डाल के सैकड़ों हाथों ने मुन्ना पर फल रखे। चली जा रही थी, पराग झरे, भौंरे गूँजे। तरह-तरह की चिड़ियों की सुरीली चहक सुन पड़ी। दुपहर के सन्नाटे के साथ मौसम की मिठास। फिर प्रभाकर याद आया। दूर से घुसते देखा है। कोठी में रहता है।
कौन है? मुन्ना धीरे-धीरे वहीं चली। कोठी की बगल से जानेवाला रास्ता सुनसान रहता है। आदमी इक्के-दुक्के। मुन्ना जीने के पास खड़ी हुई। जहाँ से आए थे वहाँ के लिए अनुमान किया, और घाट की तरफ चली, नज़र उठाकर इस हिस्से की बनावट देखती हुई। बुआ वाले बाग के सामने दोमंजिला है। निकलने का दूसरा जीना है। बाग में जाने का जीना नहीं। उसी राह जाना पड़ता है। नीचेवाली मंज़िल में पुरानी चीजें कुफ्ल में रखी हैं। कोई राह नहीं। एक अँधेरी कोठरी है, एक तरफ का दरवाजा टूटा है। उसको बाग का हिस्सा समझ सकते हैं। तालाब के किनारे की कोठी उसने नहीं देखी; यों बहुत-सा हिस्सा नहीं देखा। बागीचे की तरफ खुले कमरों को देखकर लौटी।
उसको जान पड़ा, सुनसान दिखता है। रहने की आहट नहीं मिलती।रहस्य से मुस्कराकर सिंहद्वार लौटी। जमादार बैठे थे। मुन्ना को सुनाकर कहा,
"देखो, रघुनाथजी की क्या इच्छा है।"
"हम अभी आते हैं।" मुन्ना ने कहा, "बस, आज रानीजी का बदला चुका लिया जाए।"
"कैसे?" षड़यंत्रवाले की आवाज से पूछा।
"अभी आती हूँ। उसको चाहते तो नहीं?"
जमादार सन्न हो गए। मुन्ना ने जरा रुककर पूछा, "हम हों या वह?"
"तुमको कौन पाता है? तुम्हारी चल रही है।"
"फिर उसकी तरफ लपकना मत।"
"अच्छा , चली आ।"
मुन्नी घूमी, "सिपाही भगता नहीं, जीत की जगह है, लेता है। हमारी हो, तो अपनी गरदन नपाये देते हैं।" ड्योढ़ी की ओट में खड़े जटाशंकर ने कहा।
प्रेम की आँखों मुन्ना ने देखा।
"हम राह देख रहे थे। बता दो, कितने की चोरी हुई?"
पाँच लाख की"
"गलत है।"
मुन्ना ने जटाशंकर को देखा। जशकर हाथ पकड़कर कागजात के कमरे में ले गए। देर तक बातचीत की। हाल समझकर रुपए बताकर बीजक दे दिया। दोनों के गहरे संबँध हो गए।