विधु गगन में, सौम्य तन-मन प्रणय शीतल सार है l
कालिमा काजल विभा-तन श्वेत रस मय धार है ll
हो गया उद्विग्न अविरल मन विकल बिन प्रेयसी के l
व्यग्र अलकें चंद्र आभा मन पुलक सँग श्रेयसी के ll
ज्यों गगन वातायनों से चाँदनी गिरने लगी l
सौम्य वसुधा दुग्ध उज्ज्वल तन वसन तिरने लगी ll
क्यों गगन यह मोह त्यागे जो मिला अभिसार है ll
कालिमा काजल विभा-तन श्वेत रस मय धार है ll
ज्यों विरह की वेदना में नायिका व्याकुल हुई l
शीत धवला चांदनी भी अग्नि सी आकुल हुई ll
अश्रु कण भी शुष्क होकर चांदनी की ताप से l
खो गए हिय में उसी के, जा मिले संताप से ll
कर लिया नभ ने धरा के प्रेम को स्वीकार है l
कालिमा काजल विभा-तन श्वेत रस मय धार है ll
तब वही संताप व्याकुल अश्रु कण नभ ने गिराए l
थिर गए धूमिल ह्रदय पर सोमरस शशि ने पिलाये ll
बह गयी उन्माद में उर्वी सुनाती विभा को रागिनी l
प्रात प्राची से अरुण लेता रहा फैली धरा की चांदनी ll
साँझ रस में डूब कर तब ले लिया प्रतिकार है l
कालिमा काजल विभा-तन श्वेत रस मय धार है ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'