मैं निकटतम प्रेम का अधिकार पाना चाहता हूँ l
होंठ व्याकुल शब्द के स्वीकार पाना चाहता हूँ ll
चित्र जो तुमने बनाये, वो हमारे मित्र हैं l
शब्द जो तुमने सजाये, वो हमारे चित्र हैं ll
तुम गगन के ह्रदय पर, कुछ भावना के शब्द दो l
तुम सरलतम गीत के कुछ साधना के शब्द दो ll
मैं धरा से गगन का वह प्यार पाना चाहता हूँ l
होंठ व्याकुल शब्द के स्वीकार पाना चाहता हूँ ll
ये समय की रेत है, इसको उठाना देखकर l
गिर रही है देख लो, आंचल में लाना देखकर ll
कल यदि न प्रेम का खिलना हमारे गीत में l
कल यदि न मीत का मिलना हमारे गीत में ll
तुम न हो आकार तो साकार पाना चाहता हूँ l
होंठ व्याकुल शब्द के स्वीकार पाना चाहता हूँ ll
नित्य जीवन साँझ में, तुम रात्रि सी खिलती रहो l
ओस धरती से मिले, तुम इस तरह मिलती रहो ll
ज्यों पवन के सँग परिमल बह रहा था प्यार में l
बुन रहा था वो कली को आँसुओं के हार में ll
चिरप्रतीक्षित प्रेम का अभिसार पाना चाहता हूँ l
होंठ व्याकुल शब्द के स्वीकार पाना चाहता हूँ ll
स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'