मुन्ना के बतलाए हुए ढंग से बुआ ने एक सफेद साड़ी पहनी। विधवा के रजत वेश से पालकी पर बैठीं। वहाँ के सभी कुछ उन्हें प्रभावित कर चुके थे, पालकी एक और हुई। कहारों ने पालकी उठाई और अपनी खास बोली से कोलाहल करते हुए बढ़े। अगल-बगल दो दासियाँ, पीछे मुन्ना। दो सिपाही आगे, दो पीछे। पुरानी अट्टालिका से नयीचार फर्लांग के फासले पर है। पालकी नयी अट्टालिका के अंदर के उद्यान में आई। गुलाबों की क्यारियों के बीच से गुजरती हुई खिड़की के विशाल जीने पर लगा दी गई। सिपाही और कहार हट गए। जिस बाजू लगी, उधर की दासी ने दरवाजा खोला। मुन्ना पानदान लिए हुए सामने आई और उतरने के लिए कहा। बुआ उतरीं।
दूसरी तरफवाली दासी रानी साहिबा को खबर देने के लिए रनवास चली गई थी। रान साहिबा तख्त की गद्दी पर बैठी थीं। लापरवाही से, ले आने के लिए कहा। उनकी, लड़की, राजकुमारी, बुला ली गई थीं। माता की बगल में बुआवाली चौकी से कुछ हटकर, एक सोफा डलवाकर बैठी थीं।
दासी बुआ को लेकर चली, साथ मुन्ना। बुआ पर प्रभाव पड़ने पर भी मन में धर्म की ही विजय थी। उनका भतीजा ब्याहा हुआ है जिसके इन्होंने पैर पूजे हैं। ये उससे और उसकी माँ से बराबरी का दावा नहीं कर सकते, बुआ तो उनके इष्टदेवता से भी बढ़कर हैं।
भाव में तनी हुई बुआ रनवास के भीतर गईं। वह समझे हुए थीं, समधिन मिलेंगी, भेंट देंगी, आदर से ऊँचे आसन पर बैठालेंगी, तब उससे कुछ नीची जगह पर बैठेंगी। जाति की हैं, जाति की बर्ताववाली बातें जानती हैं, इसीलिए मुन्ना की बातें कुछ समझकर भी अनसुनी कर गई थीं; सोचा था, यह बंगालिन हमारे रस्मोरिवाज क्या जानती है? पर भीतर पैर रखते ही उनके होश उड़ गए। रानी साहिबा पत्थर की मूर्ति की तरह मसनद पर बैठी रहीं। एक नजर उन्होंने बुआ को देख लिया, उनके चेहरे का सुना हुआ वर्णन मिलाकर चुपचाप बैठी रहीं। राजकुमारी ने आँख ही नहीं उठाई। एक दफे माता को देखकर सिर झुका लिया। मुन्ना ने भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर रानी साहिबा को, फिर राजकुमारी को प्रणाम किया। बड़े सम्मान के स्वर से बुआ को परिचय दिया-महारानीजी, राजकुमारीजी।
बुआ पसीने-पसीने हो गईं। कोई नहीं उठीं, उनकी बहू को भी यह सीख नहीं दी गई। पद की मर्यादा सर हो गई। चुपचाप दो रुपए निकाले और बहू की निछावर करके मुन्ना को देने के लिए हाथ बढ़ाया। मुन्ना घबराकर उन्हें देखने लगी। लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। यह रानी साहिबा का अपमान था।
रानी साहिबा देखती रहीं। चौकी की तरफ उँगली उठाकर बंगला में बैठने के लिए कहा। बुआ को यह और बड़ा अपमान जान पड़ा। आसन नीचा था। उनकी नसों में बिजली दौड़ने लगी। वह द्रुत पद से मसनद के सिरहाने की तरफ गईं और तकिए के पास बैठकर रानी साहिबा की आँख से आँख मिलाते हए कहा, "समधिन, हम वहाँ नहीं बैठेंगे। वह जगह
तुम्हारी है। अगर बड़प्पन का इतना बड़ा अभिमान था तो गरीब का लड़का क्यों चुना?" रानी साहिबा का पानी उतर गया। अपमान से बोल बंद हो गया। क्षमा उनके शास्त्र में न थी। दाँत पीसकर आधी बंगला आधी हिंदी में कहा, "तुम्हारा नाक पर
क्या है, तुम्हारा गाल पर किसका दाग है?" "यहीं की तरह औरत पर हुए अपमान के दाग हैं। लेकिन हमारा चेहरा तुम्हारे दामाद से मिलता-जुलता भी है? -जैसा हमारा, हमारे भाई का, वैसा ही उसका; वह चेहरा भी ब्याह से पहले तुम लोगों को कैसे पसंद आ गया?" रानी साहिबा पर जैसे घड़ों पानी पड़ा। राजकुमारी झेंपकर उठकर चल दीं। शोर-गुल होते ही कई दासियां दौड़ीं। रानी साहिबा ने बुआ को उसी वक्त ले जाने की आज्ञा दी।
बुआ दूसरे कमरे में ले जायी गईं। बाँदियों ने अपनी एक चटाई बिछा दी। बुआ ने वहाँ कोई विचार न किया। बैठ गईं। रनवास गर्म हो रहा था। राजकुमारी ने अपने पति से शिकायत की-बुआजी असभ्य हैं। दामाद साहब के मन में यह धारणा जड़ पकड़ चुकी थी। उन्होंने बात को दोहराया। अब रानी साहिबा भी आ गईं और अतिशयोक्ति अलंकार
का सहारा लिया।-बुआ रानी साहिबा पर चढ़ बैठी, गद्दी का सरहाना दबाकर उनका अपमान किया, अपशब्द कहे, रानी साहिबा ने उन्हें अपनी पालकी भेजकर बुलाया था, बैठने के लिए चंदन की जड़ाऊ चौकी रखवायी थी, भूत झाड़ने की तरह एक या दो रुपए लेकर राजकुमारी के सिर पर मुट्ठी घुमाने लगी, फिर मुन्ना दासी को देना चाहा, दासी ने नहीं लिया, वह कैसे ले सकती थी, फिर तरह-तरह की बातें सुनायीं जो गालियों से बढ़कर थीं। दामाद साहब ने सलाह दी, अब बिदा कर देना चाहिए। रानीसाहिबा इस पर सहमत नहीं हुई। कहा -आदमी बनाकर भेजना अच्छा होगा। फिर कहा, जाएगी भी कहाँ? -तुम्हारी सगी बुआ है, अदब-करीने सीख जाएगी तो विभा (विभावती राजकुमारी) की मदद किया करेगी। रानी साहिबा की सहानुभूति से दामाद साहब ने प्रसन्न होकर सम्मति दी।
एक दूसरे कमरे में रानी साहिबा ने मुन्ना को बुलाया और बुआ के सुधार के लिएआवश्यक शिक्षा दी। मुन्ना ने उनसे बढ़ाकर कहा कि लाख बार समझाने पर भी बुआ नेकहना नहीं माना। मुन्ना रोज बीसियों दफे उन पर रानी साहिबा का बड़प्पन चढ़ाती थी; पर वह सुनी-अनसुनी कर जाती थीं। रानी साहिबा नेअब के उपदेश के साथ अपनेसम्मान से काम लेने के लिए कहा, जैसे स्वंय वह रानी साहिबा हो। इस बार बड़ी पालकी की जगह साधारण चार कहारोंवाली पालकी भायी। सिपाही और दासियाँ नदारद, सिर्फ मुन्ना। बुआ चुपचाप बैठकर चली आईं।