भारतीय संस्कृति में जन मानस में धार्मिक आस्था
भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब
से पश्चिम तक अनगिनत जातियाँ हैं | उन सबके अपने अपने कार्य व्यवहार हैं, रीति
रिवाज़ हैं, जीवन यापन की अनेकों शैलियाँ हैं, अनेकों पूजा विधियाँ हैं, उपासना के
पंथ हैं और अनेकों प्रकार के कर्म विस्तार हैं, तथापि उनका धर्म एक ही है |
क्योंकि उन सभी को धर्म के दश लक्षण समान रूप से स्वीकार हैं – धृति क्षमा दामो अस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह, धीर्विद्या
सत्यमक्रोध दशकं धर्मलक्षणं |” और यह जो कार्य व्यवहार में अनेकरूपता
दिखाई देती है उसका कारण है स्वभावगत और परिस्थितिगत विभिन्नता | जीवन का क्षेत्र
बहुत व्यापक है | मनुष्य को जन्म से मृत्यु तक अनेक अवस्थाओं को पार करना पड़ता है
| अतः देश काल अवस्था पात्र आदि के भेद से व्यवहार में अनेकरूपता आ जाती है और
कार्यक्षेत्र में प्रयत्नों के अनेक भेद हो जाते हैं | उदाहरण के लिये अन्तर्मुख
होने का जैसा प्रयत्न पूजा के आसान पर हो सकता है वैसा भोजन के आसन पर नहीं |
प्रत्येक कार्य में अन्तर्मुखता बनी रहे और मानसिक पवित्रता सुरक्षित रहे इसके
लिये ही इतने कर्म विस्तार हैं |
यहाँ एक तथ्य यह भी विचारणीय है कि
मानव की प्रकृति भी उसी प्रकार विकारी है जिस प्रकार विश्व के अन्य पदार्थ विकारी
हैं | इसीलिये मनुष्य आदर्शों से अलग भी हटता है और उन आदर्शों के नाम पर ही अपने
दम्भ का प्रसार भी करता है | जब दम्भ के द्वारा आदर्श आच्छन्न हो जाते हैं तो
महापुरुष उस दम्भ का संशोधन करते हैं और ये संशोधन ही नवीन सम्प्रदाय बन जाते हैं
तथा धर्म के नाम से पुकारे जाने लगते हैं | दम्भ का संशोधन करने वाले महापुरुष समाज
की तात्कालिक विकृति को दूर करने के लिये देश और काल की परिस्थितियों के अनुसार
अलग अलग साधनों को प्रमुखता देते हैं | कभी सत्य को, कभी अहिंसा को, कभी अस्तेय
त्याग ब्रह्मचर्य आदि को | क्योंकि ये ही सार्वभौमिक धर्म हैं | इन नये सम्प्रदाय
प्रवर्तकों ने कभी यह नहीं कहा कि वे कोई नया धर्म चला रहे हैं | महापुरुषों
द्वारा इन्हीं सार्वभौमिक धर्मों की शिक्षा मानव को दी गई न कि किसी सम्प्रदाय
विशेष की | किन्तु धर्म विमुख लोगों ने उनके इस मार्ग में रुकावटें डालीं और
संकीर्ण साम्प्रदायिक भावों तथा असहिष्णुता को जन्म दिया | इसी ने जन मानस की
नैतिक भावना को एक ऐसा बहाना दे दिया कि वह अपनी सर्वोच्च प्रकृति और नियम नीति के
प्रति विद्रोह कर उठा |
यहाँ तक जो कुछ कहा गया है वह धर्म का
स्वरूप स्पष्ट करने के लिये कहा गया है | ऐसा नहीं है कि इस युग में धर्म पर से
आस्था और विश्वास बिल्कुल ही उठ गया है | अधिकाँश जन मानस आज भी जीवन मरण, लोक
परलोक, ईश्वरीय विधान आदि पर आस्था रखता है | नवीनता के बहाव में बहकर भी उसे यह
होश अवश्य है कि उसकी सुरक्षा का एकमात्र साधन धर्म ही है | आज भी वह प्रेम,
त्याग, सज्जनता, सहिष्णुता, दयालुता आदि में आस्था रखता है और यह मानता है कि
सच्चा ईश्वरीय राज्य राम और कृष्ण के आदर्शों से ही प्राप्त हो सकता है | इन
आदर्शों को प्राप्त करने के लिये गीता रामायण आदि से ही प्रेरणा प्राप्त हो सकती
है | पुनर्जन्म और मुक्तिवाद की सम्पत्ति आज तक भी इस देश में सुरक्षित है |