आमों की राह से होते हुए गुलाबजामुन के बाग के भीतर से मुन्ना पालकी ले चली। कई दफे आते-जाते थक चुकी थी। उमंग थी। एक नयी दुनिया पर पैर रखना है। लोगों को देखने और पहचानने की नयी आँख मिल रही है। खिड़की पर कहारों और पहरेदार को हटाकर दरवाजा खोलकर प्रभाकर को ले गई। पंखे से समझ गई, रानी साहिबा उसी बैठके में हैं। बड़ेवाले में ले गई। प्रभाकर ने देखा, एजाजवाले बँगले से यह आलीशान और खुशनुमा है। बड़ी बैठक है।
छप्परखाट बड़ी, मेजें बड़ी। आईने बड़े, फूलदानियाँ बड़ी। दरवाजे बड़े। झूलें बड़ी। सनलाइट की बत्तियाँ भी बड़ी। अधिक प्रकाश, अधिक स्निग्धता, अधिक ऐश्वर्य, अधिक सजावट। संगमरमर का फर्श, खुला हुआ, हिंदूपन के चिह्न। दीवारों और छतों पर अत्यंत सुंदर चित्रकारी। प्रभाकर को चाँदी की कुर्सी पर बैठालकर पास एक सोने के डंडेवाली गद्दीदार कुर्सी रख दी। प्रभाकर साधारण दृष्टि में बड़प्पन लिए हुए देखता रहा। मुन्ना रानी साहिबा के कमरे में गई। हाथ जोड़कर खबर दी।
रानी साहिबा ने हार पहना देने के लिए कहा। फिर दूसरी दासी से घंटे भर में भोजन ले आने के लिए कहा।
हार पहनाकर मुन्ना ने कहा, "रानीजी आ रही हैं। जूतियों की मधुर चटक सुन पड़ी।
प्रभाकर ने देखा, एक सुश्री सुंदरी आ रही थीं। समझकर कि रानी हैं, उठकर खड़े हो गए। हाथ जोड़े। रानी साहिबा ने म्लान नमस्कार किया। अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गईं। मेहमानदारी के विचार से आँचल गले में डाल लिया था।
प्रभाकर की ऐसी कुर्सी थी कि सनलाइट का प्रकाश मुँह पर पड़ता था। रानी साहिबा मुँह देखकर बहुत खुशी हुई।
हवा के साथ बाहर के बागीचे से फूलों की खुशबू आ रही थी। उनके आने पर उस बैठक में पंखा चलने लगा।
"आपका शुभ नाम?" रानी ने पूछा।
"जी, मुझको प्रभाकर कहते हैं।"
"आप यहाँ हैं, हमको न मालूम था। कितने दिनों से हैं?"
"यह आप राजा साहब से..." प्रभाकर सहज लाज से झेंपे।
"आपका इधर राजा साहब के बँगले जाना नहीं हुआ?"
"जा चुका हूँ।"
"उसको देखा होगा?"
"जी, हाँ।"
रानीजी को एक धक्का लगा। सँभालने लगीं। कहा, "हम मँज गए हैं। उससे भी मिले?"
"जी, हाँ, मिले।"
रानी साहिबा झेंपी। कहा, "बाजार का अच्छा माल है। राजा साहब खरीदेंगे तो अच्छा देखकर।"
प्रभाकर खामोश रहे। जब्त करते रहे। कहा, "आदमी की पहचान मुश्किल है।"
"हाँ।" रानी साहिबा ने कहा, "हमने देखा है, कलकत्ते में, मगर फूटी आँख। तारीफ थी। उससे क्या काम?"
"तरफदार बनाना।"
"आप दमदार हैं। गला बतलाता है। पहले किसी से बातचीत ऐसी ही मिल्लतवाली रहेगी, फिर, दिल में जम गया तो फायदे की सोची।"
शराफ़त-भरे बड़प्पन से प्रभाकर सिर झुकाये रहे। हल्का मजाक किया, "राजा साहब को चाहिए था, पहले आपसे मिलाते।"
"हम खुद मिल लिए। राजा साहब का कुसूर हट गया।"
"जी।"
रानी साहिबा ने पूछा, "आप सिगरेट-पान शौक फ़रमाते हैं?"
"पान खा लूँगा।"
मुन्ना एक बग़ल खड़ी थी। रानी साहिबा ने देखा, वह गिलौरीवाली तश्तरी उठा लायी।
प्रभाकर के सामने मेज पर रख दी। प्रभाकर ने पान खाए। मुन्ना हटकर अपनी जगह खड़ी हो गई।
"आप कब तक कलकत्ता रवाना होंगे?" रानी साहिबा ने पूछा।
"दो ही दिन में, अभी समय का निश्चय, नहीं किया। ज़रूरी काम है।"
"कैसा काम आपके सिपुर्द है, क्या आप बतलाएँगे?"
"अभी नहीं। काम आपके फायदे का है।"
"आपकी हम क्या मदद कर सकते हैं?"
