भोर की रक्त पीत आभा
भोर की रक्त पीत आभा मात्र अनुभूति ही नहीं होती, वह होती है उतनी ही वास्तविक जितना रात्रि का अन्धकार... रात्रि के अन्धकार को ही भगा भोर या उषा या प्रात की गोधूलि वेला या सन्ध्या की वेला या जिसे तड़का कहा जाता है - आगे आते
हैं... भोर की प्रथम किरण ही धीरे धीरे युवा होती जाती है और दिन में पूर्ण यौवन पर आ जाती है... यही तो नियम है प्रकृति का भी... जीवन का भी...
भोर की धीरे धीरे प्रकट होती रक्त पीत आभा / नहीं है मात्र काल्पनिक अनुभूति
वास्तविक है रात्रि के अन्धकार जैसी ही / जिसे भगा भोर आती है उषा के साथ...
शनैः शनैः कर देती है निछावर अपना कौमार्य / और बन जाती है एक युवती...
लिपट कर आलिंगन में प्रियतम सूरज के / करती है प्राप्त पूर्णता को
जब प्रियतम संग अठखेलियाँ करती / देती है जन्म एक दिवस को...
किन्तु नहीं सुहाता सहोदरी संझा को / भोर का ये सौभाग्य...
तभी तो आ जाती है वो भी आगे करके / अपनी सखी / साँझ की गोधूलि को
पीछे धकेलती दिन के उजाले को...
ढाँप लेती है समग्र को आवरण में अपने
और स्वागत करती है उत्साह के साथ अन्धकार का रात्रि के...
पर भोर भी कहाँ रह पाती है शान्त / नहीं मानती हार कभी भी
होती है विजयी / पुनः पुनः विजयी
क्योंकि प्राप्त होता है उसे प्रियतम आदित्य का स्नेहालिंगन...
चलता रहता है यही क्रम निरन्तर
परास्त करने को भोर को / होता है द्वंद्व अन्धकार और प्रकाश के मध्य
आगमन से पूर्व उषा के...
और तब विजयी होता है प्रकाश
चिहुँक उठती है भोर / पंछियों के धीमे धीमे कलरव के स्वर में
कर उठती है नृत्य नवल मलयानिल की लय पर...
नहीं होती कभी उदास व्यवहार से सहोदरी संझा के
क्योंकि है परिचित निशा के परिहास से...
जो छिपा लेती है क्रीड़ा हित प्रकाश को आँचल में अपने
देखने को द्वन्द्व अन्धकार और प्रकाश का...
चाहती है विजय प्रकाश की
तभी तो परास्त होते ही अन्धकार के / तुरन्त हटा देती है आँचल मुख से वत्स प्रकाश के
और देती है आमन्त्रण भोर वधूटी को
कि आओ, मनाओ उत्सव मिलन का / निज प्रियतम के साथ
और जन्म दो एक और नवीन दिवस को / हो जाने को पूर्ण...
और तब लजाती सकुचाती भोर / रक्त पीताभा से सज्जित
दौड़ी चली आती है मिलने प्रियतम आदित्य से...
फिर फिर बनती है युवती / पहुँचता है प्रेम पराकाष्ठा को अपनी
जो देकर जन्म और एक दिवस को / धीरे धीरे प्राप्त होता प्रौढ़त्व को
स्वीकार करता है वृद्धत्व को भी / उसी आनन्द के भाव से
और चली जाती है भोर पुनः कुछ पल विश्राम के लिए
ताकि प्राप्त कर सके फिर से नवीन ऊर्जा / पुनः मिलन के लिए
और बन सके जननी पुनः एक नवीन दिवस की...
यही है नियम प्रकृति का... जीवन का... सुख और दुःख का...
शाश्वत... सत्य... चिरन्तन...
-----------------------कात्यायनी....