कांप गए सब वायवीय, कांपी धरती पाताल गगन l
खींच रहे थे दुष्ट हाथ, कांपे कुरुओ के विचलित मन ll
भीष्म, द्रोण, कृप नर से नर, अंधों के अंधे ठगे रहे l
वे बलशाली, वे धनुधारी, वे समय चक्र को रहे सहे ll
विकराल ज्वाल की लपट सदृश वे देख रहे बढ़ चली चीर l
नर बैठे जितने सभा मध्य, उर बीच तड़पती रही पीर ll
बढ़ती ही जाती चीर वस्त्र मानो उगता नभ वीर उदय l
हो रहा प्रबलतम तेज-पुंज, अब ह्रदय सभी के नहीं अभय
चहुँ ओर प्रसारित चीर अग्नि, ब्रम्हांड पूर्ण हो गया अंत l
वीरों के भुज बल का प्रवाह, हो गया चूर्ण, हो गया अंत ll
वह चीर धरा विस्तार गगन, वह कहाँ चली न ओर-छोर l
वह सागर में विस्तार मगन, वह कहाँ छली न ओर-छोर ll
मन में फैली, मन में व्यापक, मन के अंतर्गत भेद चली l
भीषण रौरव कर तीव्र चमक, मन में पिघलाती खेद चली l
आँखों के सम्मुख चीर-चीर, बस चीर, नहीं है अंग प्रकट l
लो देखो! पूरी सभा ढकी, वस्त्रों में केवल वस्त्र विकट ll
सिर झुके हीन बल बाहु, नहीं कर सके कर्म कुछ निर्बल l
बलशाली थे सब वीर वहां वे मनुज कहाँ उनके थे बल ll
काल-काल-विकराल-दंड-कोदंड प्रलय अति भारी l
यह मूढ़ सभा अन्याय दुष्ट अविलम्ब चलेगी आरी ll
यह अग्नि सुता यह तेज़ पुंज लपटें कराल कुलघालक l
कुरु वंश मूल जड़-चेतन तक हो नष्ट कौन प्रतिपालक ll
यह चीर हरण अधिकार कौन किसका प्रवाह मरता है l
हे दुर्योधन, हे दुःशाषन, अब प्राण काल हरता है ll
यह गगन धरा, पाताल लोक, नक्षत्र लोक भी साक्षी l
यह पाप कर्म, अन्याय धर्म विपरीत महत्वाकाक्षी ll
चेतन-अवचेतन, जीव-जगत, सब प्राण हीन अवशेषी l
ले देख स्वयं नर सभी यहाँ, अपने तन में जड़ शेषी ll
सब खड़े हुए सब जड़े हुए, सब मूल विकारो से तपते l
सब नग्न, वस्त्र से हीन मनुज, लज्जा से अपने को तकते l
रे! ठहर दुःशासन, धर्म हीन दुर्योधन बल से हीन नीच l
क्या नहीं धसेगी धरा? यहाँ केवल है केवल कीच-कीच ll
यह धरा ढकी, है ढका गगन पाताल लोक सुर लोक ढका l
यह विश्व थका, ब्रम्हांड थका, अविराम चेतना धाम थका l
यह धरा यदि हो नग्न गगन के प्राण ढके उसको तन कर l
हो निर्मल सरिता सलिल बहेगे प्रस्तर से बह कर छन कर ll
यह सभा हुई सम्मान हीन, सम्मान योग्यता पालक थे l
अब रहे किसी का मान नहीं, जो स्वयं-स्वयं के चालक थे l
रे देख! दुःशासन दुर्योधन बल तेरा कितना कायर है l
अब देख संभल जा चीर यही इसके सम्मुख तू कातर है ll
अब प्राण नहीं, बस प्राणहीन, लोथो पर लोथ गिरेगे अब l
जल जैसे शोणित मानव जन, पानी-पानी बरसेंगे अब ll
सुन रे ! दुर्योधन नारी का अपमान किया तूने छल से l
अब वही अग्नि-ज्वाला बनकर, कर देगी भस्म तुझे बल से
अब तन ले चाहे तू जितना, बस काल तेरा आने वाला l
है काल-सर्प, विकराल तुझे, बस क्षण भर में खाने वाला ll
बस, रोक दुःशासन, देख वहां वह पीतवर्ण अंगरक्षक है l
जल जायेगा हो भस्म, नराधम वह तेरा अब भक्षक है ll
ले संभल धर्म का त्याग किया, यह पीत वर्ण अब आएगा l
जो तनिक इसे स्पर्श किया, तू काल-गाल में जायेगा ll
रुक गए हाथ बढ़ गया तेज़, वह दिव्य पुंज जाज्वल्यमान
सब बंद हुए जो खुले नेत्र क्षण भर में ही घट गया मान ll
वस्त्रों में वस्त्र ढकें सबको, ढक गयी द्रौपदी क्षण भर में l
श्रद्धा से नत हो गयी सभा रुक गयी चीर उसके कर में ll
कह रहे कृष्ण सुन कान लगा अब हुआ कर्म का पतन यहाँ
यदि मिला नहीं कुछ दंड इन्हे तो हुआ धर्म का पतन यहाँ l
कह रहा सुनो मैं धर्म त्याग जो कर अधर्म विष पालेगा l
युग चाहे जो हो कृष्ण रूप आ उसके प्राण निकालेगा ll
इसलिए सुनो ही सभा जनों नारी मानव की शोभा है l
इस पर ही तुम सब गर्व करो, यह नहीं किसी की लोभा है ll
वह चाहे जो भी रूप धरे, उसका ही है सम्मान-मान l
सब प्रगति वहीं थम जाएगी, यदि हो जाए उसका अवसान ll
नत-मस्तक हो कृशकाय कांत सब वंदन करते थे उनका l
तब शांत-चित्त हो गयी सृष्टि अभिन्दन करते थे उनका ll
-अजय श्रीवास्तव 'विकल'