनैकगतिं प्रणमामि शिवं
शिवकल्पतरुम् ||7||
अनाथं सुदीनं विभो विश्वनाथं पुनर्जन्मदु:खात्
परित्राहि शम्भो |
भजतोखिलदुःख समूहहरं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||8||
भाव है कि देवाधिदेव, समस्त गुणों
से परे,
विषपान करने वाले,
दैत्यों का नाश करने वाले कल्पतरु के सामान सबकी मनोकामना पूर्ण करने वाले, जिनके
वाम भाग में शैलपुत्री विराजमान हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरणवन्दना करते हैं, जिनके मस्तक
पर चन्द्रमा का मुकुट सुशोभित है, जटाओं में गंगा को धारण करने वाले, त्रिनेत्र, वृषभारूढ़, कामदेव का
मर्दन करने वाले, समस्त चराचर का उद्भव, पालन और संहार करने वाले, पुनर्जन्म के
कष्ट से मुक्ति प्रदान करने वाले, दीनों और अनाथों के नाथ विश्वनाथ शिव की हम
वन्दना करते हैं... भगवान् शिव सबकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें...