राजा साहब ने देखा कि एजाज का मिज़ाज उखड़ा-उखड़ा है, उन्होंने साजिंदों को रुखसत कर दिया। प्रभाकर को भोजन कराना था, इसलिए बैठाले रहे। काट कुछ गहरा चल गया था; यानी एजाज को राजा साहब चाहते थे, पर दिल देकर नहीं; अगर दिल देकर भी कहें तो भेद बतलाते हुए नहीं। सिर्फ कला-प्रेम था या रूप और स्वर का प्रेम जो रुपए से मिलता है। यही हाल एजाज का। उसके पास धन था, रूप और स्वर भी, पर तारीफ न थी, यह दूसरों से मिलती थी, और उन्हीं लोगों से जो रूप, स्वर और यौवन खरीद सकते हैं। षोडशी होकर जिस समूह में वह चक्कर काटती थी, वह कैसा था, आज प्रभाकरको देखकर उसकी समझ में आया। वह बड़प्पन कितना बड़ा छुटपन है, राजा साहब के बर्ताव से परिचित हुआ। प्रभाकर को न देखने पर वह समझ न पाती कि आदमी की असलियतक्या है। आजकल जैसे उस छुटपन वाले बड़प्पन से उसका छुटकारा न था। आज केपरिवर्तन के साथ प्रभाकर का प्रकाश उसके दिल में घर करता गया। खेल और मज़ाक़दिल नहीं। किसी को बनाना और किसी को बिगाड़ना दिलगीरी नहीं, सौदा है। जो कुछभी अब तक उसने किया वह एक बचत थी। असलियत क्या थी, कहाँ थी, वह नहीं समझ पायी।आज भी नहीं समझी। सिर्फ उसे दिल नहीं माना। टूटी जा रही थी। असलियत असलियत सेमिल गई। प्रभाकर की जैसी शालीनता उसने किसी में नहीं देखी। जो बातचीत सुन चुकीहै, उससे अगर इस आदमी का तअल्लुक है तो ग़जब है यह आदमी -'स्वदेशी !'
एजाज रहस्य मालूम करने के लिए उतावली हो गई। प्रभाकर ने जो गाना गाया, उसमेंप्रदर्शन न था, किसी की परवा नहीं, फिर भी किसी से नफ़रत नहीं। यह अच्छा गानाजानता है, पर अच्छों का प्रभाव नहीं रखता। गाने के संबँध में चढ़ी रहकर भी एजाज चढ़ी न रह सकी। राजा साहब से जो दुराव हुआ था, वह उनके प्रभाकर के लिएहुए प्रेम के कारण था। अब वह एक हार बनकर रह गया। उसको खुशी हुई-'एक कुंजीउसके पास भी है।'
अपमान को भूलकर उसने राजा साहब से कहा, बड़ा रूखा-रूखा लग रहा है- "मत्रकशी?""क्या बुरा?"
राजा साहब जो बाज़ी लगा चुके थे, वह प्रभाकर को बाहर का आदमी नहीं समझ सकतीथी।
एजाज का इशारा मिलते ही गुलशन शीशा और पैमाना ले आई। उसी तरह ढालकर एजाज कोदिया। एजाज ने राजा साहब को। प्रभाकर के लिए लेमनेड आया। एक प्याला पिलाकरदूसरा भरा, तीसरा भरा। राजा साहब खाली करते गए। एजाज भी साथ देती गई। पूरा नशाआ गया। भोजन की थाली आने लगी। तीनों भोजन करने लगे।
"प्रभाकर बाबू से तो गहरे तअल्लुक़ात हैं।""हाँ।" राजा साहब ने कहा।
"हमारे कौन-कौन से फायदे आपसे हैं, हमें मालूम हो तो हम भी साथ हो जाएं। बातहम तीनों की है। हमारी मदद काम कर सकती है।"
"इसमें क्या शक।"
प्रभाकर ने मधुर स्वर से पूछा, "आपके जमींदारी है?"
राजा साहब को प्रश्न बहुत अच्छा लगा। वह स्वयं इतना साधारण प्रश्न नहीं करसकते थे।
एजाज को जवाब देते हुए झेंप हुई। कहा, "अब हमें आप लोगों के सवाल का जवाब देनापड़ता है। पहले हमीं जवाब लेते थे। आते-जाते हमी पहले बोलते थे। हिंदू जवाबदेते थे।"
"इसी डर से हमने हुजूर से बातचीत नहीं की कि हुजूर खुद पूछे।" राजा साहब नेचुटकी लेते हुए कहा।
"ऐसी बात का हमें कोई खयाल न था !"
"कुछ तो होगा ही।" राजा साहब डटे रहे।
"वह बहुत अनुकूल नहीं।"
"हमारे?"
"हाँ।"
"आपके?"
