कभी-कभी तुम्हारी सरल चितवन,
क्यों मेरे मन में संदेह
जगाती है कि तुम मेरे उतने
पास नहीं हो, जितने
मुझसे दूर?
तुम्हारी प्रत्येक जिजीविषा ने
मेरी भव्यता को उस
दृष्टि से नहीं देखा
जिस दृष्टि से तुमने
मुझे मेरी विवशता में
देखा था l
क्यों तुम्हारे शब्दों में
अंतर आ जाता है,
भावों में क्रूरता आ
जाती है, उस सरलता
और अपनत्व से
कहीं अधिक
जो मेरी अवस्थाओं की
निरीह विवशताओं
में परिलक्षित होती है l
क्या तुमको मेरी
निरीहता से प्रेम है?
क्या तुमको मेरी
विवशता से लगाव है?
तो विश्वास करो
मैं कभी भी
तुम्हारी निकटता से
दूर नहीं जाना चाहता l
तुम निसंदेह
मेरी प्रसन्नता से दूर भागो l
किन्तु मैं, हमेशा
तुम्हारी सहृदयता,
तुम्हारे प्रेम
तुम्हारी निकटता
तुम्हारे स्वार्थ
तुम्हारी सरलता
तुम्हारे अपनत्व
और तुम्हारे अंतर मन
में स्थान पाने के लिए
वह सब ग्रहण कर लूंगा
जो तुमको मेरे
पास लाये
मेरे समीप लाये
क्योंकि अपने सुख
के लिए, मैं
तुमको समय के
गर्त में खोना नहीं
चाहता l
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'