दास युक्त जीवन मानव का जीवन ही अभिशाप है l
मन स्वाधीन नहीं हो अपना अविकल है संताप है ll
स्वर्ण निकेतों के पिंजरे में स्वांस कहाँ से आएगी l
बंधे हुए जीवन में सुख की आस कहाँ से आएगी ll
पल-पल प्रतिपल ह्रदय डूबता पँख नहीं उड़ पाते हैं l
मन के अंग बिखरते नित ही कभी नहीं जुड़ पाते हैं ll
जलता है जीवन पल-पल ही नर्क सदृश ही ताप है l
मन स्वाधीन नहीं हो अपना अविकल है संताप है ll
खग भी अपने कुल की हित में आश्रय नहीं बनाते हैं l
करते हैं स्वाधीन तुरत ही पथ नवीन दिखलाते हैं ll
पँख सरल कोमल उड़ते ही नित-नित पौरुष आता है l
तिनका-तिनका मन स्वतंत्र हो अद्भुत गेह बनाता है ll
मन पंछी हो उड़ता नभ में कितना उसका माप है?
मन स्वाधीन नहीं हो अपना अविकल है संताप है ll
सीमाओं में है स्वतन्त्रता मानव की अभिलाषा में l
होता है संताप ह्रदय में बाधा यदि प्रत्याशा में ll
पराधीन के रूप अनगिनत अद्भुत खेल निराले हैं l
पैर बंधे हों पथ पत्थर हो जाने कितने छाले हैं ll
प्राण मुक्त कैसे हो तन से जाने कितना पाप है l
मन स्वाधीन नहीं हो अपना अविकल है संताप है ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'