ब्याह के बाद जागीरदार राजा राजेंद्रप्रताप कलकत्ता गए। आवश्यक काम था।जमींदारों की तरफ से गुप्त बुलावा था। सभा थी।मध्य कलकत्ता में एक आलीशान कोठी उन्होंने खरीदी थी। ऐशो-इशरत के साधन वहाँसुलभ थे, राजा-रईस और साहब-सूबों से मिलने का भी सुभीता था, इसलिए साल में आठमहीने यहीं रहते थे। परिवार भी रहता था। राजकुमार इस समय वहीं पढ़ते थे। ये अपनी बहन से बड़े थे, पर अभी ब्याह न हुआ था। यह कोठी और सजी रहती थी।
बंगाल की इस समय की स्थिति उल्लेखनीय है। उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध बंगाल और बंगालियों के उत्थान का स्वर्णयुग है। यह बीसवीं सदी का प्रारंभ ही था। लार्डकर्जन भारत के बड़े लाट थे। कलकत्ता राजधानी थी। सारे भारत पर बंगालियों कीअंग्रेजी का प्रभाव था। संसार-प्रसिद्धि में भी बंगाली देश में आगे थे। राजाराममोहनराय की प्रतिभा का प्रकाश भर चुका था। प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर काजमाना बीत चुका था। आचार्य केशवचंद्र सेन विश्वविश्रुत होकर दिवंगत हो चुके थे। श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की अतिमानवीय शक्ति की धाक सारेसंसार पर जम चुकी थी। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की बंगला, माइकेल मधुसूदनदत्त के पद्य, बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास और गिरीशचंद्र घोष के नाटक जागरण के लिए सूर्य की किरणों का काम कर रहे थे। घर-घर साहित्य, राजनीति की चर्चा थी।
बंगाली अपने को प्रबुद्ध समझने लगे थे। अपमान का जवाब भी देने लगे थे। अखबारोंकी बाढ़ आ गई थी। रवींद्रनाथ के साहित्य का प्रचंड सूर्य मध्य आकाश पर आ रहाथा। डी. एल. राय की नाटकीय तेजस्विता फैल चली थी। सारे बंगाल पर गौरव छाया हुआथा। परवर्ती दोनों साहित्यिकों से लोगों के हृदयों में अपार आशाएँ बँध रहीथीं। दोनों के पद्य कंठहार हो रहे थे। जातीय सभा कांग्रेस का भी समादर बढ़ गया था। उस में जाति के यथार्थ प्रगति के भी सेवक आ गए थे।इसी समय लार्ड कर्जन ने बंग-भंग किया। राजनीति के समर्थ आलोचकों ने निश्चय किया कि इसका परिणाम बंगाल के लिए अनर्थकर है। बंगाल के स्थायी बंदोबस्त की जड़ मारने के लिए यह चाल चली गई है। यद्यपि लार्ड कर्जन का मूँछ मुड़ानेवाला फैशन बंगाल में जोरों से चल गया था-
मिलनेवाले कर्मचारी और जमींदार लाट साहब को खुश करने के लिए दाढ़ी-मूँछों से सफाचट हो रहे थे, फिर भी बंगभंगवाला धक्का सँभाले न सँभला। वे समझे कि चालाक अंगरेज किसी रोज उन्हें उनके अधिकार से उखाड़कर दम लेंगे। चिरस्थायी स्वत्व के मालिक बड़े-बड़े जमींदार ही नहीं, मध्य वित्त साधारण जन भी थे। इसलिए यह विभाजन की आग छोटे-बड़े सभी के दिलों में एक साथ जल उठी। कवियों ने सहयोगपूर्वक देश-प्रेम के गीत रचने शुरू किए। संवाद-पत्र प्रकाश्य और गुप्त रूप से उत्तेजना फैलाने लगे। जगह-जगह गुप्तबैठकें होने लगीं। कामयाबी के लिए विधेय अविधेय तरीके अख्तियार किए जाने लगे।
