रुस्तम बुआ को लेकर चला। रात के दस के बाद का समय। गढ़ सुनसान। मर्दाना बाग़
से चला। बुआ को शंका हुई। फिर मिट गई।
"देखती हो दो तलवारें हैं?" रुस्तम ने प्रेमी गले से पूछा।
"हाँ," शरमाकर बुआ ने कहा।
"एक तुमको बाँधनी है।"
"हाँ?"
"बाँधना आता है?"
"नहीं।" "हमी बाँधेगे। सुना है?"
"हाँ।"
"इसका मतलब समझ में आया?"
बुआ लजा गईं। सामने आमों के पेड़ थे। रुस्तम बढ़ा। एक की झुकी डाल पर दोनों
तलवारें टाँग दीं।
"यहाँ सिर्फ हम हैं और तुम।"
बुआ शरमायीं। रुस्तम का पुरुष पूरी शक्ति पर था। कहा, "उस रोज़ नहाकर तुम जैसी
निकलीं, वैसा ही हो जाना है।"
बुआ का हाथ रुका। जी ऊबा।
रुस्तम ने पूछा, "तालाब में और लोग थे, वे क्यों थे?"
"हमको नहीं मालूम।"
आवाज से रुस्तम समझ गया कि जमादार का कहना दुरुस्त; वे फँसाये गए, अपनी तबियत
से नहीं गए।
घबराया कि इसका धर्म बिगाड़ा तो बुरा हाल न हो; फिर सोचा मुन्ना का इशारा कुछ
ऐसा ही है।
कहा, "हम वे हैं जिनके बहुत-से बीवियाँ होती हैं?"
"यह हमारे यहाँ नहीं?"
"तुमको आज हमारी बीवी बनना होगा।"
"मैं बीवी नहीं बनती।"
"तुमने उससे कुछ कहा, उसकी बात मानी?"
"जबरदस्ती कहलाने से कोई कहना है या मानना।"
"लेकिन हमारे साथ के लिए तुम बात हार चुकी हो।"
"मैं बात नहीं हारी।"
"यह तलवार कैसे बाँधी जाएगी? कमर नापनी पड़ेगी या नहीं? इससे कुछ समझ में नहीं
आया? राजे से बातचीत हँसी-खेल है? हम बगल में रहेंगे, इससे तुमको इशारा कर
दिया गया, तुम्हारी मंजूरी ले ली गई, इतनी दूर तुम निकलकर आ गईं। यहाँ हम पकड़
जाएंगे, तो कोई क्या कहेगा? ये दोनों इतनी रात को यहाँ क्या करते थे, क्यों आए
थे, इनका आपस में क्या रिश्ता है? हम तभी बच सकते हैं हम मियाँ-बीवी-तुम रानी,
हम राजा। वहाँ तुमसे क्या कहलाया जाना है?"
बुआ झेंपी, मगर यह झेंप मंजूरी नहीं।
"हम तुम्हारी कमर नापें?"
"हे भगवान् !" बुआ अंतरात्मा से रोयीं।
"कौन हो तुम?".रुस्तम के पास पहुँचकर किसी ने पूछा। भरी आवाज।
रुस्तम डाल की ओर बढ़ा और मूठ पकड़कर तलवार निकाल ली- "सुअर, कौन है तू?"
पूछा।
तलवार के निकलते ही पिस्तौल की आवाज हुई, मगर आदमी के निशाने पर नहीं; मर्द का
गला गरजा, "भग यहाँ से, या रख तलवार, नहीं तो खाता है गोली।"
रुस्तम भगा। बागीचे में पहले जैसा सन्नाटा छा गया।
प्रभाकर डेरे पर आ रहा था। यही उसका रास्ता था। आते हुए देखा। बुआ से पूछा,
"आप कौन हैं?"
घबराहट के मारे बुआ का बोल बंद हो गया, प्रभाकर खड़ा रहा। धैर्य देकर पूछा,
"आप कौन हैं?"
"हम बुआ।" लड़की के स्वर से, रक्षा पाने के लिए, बुआ ने कहा।
देर अनुचित है सोचकर प्रभाकर ने कहा, "बचना है तो हमारे साथ आइए।"
"यह तलवार ले लूँ।"
तलवार एक और है, समझकर प्रभाकर चौंका। कुछ समझ में न आया। कहा, "हमारी निगाह
में अब तलवार का जमाना नहीं रहा। जिनकी तलवार होगी, वे ले लेंगे। यहाँ इस आदमी
के अलावा और कोई था?"
"और कोई नहीं।"
"यह कहाँ से तुमको ले आया?"
"मुन्ना ने इसके साथ कर दिया था और बहुत से काम करने के लिए कहे थे।"
"किसके खिलाफ?"
"राजा के।"
"आदमी किनके?"
"राजा के।"
"तरफदारी किनकी?"
"रानी की।"
"अच्छा।" प्रभाकर मुस्कराया।
"आपको रहना मंजूर है या हमारे साथ चलना?"
"हम एक छन इस नरकपुरी में नहीं रहना चाहते।'
"हमारे साथ आइये।"
प्रभाकर बढ़ा। बुआ पीछे हो लीं। तालाब के किनारे बुआ को खड़ा किया। दो-एक सवाल
और पूछे। समझ की निगाह उठाई और अपने जीने की ओर चला।
कोठी पर कमरे में गया। दो साथियों को बुलाया। कहा, "बाहर एक औरत है। ललित,
उसको लेकर बेलपुर जाओ। हम दो-तीन दिन में आते हैं। महराजिन बताना। भेद न देना।
बाहरवालों से मिलाना मत। काम किए-कराये जाना। इसको भी लगाए रहना। मामला रंग
पकड़ रहा है। यहाँ से आजकल में बोरिया-बधना समेटना है। प्रकाश ताली लगाकर चले
आएँगे। गढ़ की चारदीवार में बहुत से दरवाजे हैं। हमारे की ताली दूसरे के पास
भी है या नहीं, सही-सही नहीं मालूम।"
साथियों को लेकर प्रभाकर नीचे उतरा। चिंता की हल्की रेखा मन पर। बुआ के पास
पहुँचकर कहा, "इस आदमी के साथ चली जाओ, यह जैसा कहे करो। कोई हाथ नहीं उठाएगा।
बाद को जहाँ कहिएगा पहँचा देगा।" बुआ को जान पड़ा, एक अपना आदमी, जिसको औरत
अपना आदमी कह सकती है, बोला। वे सहमत हुईं।
प्रकाश ताली लेकर चला।