कितना है मन का विस्तार !
वृक्षों की शाखाओं का l
चिडियो की आशाओं का l
मानव की दुविधाओं का l
मिलता नहीं है उसको पार l
कितना है मन का विस्तार !
नदियों की धारा बहती है l
और किनारों को सहती है l
सागर से मिलकर कहती है ll
उसकी होती कभी न हार l
कितना है मन का विस्तार !
समय चक्र ऐसे चलता है l
कौन कहाँ कैसे पलता है l
मिलन नहीं फिर भी मिलता है ll
ऐसा ही है उसका प्यार l
कितना है मन का विस्तार !
जो कुछ अपने पास नहीं है l
जो कुछ उसकी आस नहीं है l
कहते हैं विश्वास नहीं है ll
थाह मिले न उसे अपार l
कितना है मन का विस्तार !
सोचो संग में क्या जायेगा?
जीवित रहते क्या आएगा?
मन को कितना समझायेगा !
क्या उसको होगा स्वीकार?
कितना है मन का विस्तार !
मन ही मन में वह जीती है l
कितने आंसू वह पीती है l
सम्बन्धों को वह सीती है l
ऐसा है माँ का संसार l
कितना है मन का विस्तार !
कुटियों के मंदिर हैं कितने l
पूजा के मंदिर हैं जितने l
लगते हैं कौड़ी में बिकने l
देते हम उनको आभार l
कितना है मन का विस्तार !
सुबह सबेरे उसका जाना l
दिन भर उसका स्वेद बहाना l
फिर भी उसको क्या मिल पाना l
छोटा सा उसका घर-बार l
कितना है मन का विस्तार !
ज़ब तक उसका तन रहता है l
भीतर मन के दुख सहता है l
कर्मवीर कुछ न कहता है l
वही पिता का है आकार l
कितना है मन का विस्तार !
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'