संघ-बद्ध होकर विद्यार्थी गीत गाते हुए लोगों को उत्साहित करने लगे। अंग्रेजोंके किए अपमान के जवाब में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रतिज्ञाएँ हुईं,लोगों ने खरीदना छोड़ा। साथ ही स्वदेशी के प्रचार के कार्य भी परिणत किए जानेलगे। गाँव-गाँव में इसके केंद्र खोले गए। कार्यकर्ता उत्साह से नयी काया में जान फूँकने लगे।विज्ञान की उस समय भी हिंदुस्तानियों के लिए काफी तरक्की हो चुकी थी, पर मोटरों की इतनी भरमार न थी। हवाई जहाज थे ही नहीं। तब कलकत्ते में बग्घियाँचलती थीं। बाद को मोटरें हो जाने पर भी रईसों का विश्वास था, बग्घी रईसों के अधिक अनुकूल है, इससे आबरू रहती है। राजा साहब ने कई शानदार बग्घियाँ रखी थीं, कीमती घोड़ों से अस्तबल भरा था।
शराब और वेश्या का खर्च उन दिनों चरम सीमा परथा। माँस, मछली, सब्जी और फलों के गर्म और क्रीम और बर्फदार ठंढे इतने प्रकारके भोजन बनते थे कि खाने में अधिकांश का प्रदर्शन मात्र होता था; वे नौकरों केहिस्से में आकर भी बच जाते थे। फूल और सुगंधियों का खर्च अब शतांश भी नहींरहा। पुरस्कार इतने दिए जाते थे कि एक-एक जगह के दान से नर्तकियों और गवैयों का एक-एक साल का खर्च चल जाता था। आमंत्रित सभी राजे-रईस व्यवहार में हजारों के वारे-न्यारे कर देते थे। अगर स्वार्थ को गहरा धक्का न लगा होता तो ये जमींदार स्वदेशी आंदोलन में कदापि शरीक न हुए होते। इन्होंने साथ भी पीठ बचाकर दिया था।
सामने आग में झुक जाने के लिए युवक-समाज था। प्रेरणा देने वाले थे राजनैतिक वकील और बैरिस्टर। आज की दृष्टि से वह भावुकता का ही उद्गार था। सन्सत्तावन के गदर से महात्मा गाँधी के आखिरी राजनीतिक आंदोलन तक, स्वत्व केस्वार्थ में, धार्मिक भावना ने ही जनता का रुख फेरा है। इसको आधुनिक आलोचक उत्कृष्ट राजनीतिक महत्त्व न देगा। स्वदेशी आंदोलन स्थायी स्वत्व के आधार परचला था। उससे बिना घरबार के, जमींदारों के आश्रय मे रहनेवाले, दलित, अधिकांशकिसानों को फ़ायदा न था। उनमें हिंदू भी काफी थे, पर मुसलमानों की संख्या बड़ीथी, जो मुसलमानों के शासनकाल में, देशों के सुधार के लोभ से या ज़मींदार हिंदुओं से बदला चुकाने के अभिप्राय से मुसलमान हो गए थे। बंगाल के अब तक के निर्मित साहित्य में इनका कोई स्थान न था, उलटे मुसलमानी प्रभुत्व से बदलाचुकाने की नीयत से लिखे गए बंकिम के साहित्य में इनकी मुखालिफ़त ही हुई थी। शूद्र कही जाने वाली अन्य दलित जातियों का आध्यात्मिक उन्नयन, वैष्णव-धर्म केद्वारा जैसा, श्रीरामकृष्ण और विवेकानंद के द्वारा हुआ था, पर उनकी सामाजिक स्थिति में कोई प्रतिष्ठा न हुई थी, न साहित्य में वे मर्यादित हो सके थे।
ब्राह्मण समाज ने काफी उदारता दिखाई थी, आर्य-समाज का भी थोड़ा-बहुत प्रचारहुआ था, पर इनसे व्यापक फलोदय न हो पाया था। ब्राह्मण समाज क्रिश्चन होनेवालेबंगालियों के भारतीय-धर्म-रक्षण का एक साधन, एक सुधार होकर रहा। इसमें
सम्मिलित होनेवाले अधिकांश विलायत से लौटे उच्च-शिक्षित थे। मुख्य बात यह किपरिस्थितियों की अनुकूलता के बिना उचित राष्ट्रीय संगठन नहीं हो सकता, न होसका। हिंसात्मक जो भावना स्वतंत्रता की कुंजी के रूप से प्रचारित हुई, वह
संगठनात्मक राष्ट्रीय महत्त्व कम रखती थी। गांधीजी का असहयोग इसी कीप्रतिक्रिया है, पर इसकी एकता की अड़ और गहरे पहुँची थी।
अस्तु, इस समय गुप्त सभाओं का जैसा क्रम चला, वैसा और उतना सिराजउद्दौला केसमय अंगरेज़ों की मदद के लिए भी नहीं चला। कुछ ही दिनों में राजों, रईसों औरवकील-बैरिस्टरों से मिलने पर, राजा राजेंद्र प्रताप की समझ में आ गया कि देश
