भाई नजीर !" यूसुफ ने पुकारा।
नजीर बैठे थे। अभी ही फुर्सत मिली थी। सोच रहे थे। कहनेवाले आदमी की बात पक्कीमालूम हो रही थी। घबराए भी थे। गरीब थे। यूसुफ की दोस्ती से फायदा न हुआ था।
कटने की ठान ली। आवाज पहचान कर उठे। दिल से नफरत थी, मगर मुस्कराहट से होंठरँग लिए। थानेदार की निगाह से निगाह भी नीची रखी।
"अस्सलामवालेकुम्।"
"वालेकुम् अस्सलाम।"
"भाई, तुम्हारा नाम एक जगह लिखाया है।"
"किस जगह?"
"तुम पुलिस से राज लेने लगे।"
"क्या हमसे पूछा गया?"
"यह बातचीत तो पहले हो चुकी है।"
'इसका यह मतलब नहीं कि हम खुदा के लिए मुसलमान न रह जाएँ।
"इस दफे के लिए मान जाओ।"
"आप पूरा-पूरा हाल बयान कीजिए, वरना..."
"वरना?"
"हाँ।"
"वरना आप सरकार से बदला चुका लेंगे।"
"नहीं, चुकवा लूँगा।"
"तुम तो बहुत बिगड़े।"
"बात भी कोई बनायी?"
"बात तो बनायी?"
"बातें बनाते हैं।"
"अच्छा तो जो जी में आए कर लो," कहकर थानेदार साहब ने नकली ठहाका लगाया।
"मैं मज़ाक नहीं कर रहा।"
थानेदार साहब गर्म पड़े। कहा, "ऐसा भी होगा कि हम तुम्हारा दिल देख रहे हों और
असलियत कुछ हो ही नहीं।"
"मुमकिन।" नज़ीर के स्वर में निवेदन न था।
"अच्छा तो आख़िरी बात। अगर आप नहीं माने तो आज ही आपका चालान करा दूँगा।"
नज़ीर घबराए। कहा, "हमारी बात और हमें मालूम भी न हो, क्या तमाशा है।"
"अच्छा तो आप तैयार रहिए।"
"आप भी तैयार रहिए।"
थानेदार घबराए। अज़ीज़ी से कहा, "पुलिस राज दे देती है तो उसका बल घट जाता है।
काम हासिल नहीं होता। आप मान जाइएगा तो वक्त पर मीठा फल खाने को मिलेगा। नहीं माने तो हाथ मलते रह जाइएगा।"
"पर हमें मालूम कर लेना है।"
यूसुफ हार गए। कहा, "हम एक जगह गए थे, जहाँ आपका नाम हमने लिखाया है।" फिर न बताया।
"कहाँ गए थे।"
यूसुफ ने एक दूसरी जगह का नाम बताया। कहा, "सरकारी काम था।"
"आप ऐसा कहते हैं तो हमारी छाती दूनी हो जाती है। फिर?"
"फिर और कुछ नहीं। यह याद रहे कि तुम्हारे मामू के तीन लड़के हैं, यह भी
लिखाया है।"
"मेरे तो मामू ही नहीं। खुदा के फ़ज़ल से अब्बा जान के सालियाँ चार थीं, साला
एक भी नहीं।"
"आपको हम बचाए हुए हैं, यह आप समझे या नहीं?"
"हाँ, यह तो है।"
"और आप नहीं गए, यह भी साबित है।"
"हां, यह भी।"
"आपको जिल्लत गवारा करनी पड़ी, इसका हमको अफ़सोस है।"
नज़ीर सिर झुकाये खड़े रहे। यूसुफ गाड़ी खड़ी करके आए थे। उधर को चले। विचार में नजीर को सलाम करने की याद न रही।
गाड़ी तै करके यूसुफ बैठे। गाड़ी चली। कुछ दूर पर एक दूसरी गाड़ी किराए पर ली हुई खड़ी थी। कुछ फासले से पीछे लगी वह भी चली।
यूसुफ के चले जाने पर नज़ीर के पास वही पहला आदमी गया। बुला कर पूछा। नज़ीर ने दीन भाव से कहा कि यूसुफ की उनसे तनातनी हो गई है, उन्होंने बतलाया नहीं, जो कुछ कहा-यह-वह करके, वह थानेदार हैं, उनसे जान-पहचान है, दूर के रिश्ते में आते हैं।
आगंतुक ने कहा, "आप हमारे आदमी हैं। इन्होंने आपको फँसा दिया है। हम आपको बचा लेंगे। कुछ रुपए भी देंगे। बाद को काम निकलने पर और मदद करेंगे। अभी आप एक चिट्ठी लिख दीजिए कि आपका यह नाम है, यह वल्दियत, इतने मामू हैं, और इसके इतने लड़के-यह-यह।"
नजीर ने, बात पक्की है, सोचा। गरीब थे। रुपए मिल रहे थे। दावात-कलम लेकर कुल बातें सामने लिख दीं।
आगंतुक ने उन्हें पच्चीस रुपए दिए । नजीर हर तरह से उसके आदमी बन गए। यूसुफ का पूरा-पूरा हाल आगंतुक को मालूम हो गया-वह कहाँ रहते हैं, उनके वालिद क्या करते हैं, आजकल क्या रुख है, किस कार्रवाई में लगे हैं।
आगंतुक वहाँ से राजा की कोठी आया। उसके साथी भी आए। उन्होंने घर का पता और बाप का नाम मालूम कर लिया था। सामने के पानवाले ने बतलाया था, दोनों जगहों की बातें मिल गईं। लोग खुशी-खुशी टहलते रहे। अली को देखा। अली ने पूछताछ शुरू की।
लोगों ने कहा, "बर्दवान से आए हैं।"
अली ने पूछा, "बर्दवान में सुदेशो का आंदोलन कैसा है?"
"कौन सुदेशी?" एक ने पूछा।
"यही जो सरकार के खिलाफ बमबाजी हो रही है।"
"आप अखबार तो पढ़ते होंगे?"
"हाँ, हमने कहा..."
दूसरे ने कहा, "बमवाले हैं।"
"कौन?" अली ने कहा, "हमारे साहबजादे थानेदार हैं।"
तीसरे ने कहा, "हमारे मामू के साले के ससुर इंस्पेक्टर हैं।"