भाग 1
तूलिका लिखती रही संसार के प्रत्येक पल में l
ज्ञानदा के कर निहित स्वीकार के प्रत्येक पल में ll
कृष्ण-द्वैपायन विकल थे, लेखनी कैसे चलेगी?
युद्ध के जलते भंवर में, लेखनी कैसे पलेगी?
हो गया उद्धार पल में, मिल गए हेरम्ब उनको l
लेखनी के साथ ईश्वर, मिल गए अविलम्ब उनको ll
लेखनी लिखती रही, प्रतिकार के प्रत्येक पल में l
तूलिका लिखती रही संसार के प्रत्येक पल में ll
कर सुशोभित लेखनी से, ज्ञान संचय हो रहा है l
ज्ञान के नित सूर्य अनगिन, ज्ञान का जय हो रहा है ll
लिख रहे ब्रम्हांड लिखते, विश्व का जयगान लिखते l
ज्ञान के हैं रूप कितने, ज्ञान के प्रतिमान लिखते ll
लेखनी चैतन्य है संस्कार के प्रत्येक पल में l
तूलिका लिखती रही संसार के प्रत्येक पल में ll
लिख रहे श्रंगार वैभव, लिख रहे हम प्रेम बंधन l
लिख रहे नायक प्रतीक्षा, नायिका का प्रेम क्रंदन ll
वीर की हम जय लिखें, जयघोष जन सायक लिखें l
प्राण शोणित कर चले, वह युद्ध जन नायक लिखें ll
रक्त की हर बूँद लिख दें, वार के प्रत्येक पल में l
तूलिका लिखती रही संसार के प्रत्येक पल में ll
भाग 2
मानव के चिंतन से बनकर भव्य हुई यह लेखनी l
पुस्तक, प्रतिमा, कर्ण सुरों में श्रव्य हुई यह लेखनी ll
अक्षर वर्तुल सुन्दर भूषण लेखन रजत प्रसारित हैं l
लिखे हुए अनगिनत विचारों से मानव जन पारित हैं ll
प्रात सूर्य की किरणों जैसे सुगठित शब्दों का सम्मान l
साँझ ढले संतो के जैसे कोई प्रमुदित मन दिनमान ll
बनिक धनिक व्यापार सभी में द्रव्य हुई यह लेखनी l
मानव के चिंतन से बनकर भव्य हुई यह लेखनी ll
चिंतन लेखन नियमित व्यापक, हैं मानव के रूप अनेक l
लिखे हुए अक्षर सुविचारित, निर्मित करते हैं प्रत्येक ll
कटु शब्दों का लेखन विचलित, मानस दर्पण दूषित हो l
सरल, मृदुल भाषा का लेखन, मानस दर्पण भूषित हो ll
जैसा लेखन वैसी ही भवितव्य हुई यह लेखनी l
मानव के चिंतन से बनकर भव्य हुई यह लेखनी ll
खुले विचारों की संस्कृति में, लुप्त पुरातन के संज्ञान l
गुप्त विवशता को क्यों माने, अंतर्मन से हैं अनजान ll
सोच नहीं है व्यापक अब तो, कितनी यहाँ विवशता है l
किसको आगे लाना हमको, जाने क्या परवशता है ll
गुरु शिष्य से आलोकित एकलव्य हुई यह लेखनी l
मानव के चिंतन से बनकर भव्य हुई यह लेखनी ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'