को साथ देना चाहिए। चिरस्थायी स्वत्व की रक्षा ही देश की रक्षा है, इस परउन्हें ज़रा भी संदेह नहीं रहा। बहुत जगह दावतें हुईं, बहुत बार प्रतिज्ञाएँकी गईं। वकील और बैरिस्टरों के समझाने से दूसरे-दूसरे ज़मींदारों की तरह राजाराजेंद्रप्रताप भी समझे, उन्हें कोई खतरा नहीं। जिस मदद के लिए वह बात दे चुकेहैं, पुलिस को उसकी खबर नहीं हो सकती, पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकती।
दूसरों की तरह राजेंद्रप्रताप ने भी दावत दी। कोठी सजी। कलकत्ता के और वहाँ आएहुए बंगाल के ज़मींदार आमंत्रित हुए। निमंत्रण-पत्र में लिखा गया, राजकुमारीके ब्याह की दावत है। अच्छे पाचक बुलाए गए। राजभोग पका। विलायत की कीमती
शराबें आईं और कलकत्ता की सुप्रसिद्ध गायिका-वेश्याएँ। विशाल अहाते मेंजमींदारों की बग्घियों का तांता लग गया। प्रचंड रोशनी हुई। आलीशान बैठक मेंराजे और जमींदार गद्दियों पर तकियों के सहारे बैठे। शराब ढलने लगी। गायिकाओं
के नृत्य और गीत होने लगे। कुछ ही समय में भोजन का बुलावा हुआ। राजसी ठाट केआसन लगे थे। सोने और चाँदी के बरतनों में भोजन लगाकर लाया गया। सबने प्रशंसाकरते हुए भोजन पाया। इशारे से बातचीत होती रही। सब-के-सब एकमत थे। भोजन के बादथोड़ी देर तक गाना सुनकर, सभी श्रेणियों के लोगों को इनाम देकर जमींदार लोग अपनी-अपनी कोठियों को रवाना हुए। गायिकाएँ भी गईं। केवल एक आदमी बैठा रहा। वह कलकत्ते का एक प्रसिद्ध बैरिस्टर है। उस समय कमरे में कोई न था। उसने राजेंद्रप्रताप से कहा, "हमको जगह चाहिए। आप लोगों के पास जगह की कमी नहीं। वहाँ कार्यकर्ता छिपकर काम करेंगे। आप उनकी निगरानी रख सकते हैं।"
"जगह आप लोग देंगे, आदमी हम। आप में जो कलकत्ते के रहनेवाले हैं, वे अपनी कोठियों में जगह नहीं दे सकते। उनसे हम रुपया लेंगे और किराये की कोठियों में काम करेंगे।"
"हाँ।" राजेंद्रप्रताप को विश्वास था कि वे दो-चार को क्या, बीसियों आदमियोंको छिपा दे सकते हैं। गढ़ के भीतर पुलिस के आने तक वे आदमी बाहर निकाल दिए जासकते हैं, माल गहरे तालाब में फेंकवा दिया जा सकता है। पूर्वपुरुषों सेजमींदारों की दुस्साहसिकता की जो बातें वह सुन चुके हैं और खुद कर चुके हैं,उनके सामने ये नगण्य हैं।
"सारा देश साथ है।" बैरिस्टर ने कहा, "घबराइएगा नहीं। हमारे आदमी पकड़ जाएँगेतो अपने पर ही कुल जिम्मेवारी लेंगे। आपको पकड़ाएँगे नहीं। कोठी में भी पकड़ेजाएँगे तो उनका यही कहना होगा कि वे एकांत देखकर अपनी इच्छा से गए थे।"
राजा राजेंद्रप्रताप को विश्वास का बल मिला। बैरिस्टर कहते गए, "किसी तरह कीअनहोनी होती दिखे तो आप उन्हें जल्द सूचित कर दें।"
राजा साहब ने सम्मति दी। बैरिस्टर ने कहा, "जो आदमी वहाँ आपसे मिलेगा, वह आजसे चौथे दिन तारकनाथ का आदमी कहकर मिलेगा। उसका नाम प्रभाकर है। उसके साथ तीनआदमी और होंगे। सामान की व्यवस्था की हुई रहेगी; भीतर ले जाने, ले आने और भोजनपान का इंतजाम आप करा दीजिएगा, साथ इस तरह भेद न खुले, बहुत विश्वासी आदमी काम
में रहें जिनके जीवन की बागडोर आपके हाथ में हो। समझते हैं?""हाँ, हमारा संबंध तो आपको मालूम है।" राजा साहब मुस्कराये। बैरिस्टर साहब नेकुछ देर तक ऐसी ही बातचीत की, फिर बिदा हुए।