संशय मन रीता रहता है l
अभी प्रात ने पलकें खोली l
खंजन से प्राची है बोली ll
कितनी दूर तुम्हें है जाना?
लौट वहीं फिर तुमको आना l
अंतर्मन मेरा कहता है l
संशय मन रीता रहता है ll
जाने कितनी रात बितायी l
नयनों में क्यों नींद न आयी l
खुले गगन में कलरव सोता l
बंद भवन में नीरव रोता ll
मेरा मन यह भी सहता है l
संशय मन रीता रहता है ll
कहने को तेरा भी तन है l
सजल नयन सरिता सा मन है l
विकल मार्ग में अंधकार सा l
पुष्पों के उस मुग्ध हार सा ll
तेरे मन क्या-क्या बहता है?
संशय मन रीता रहता है ll
रातों ने ज़ब दीप जलाये l
दीप कणों को वे न भाये ll
अग्नि जली तो हमने पाया l
भूखा था उसका भी साया ll
पल-पल प्रतिपल वह दहता है l
संशय मन रीता रहता है ll
✍️ स्वरचित :
अजय श्रीवास्तव 'विकल'