"सहयोग।"
"यह तो यों भी है। आप हमारे घर हैं। आपको नहीं मालूम, हम ऐसी हालत में आपके दोस्त रहेंगे या दुश्मन।"
"सही।"
"आपकी हमारी बातचीत पक्की, मगर राजा साहब से हमारा भेद न खुले।"
"हम ऐसा काम नहीं करते। भेद एक ही है हमारा। उससे आपको फ़ायदा होगा। आप अपनी परिचारिका से समझ लें, जो हमको ले आई है। फिर हमारे काम से, जो हर तरह नेकचलनी का है, आप मददगार हों; राजा साहब भी हैं; आपकी और उनकी पटरी इस तरह बैठ जाएगी।"
"मदद की सूरत क्या हो?"
"आपके यहाँ हमारे केंद्र हैं, देशी कारोबार बढ़ाने के; आप महिला होने के कारण उनकी स्वामिनी; गृहलक्ष्मी शब्द का उपयोग आप ही लोगों के लिए होता है; आप उसकी चारुता बढ़ाने, प्रसार करने में सहायता करें। देश में विदेशी व्यापारियों के कारण अपना व्यवसाय नहीं रह गया। हम उन्हीं के दिए कपड़े से अपनी लाज ढकते हैं; उन्हीं के आईने से मुँह देखते हैं; उन्हीं के सेंट, पौडर, लेवेंडर, क्रीम लगाते हैं; उन्हीं के जूते पहनते हैं; उन्हीं की दियासलाई से आग जलाते हैं।
ब्राह्राण की आग गईं; क्षत्रिय का वीर्य गया; वैश्य का व्यापार चौपट हुआ। यह सब हमको लेना है। इसी के रास्ते हम हैं। बंगभंग एक उपलक्ष्य है। दूसरे प्रांत अभी बहुत नाग्रत नहीं, तो कांग्रेस में सभी हैं, यह स्वदेशीवाला भाव हमको
घर-घर फैलाना है। आप गृहलक्ष्मी तभी हैं। इस समय रानी होकर भी दासी हैं। आपके घर की तलाशी ली जाएगी तो अधिकांश माल विदेशी होगा। आप इसी में हमारी मदद करें।
आपकी सहानुभूति भी हमारे लिए बहुत है।" मुन्ना खुश हो गई। रानी साहिबा दासी हैं, उसको बहुत अच्छा लगा। उसमें रानी का सही स्वत्व आया। वह तन गई।
प्रभाकर कहते गए, "और यहीं से इस उलझन का खात्मा नहीं हो जाता। अर्थशास्त्र की उलझनदार बड़ी-बड़ी बातें हैं, दूसरे मुल्कों से हमारे क्या संबंध रह गए हैं, हम कितने फायदे और कितने घाटे में रहते हैं, बैंक क्या हैं, कारोबार की क्या
दशा है, यह सब एक मुद्दत की पढ़ाई के बाद समझ में आता है। राज्य और राजस्व बिगड़ा हुआ है। इस प्रकार कभी हमारा उत्थान नहीं हो सकता। जाति की नसों में राजनीतिक खून दौड़ाकर एक राजनीतिक जातीयता लाने में कितना श्रम चाहिए, इसका अनुमान आप लगा सकती हैं। मैं आपका एक ऐसा ही सेवक हूँ।"
रानी साहिबा को जान पड़ा, उनका पहला अस्तित्व स्वप्न हो गया है। दूसरा जीवन से उबलता हुआ। देखो, वे मुन्ना से छोटी पड़ गई हैं। मगर उनको बुरा नहीं लग रहा।
हृदय के बंद-बंद खुल गए हैं। मुन्ना खड़ी मुस्करा रही है।
रानी साहिबा ने कहा, "हम आपसे सहमत हैं। आप जैसा कहेंगे, हम करेंगे।"
प्रभाकर सोचते रहे। कहा, "इसकी मार्फत हम ख़बर भेजेंगे और भेजते रहेंगे।"
मुन्ना की तरफ इशारा किया। और कहते गए, "हर एक की अपनी सुविधा होती है। दूसरे की आज्ञा वह अपनी सुविधा को छोड़कर नहीं मान सकता या मान सकती। इसका अनुभव महीने-दो-महीने साथ रहने पर हो जाता है। फिर हमारे बहुत तरह के काम हैं, कौन किस योग्य, इसकी पहचान की जाती है।"
"आप इसकी मार्फत खबर भेज दीजिएगा, और काम बढ़ाते रहिएगा। आज यहीं भोजन कीजिए।
काफी वक्त हो गया। आपको अपनी जगह जाना है।" यह कहकर रानी साहिबा उठीं और अपने पहलेवाले कमरे में गईं। प्रभाकर ने उठकर बिदा किया। पाचक थाली एक मेज से लगा गया था।हाथ-मुँह धुलाकर भोजन से निवृत्त करके मुन्ना प्रभाकर को उसी तरह उनकी कोठी पर