कमरे में सनलाइट जल रही थी। राजा साहब अपनी बैठक में थे। मसनद लगी हुई।गाव-तकिए पड़े हुए। एक तकिए का सहारा लिए हुए प्रतीक्षा कर रहे थे कि बेयरासिपाही से खबर लेकर गया। कहा, प्रभाकर बाबू आए हुए हैं। राजा साहब नेआदरपूर्वक ले आने के लिए कहा। दिलावर बाहर रास्ते के पहरे पर रह गया, प्रभाकरउसी पुलनुमा राह से सरोवर की कोठी को चले। कोठी में पहुँचकर राजा साहब काकमरा, अंदर जाने के लिए, बेयरा ने प्रभाकर को दिखा दिया। प्रभाकर गए। राजा नेउठकर स्वागत किया और नवयुवक को पास बैठा लिया। स्नेह से कहा, "हम आपसे उम्रमें..."
प्रभाकर सिर झुकाये रहे।
"बड़ी जिम्मेवारी है।" राजा साहब ने स्वगत कहा।
प्रभाकर स्थिर भाव से बैठे रहे।
"आपका प्रबँध हो गया है। आप वहाँ चलकर रह सकते हैं।"
प्रभाकर को साहस से प्रसन्नता हुई।
"आप तो हमारे गवैये के रूप में हैं।"
गा लेता हूँ।" प्रभाकर ने सीधे स्वर से कहा।
"कुछ पान?"
"जी नहीं।"
"भोजन तो कीजिएगा?"
"जी हाँ।"
"मांस-मछली?"
"हाँ।"
"आप कुछ सुनिए और कुछ सुनाइए।"
राजा साहब ने एजाज के आने के लिए ख़बर भेजी, साजिंदे भी बुला लाने को कहा। फिर
प्रभाकर से ग़प लड़ाने लगे।
समय पर साजिंदे आ गए। एजाज भी तैयार हो गई। साज़ बाहर से मिलाकर लाए गए।
प्रभाकर देखते रहे।
प्रभाकर को राजा साहब नाप न सके, कितना गहरा है।
एजाज तैयार होकर आई। राजा साहब को सलाम किया और बग़ल में एक तकिया लेकर बैठ गई। प्रभाकर को देखा, फिर देखा, फिर चुपचाप राजा साहब से पूछा, "आपकी तारीफ़?"
उसी फिसफिसाहट से राजा साहब ने जवाब दिया, "आपके खानदान के। गवैये हैं। देखा जाए, कैसे हैं?"
"तगड़े जान पड़ते हैं।"
"शिक्षित हैं।"
"यहाँ कैसे?" एजाज को शक हुआ।
"गाएँगे, रहेंगे। जब चाहेंगे, चले जाएंगे।"
एजाज को राजा साहब की बात का विश्वास न हुआ, उनके स्वर में ऐसा ही, कटता हुआ
आदमी मिला। खामोश हो गई। एक दफे कमर सीधी की, फिर एकटक देखती हुई बैठी रही।
प्रभाकर ने मुद्रा को और अच्छी तरह देखा, दिल में गाँठ ली।
साजिंदे नौकर, रह-रहकर एक नज़र राजा साहब को देख लेते थे।
राजा साहब की कठिन अवस्था हुई। न एजाज को गाने के लिए कह सकते थे-अविश्वास की
ऐसी प्रतिक्रिया हुई, न प्रभाकर को, प्रभाकर का गुरुत्व ऐसा गालिब था।
उन्होंने नौकर रखने के भाव को काफी मुलायम करके एजाज को देखा। एजाज ने अनुभव
किया कि वह दब गई। बड़ा बुरा लगा। अपने से घृणा हुई। पर दबाकर, सैकड़ों पेंच
कसने और सुलझानेवाली मुसकान से प्रभाकर को देखकर कहा, "जनाब ही क्यों न
श्रीगणेश करें?"
प्रभाकर समझा। नम्रता से स्वीकार कर लिया। पूछा, "क्या गाऊँ?"
"जो जी में आए, कोई ऊंचे-अंग-वाली।"
तानपूरा स्वर भरने लगा। एजाज के गले से मिलाया हुआ।
राजा साहब ने कहा, "आपके स्वर में नहीं मिला। दिक्कत हो तो अभी ठहर जाइए।"
एजाज कुछ और दबी। प्रभाकर ने कहा, "चल जाएगा। घटा लूँगा।"
"अच्छा, मैं ही बिसमिल्लाह करती हूँ।" एजाज मसनद के बीच में आ गई। दिल को चोट लग चुकी। पूरा-पूरा व्यवसायवाला रुख लेकर बैठी। साजिंदे खुश होकर अनुपम रूप देखने लगे। प्रभाकर ने भी देखा, जैसे पत्थर को देख रहा हो। एजाज की हार्दिक सहानुभूति उस क्षण कलाकार प्रभाकर के लिए हुई। भरकर, राजा साहब से बदली हुई, एजाज ने अलाप ली।
प्रभाकर मुग्ध हो गया। चुपचाप बैठा खयाल सुनता रहा। तानों की तरहें दिल में समा गईं। साजिंदे काम करते हुए प्रभाकर को देख लेते थे। राजा साहब निर्भीक कद्रदाँ की तरह बैठे रहे।
खयाल गाकर एजाज हट गई। इसका मतलब था, अब नहीं गाएगी । राजा साहब समझकर खामोश रहे। साजिंदे उसको कुछ कह नहीं सकते थे। प्रभाकर आगंतुक।
एजाज पहले की तरह राजा साहब की बग़ल में नहीं बैठी। गाने के लिए प्रभाकर का जी उठ नहीं रहा था। फिर भी रस्म पूरी करनी थी। शिक्षित घराने का शिक्षित युवक सुकण्ठ और संगीतज्ञ था। ढर्रा छोड़कर उसने धमार गाया। काफी जमी। राजा साहब उछल पड़े।
एजाज समझ गई, यह पेशेदार गवैया नहीं। इसका राज लेना चाहिए, दिल में बांधा। डटी बैठी रही। कलकत्तेवाली, सरकार के आदमी से हुई, बातचीत याद आई। धीरज हुआ। पर राजा की तरफ से सदा के लिए पेट में पानी पड़ गया।राजा साहब ने देखा, प्रभाकर की तारीफ़ से एजाज का दिल छोटा नहीं पड़ा। वह और बढ़कर बोले, "अभी आप थके-माँदे आए हैं।"
"अच्छा, कहाँ से?" एजाज ने पूछा।
"क्यों, साहब?" राजा साहब ने प्रभाकर को देखा।
वर्धमान से।" प्रभाकर ने कहा।
"जनाब का नाम?" एजाज ने पूछा।
"प्रभाकर।"
"उस्ताद हैं?"
प्रभाकर ने साधारण नमस्कार किया।
अरे भाई, बोस साहब बैरिस्टर हैं, उनके भाई हैं। आए हैं।"
एजाज और दूर तक गाँठ गई, "कुछ रोज रहेंगे, यानी बहुत कुछ सुनने को मिलेगा।
राजा साहब का दरबार है।" खिलखिलाकर हँसी।
आज के बर्ताव से एजाज को इच्छा हुई, दूसरे दिन कलकत्ता रवाना हो जाए और नौकरी छोड़ दे, मगर बड़ा रहस्यमय रूप सामने देखा, जिसको खानदानी पढ़ी-लिखी वेश्या छोड़कर न भगेगी; आखिरी दम तक सुलझायेगी।