"राज देते रहें तो सरकारी तौर से हो सकती है।"
"राज तो आपने हमें दे दिया।"
एजाज प्रभाकर को देखती रही। प्रभाकर ने कहा, "अब हमारा फ़र्ज़ है, हम आपकीसेवा करें। अभी इतना ही कि हम स्वदेशी।"
"इस राज से हमारी सरकार के यहाँ क़द्र बढ़ सकती है।"
राजा साहब की आँखें झप गईं-'इससे दिल का हाल नहीं कहा।'
एजाज प्रभाकर से सुनने के लिए बैठी रही। प्रभाकर ने कहा, "मैं स्वदेशी कासक्रिय हूँ। सूत, चरखा, करघा, कपड़े तथा ग्रामीण वस्तुओं के प्रचलन का बीड़ाउठाया है। काम करता हूँ। राजा साहब की सहानुभूति है।"
- "जमींदार छोटे-मोटे हम भी हैं। आपसे हमारा स्वार्थ है, हम समझते हैं। हमारेयहाँ एक डाट लगा दी गई है। हमसे आपका उपकार हो सकता है। कुछ राज हमें काम करनेके लिए दीजिएगा।"
राजा साहब बहुत खुश हुए। कहा, "हमारा एक ही रास्ता है।"
"हम बातें आपसे नहीं कर सकते, आज्ञा है। आपने जो कुछ कहा है, उसका कुछ प्रमाणभी हमें चाहिए। यहाँ हम कपड़े के केंद्र मजबूत करेंगे। व्यवसाय बढ़ाएँगे। आपकोअर्थ और अनर्थ के संबंध में काफी जानकारी है।"
"उस तरफ से तो कुछ मिलेगा नहीं।" एजाज ने कहा।
"इस तरफ का भी कुछ न जाना चाहिए। इतना खयाल रखिए, उनके आने के दिन की बातचीतमिल जानी चाहिए।"
"मिलेगी। जमींदार तो हम भी हैं, इतना काफी है। कोई दूसरी मदद?"
"क्या पार्टी को दस्तखत करके नाम दे सकती हैं?"
"यह सोचूँगी, शायद नहीं। पहले की बात होती तो हिम्मत बाँधकर देखती।"
"पुलिस या खुफ़िया का राज यहाँ का है या कलकत्ता का?"
"कलकत्ता का।"
"एक आदमी यहाँ आया है, आपको बता रहा हूँ।" प्रभाकर ने यूसुफ के चेहरे का वर्णन
किया।
"ऐसा ही आदमी वह भी था। पहले-ही-पहल आया था।" एजाज ने कहा।
"आपको यह आदमी कहाँ मिला?"
"गेस्ट-हौस में।"
"किसी दूसरे ने भी देखा?"
"हाँ, उसने देखा जो हमारे साथ है।"
एजाज ने बड़ी-बड़ी आँखें निकाली।
राजा साहब ने खिदमतगार को भेजा। कुछ ही अरसे में दिलावर आया। भीतर बुलाकर राजा साहब ने पूछा, "आपके पीछे किसी को देखा?"
"राज मिल गया है। बाजार में ठहरा है। बाहर का आदमी है।"
"जहाँ-जहाँ जाए, आदमी लगा रक्खो, देखे रहे, मालूम कर ले, असली कौन है।"
"जो हुक्म।" कहकर दिलावर बैठक छोड़कर चला।
"हमारे लिए अच्छा होगा, अगर आप कलकत्ता चली जायँ, आप इस तरह हमारी ज्यादा मदद कर सकती हैं। यह आदमी आपके कारण आया है। क्या राजा साहब यह बतलाएँगे कि हमारा राज किसी को उनसे नहीं मिला।"
"नहीं, नहीं मिला। इनसे हम कहते, लेकिन दूसरे की बात है, इसलिए नहीं कहा।"
"हमें इसका दुःख नहीं।" एजाज दृढ़ हुई।
"हमारी किस्मत।"प्रभाकर ने कहा, "यह आदमी आपके लिए (एजाज की ओर उँगली उठाकर)
आया है। यहाँ इसका कोई आदमी होगा। मुझसे मैनेजर का नाम लिया, मगर मैनेजर से इसकी जान-पहचान भी न होगी।"
राजा साहब सीधे होकर बैठे। प्रभाकर कहता गया, "जिस तरह भी हो, आप-लोगों में किसी से कोई आदमी मिलेगा। अब होशियारी से चलना है।"
राजा साहब चौंके।
"इसलिए कुछ रोज़ जाने की बात न करें। लेकिन जाना बहुत ज़रूरी है। नसीम यहाँ नहीं। इस मामले की वही मुखिया है।"
"यानी?" प्रभाकर ने पूछा।
"अभी हमारी चड्ढी नहीं गठी। यह राज बाद को। आपका असली नाम प्रभाकर है?"
"मैं प्रभाकर हूँ। और मैं कुछ नहीं जानता।"
'आप कलकत्ते में मुझसे मिलेंगे?"
"प्रभाकर ही आपसे मिलेगा।"
राजा साहब को ताल कटती हुई-सी जान पड़ी। हृदय में कोई रो उठा, मगर बैठे रहे। प्रभाकर ने बिदा माँगी। देर हो गई थी। उसके साथी अभी छूटे हुए थे। रहने के लिए उन्होंने संभवतः दूसरा कमरा दूसरे मकान में लिया हो। एक तरह से पकड़ा जाना ही समझना चाहिए। प्रभाकर सोचकर बहुत घबराया।
राजा साहब ने पालकी मँगा दी। प्रभाकर बैठे। राजा साहब ने अतिथि भवन में रखने की आज्ञा दी। दूसरे दिन सबेरे जगह पर भेजने के लिए कहा। दिलावर ने सुन लिया। प्रभाकर ने कहा, "मैं पता लेकर ही जाऊँगा। ये मेरी पूरी मदद करें। ऐसी आज्ञा दे दीजिए।"
राजा साहब ने दिलावर को बुलाकर हुक्म दे दिया।
एजाज के मन से संसार का प्रकट सत्य दूर हो गया। कल्पनादर्श में रहने की आकांक्षा हुई। प्रभाकर का ऐसा व्यक्तित्व लगा जैसा कभी न देखा हो। इसके साथ जिंदगी का खेल है, खिलाफ मौत का सामाँ।