बनकर
रह जाएगा इतिहास
कोरोना के आतंक से आज चारों ओर भय का वातावरण है... जो
स्वाभाविक ही है... क्योंकि हर दिन केवल कष्टदायी समाचार ही प्राप्त हो रहे हैं...
हालाँकि बहुत से लोग ठीक भी हो रहे हैं, लेकिन जब उन परिवारों की ओर देखते हैं
जिन्होंने अपने परिजनों या परिचितों मित्रों को खोया है, तब वास्तव में हर किसी के
मन में भय और कष्ट के मिश्रित भाव घर करते जाते हैं... लेकिन हमें विश्वास है कि
बहुत शीघ्र ये समय इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा...
आज छाया हुआ है दसों दिशाओं में अन्धकार ही अन्धकार
और उठा है प्रकृति के कण कण में भयंकर तूफ़ान...
काल की व्यथा कथा ऐसी / कि लिखी जाएगी कभी इतिहासों में...
न जाने छूट गए कितनों के साथी बारी बारी
मानों छूट गई हो अपनी ही परछाईं कहीं बहुत पीछे...
बिखर चुके हैं न जाने कितने ही घर
मानों बिखर गए हों भोर के साथ निशा के मधुर स्वप्न...
भग्न हृदय लिए न जाने कितने बैठे हैं आस में
कभी तो छंटेंगे ये दुःख के बादल...
देख रहे हैं टुकड़ों में बिखर गए अपने ही मन को
जैसे तकता है चाँद नदी के प्रवाह में बिखरी हुई अपनी ही
छवि को...
झुलस चुकी हैं मनुष्य की कोमल भावनाएँ / कष्टों की इस ज्वाला
में
जैसे झुलस जाती हैं वनस्पतियाँ सूर्य की धूप के ताप से...
सूनी हो चुकी है किसी माँ की गोद / बह गया है किसी की
माँग का सिन्दूर
टूट कर बिखर गए हैं किसी अबोध के खिलौने
तो कोई कर रहा है रुदन लिपट कर अर्थी से अपनी प्यारी
सखी की...
अभी कुछ ही दिनों की तो बात है
इसी ख़ाली पड़ी चारपाई पर / सहलाती थी माँ सर जब आते थे थककर...
इसी उजाड़ हो चुके बागीचे में
अठखेलियाँ करते थे तोता मैना की नाईं / जब होता था
एकान्त...
इसी रीते पड़े कमरे में रचाते थे ब्याह गुड़िया गुड्डे
का
और इन्हीं सूनी आँखों से निहारती गलियों में
खेलते थे कंचा गोली / गिल्ली डंडा / भूलकर संसार को...
ये स्कूल चहकते रहते थे बच्चों की शरारतों से
ये कॉलेज की बिल्डिंग्स गुलज़ार रहती थीं
अभी अभी युवा हुए प्रेमी युगलों की फुसफुसाहटों से
ये बाज़ार ये दुकानें रहती थीं आबाद ख़रीदारों के मोल
भावों से...
लेकिन आज खड़ा है हर कोई लाचार / भ्रमित
क्योंकि वातायन के उस पार खड़ा समय
चिढ़ा रहा है मुँह मनुज को / कि अहंकार और वो भी मेरे
सामने ?
अरे “मैं समय हूँ” जो कभी नहीं रहता एक जैसा...
अनादि काल से अनन्त काल तक / हर समय मैं ही मैं हूँ...
सृष्टिकर्ता ब्रह्म भी हूँ मैं ही
और विध्वंस का ताण्डव रचाता रूद्र भी हूँ मैं ही...
कभी हूँ मैं प्रस्तरसम / तो कभी मैं ही हूँ शीतल मलय
बयार
कभी मैं ही बींध देता हूँ नागफनी सा
और बह जाता है जन मानस का रक्त / प्रवाह में अश्रुधारा
के
तो कभी माँ की तरह सहलाकर पुचकार देता हूँ मैं ही...
और इसीलिए एक क्षीण सी रेखा प्रकाश की
आ रही है छनती हुई हृदय के वातायन से...
क्योंकि है विश्वास / कि अनादि और अनन्त होते हुए भी
समय नहीं रहता कभी एक समान
चक्र की नेमि के समान बदलता रहता है हर पल...
इसीलिए निराश नहीं मेरा मन
समय बदलेगा / और आज का ये अन्धकारपूर्ण समय
बनकर रह जाएगा इतिहास...
इसलिए, चिन्ता मत कीजिए... साहस, आशा और विश्वास के साथ इसका सामना कीजिए... विश्वास कीजिए विजय मानवता की
होगी... लेकिन तभी जब हम मास्क, सेनिटायिजेशन और सोशल
डिस्टेंसिंग का पालन करते रहेंगे... कात्यायनी...