प्रभाकर बहुत काम न कर सके। कुछ किया और कुछ बरबाद कर दिया। भेद खुल जाने कीशंका से इसी रात रवाना हो जाने की सोची। मुन्ना को कह दिया कि अच्छा हो अगररानी साहिबा के साथ या अकेली कलकत्ते में राजा साहब की कोठी पर मिले। घनिष्ठताके लिए पास रहना जरूरी है। अगर दल में आने की इच्छा होगी तो कर्मियों के साथ,अनेकानेक गृहकार्य करने के लिए आ सकती है। मुन्ना ने कलकत्ते में मिलने के लिएकहा।
प्रभाकर आज ही रात रहे लोगों को लेकर बेलपुर रवाना हो गए। रहा-सहा व्यवहार वाला सामान कलकत्तेवाली राजा की कोठी में ले जाने के लिए समझा दिया। रात प्रभातहोते गुकाम पर पहुँच गए।
पौ फटते पहुँचे। बुआ जग गई थीं। स्नान से निवृत्त हो चुकी थीं, दिन-भर घर सेबाहर न निकलती थीं। एक साधारण जमींदार ने जगह दी थी। बाँस के घेरे में मिट्टीलगाकर दीवार बनाकर छा लिया गया था। तीन-चार कोठरियाँ थीं, तीन-चार चारपाइयाँऔर चरखे-करघे आदि। बुआ भोजन पकाती थीं। कर्मी वस्त्र-वयन आदि करते थे। कामजितना था, जोश उससे सैकड़ों गुना अधिक। हिंदू और जमींदारी प्रथा से फँसी जनतासाथ थी। जितना अभाव था, पूर्ति उससे बहुत कम। चारों ओर पूर्ति का मंत्रोच्चारथा। लोगों में भक्ति थी। इससे बुआ का स्वास्थ्य अच्छा रहा। लोगों को एक सहारामिला। राज लेनेवाले जमींदार को भी यह पता न हुआ कि एक औरत आई है।
किरण फूटी। प्रभाकर हाथ-पैर धोकर बैठे थे। दूसरे साथी भी बैठे थे। दरवाजा बंदथा। बुआ प्रभाकर को प्रणाम करने आईं। आंखों में भक्ति और उच्छ्वास, काम की एकरेखा। मुख पर प्राची का पहला प्रकाश। प्रभाकर देखकर खड़ा हो गया। हाथ जोड़करनमस्कार किया। बुआ ने भी किया। प्रभाकर ने पूछा, "कैसी रहीं?"
बुआ ने इशारे से समझाया, "अच्छी तरह।" अभी वे बँगला बोल नहीं सकतीं।
थोड़ी-थोड़ी समझ लेती हैं। यहाँ आने पर उनका मन बिलकुल बदल गया। वहाँ केप्रभाव का दबाव जाता रहा। ललित ने कहा, "थोड़ी सी चाय पिला सकती हैं?"
बुआ चूल्हा जलानेवाली थीं। चलकर जलाया। कर्मी चाय पीते हैं। सामान है। पानीउबालने लगीं। आधे घंटे में बढ़िया चाय बनाकर प्यालों में ले आईं। तश्तरी मेंसुपाड़ी, लौंग, इलायची, सौंफ, जवाइन, मुखशुद्धि के लिए। लोग मुँह धो चुके थे।
चाय पी, लौंग-सुपाड़ी खायी। काम की बातचीत करने लगे, कितना कपड़ा महीने मेंबनकर कलकत्ता जाता है, कितना काम बढ़ाया जा सकता है, लोगों की सहानुभूति कैसीहै, अधिक संख्या में लोग व्यापार के लिए तैयार हैं या नहीं। जवाब मिला,
जमींदार आए थे, दरवाजे पर बैठे थे, कहते थे, सरकारी लोग खलमंडल करते हैं;
कारोबार चलने नहीं देना चाहते; डरवाते हैं, जड़-समेत उखाड़कर फेंक देंगे; सज़ाकर देंगे; बदमाशी के अड्डे हैं, कहते हैं।
प्रभाकर ने कहा- "मिलों का मुकाबला है, मुश्किल मुकाम है; मिलवाले ज़मींदारोंकी तरह इस आंदोलन में शरीक नहीं, सरकार को उनकी तरफदारी प्राप्त है; दलाल हैं ये लोग; विघ्न डालेंगे; देहात के बाजारों में इनका माल आता है; ज्यादातर
विदेशी माल हैं; दुकानदारों को ये लोग बाँधे हैं; माल खपाते हैं; विदेशीबनियों का भी सरकार पर प्रभाव है; वे ज्यादती करने की प्रेरणा देते होंगे;बड़ी मुश्किलों का सामना है। देश के इन गधों से ईश्वर पार लगाए।"
बुआ सुन रही थीं। प्रभाकर से सहानुभूति थी।
ललित ने पूछा, "मछली पका सकती हैं? आज प्रभाकर बाबू को यहाँ के ज़मींदार केतालाब से पकड़कर खिलायी जाए, हम लोग भी खाएं, हम बता देंगे, या हमीं बनाएँगे।"
बुआ ने कहा, "बाद को बना देंगे। हमारे घर में लोग मछली खाते थे। खास तरह की होतो बता देना।"।
ललित एक साथी लेकर मछली की तलाश में गया। बुआ ने आलू-परवल के भाजे, डालना,रसेदार, शकरकंद की इमली और शकरवाली तरकारियाँ पकायीं, दाल बनायी, भात बनाया;
कुल बंगाली प्रकार जैसा बताया गया था। दुपहर तक भोजन तैयार हो गया। मछली भी आई थी, भोजन एक किनारे रखकर उसको भी बना दिया। आसन बिछाए। गिलासों में पानी रखा।
पत्तलें लगाईं। कटोरियों में दाल रखी; मिट्टी के प्यालों में रसेदार तरकारी और मछली। फिर सबको खिलाया। प्रभाकर बुआ के काम से बहुत प्रसन्न हुए। देहात निरापद नहीं, ख़ासतौर से जब यह तैयारी हो रही है।
दूसरे दिन बचकर बुआ को लेकर वे कलकत्ता रवाना हुए। कुछ दूर। चलकर नाव किराये पर की, फिर रेल पकड़ी।