तारों का टिमटिमाता प्रकाश
मुझसे कुछ कहता है
कि तुम इन कृत्रिम प्रकाशों
में कैसे रहते हो
मैंने एक बार ऊपर निहारा
सभी तारे मानो मेरी
विवशता पर हंस रहे हों l
किन्तु मैंने उनमें अपने
उस समय का चित्र
प्रत्यक्ष देखा, जब मेरे
किशोर मन से उनको
आधी रात को निहारा था
एक अनोखी सी मन
को प्रफुल्लित करने वाली
छुवन अंदर तक भेद गई थी l
वही छुवन तब भी थी जब
मैं प्रातः कुहासे से दो चार
होता था l
बाल रवि की वे सुखद
रश्मियां छन कर मेरे
अंग-अंग को भिगोती रही l
उनकी सीधी सपाट
किरणों पर कुहासा
लिपटा, चमकती
नाचती और नीरव
सनसनाहट में प्रफुल्लित होता
मेरा मन, मेरे अंग-अंग का
एक एक पोर उस सुखद
अहसास से एक अनजान
अनुभूति से रोमांचित हो उठता l
X X X X X
ये कौन है जो तुम्हारे शहर में
काले धुंये के बादल
बनाता है?
सुन्दर सपाट पथ पर
कांटे की झाड़ियों के
नगर का स्वामी है l
सूरज की पहली किरण में ही
बारूदों की ताप
जलाता है l
फिर अपनी अस्मिता की
दुहाई देता है l
वाचाल बनकर तुम्हारे
प्रश्नों को आग में
रुई की भांति जला देता है l
कौन है वह जिसने
तुम्हारे शांत, मनोहारी
मनमुग्ध कर देने वाली
धरती को रक्त रंजित कर
द्वेष वैमनस्यता की चादर
खींच देता है?
क्या वह अपना ही है या
कोई पराया l
कौन है जिसने अपने गर्व
का सामना तुम्हारे
गर्व से किया है?
जीत तो उसकी तभी हो पाई
जब तुम्हारा स्वाभिमान
तिरोहित हो चुका था l
और तो और जब
तुच्छ समझ लिया जाता है
किसी विशाल उद्देश्य के
आगे किसी छोटे को l
उसका महत्व तो बस
किसी उद्देश्य पूर्ति का
दास हो जाता है l
X X X X X
आज मेरे सूने से मन में
हलचल हुई l
कोई तो है जो शांत जल में
तरंगें उत्पन्न करता है l
नीरवता जाग गई,
स्वप्न भी स्वप्न देखने लगे l
आँधियों के पँखों पर ही
मैंने भूलवश, तिनकों का
घर बना लिया l
और अपने मन-पँखों को
बाहर उड़ने के लिए
छोड़ दिया था l
मुझे क्या पता था कि
आँधियों के पैर नहीं होते l
समय के आंख नहीं होती l
घोसलों में घर नहीं होता l
चित्र नंगे होते हैं,
वे केवल कैनवास को ढंकते हैं l
मुझे दिखने लगे पैरों के
निशान, और उनकी
गुटबाजी l
आपसी गुटबाजी में ही
बटने लगे हैं अब लोग l
कुछ तो है, नहीं तो
झोपड़ी को आश्वासन देने वाली
अट्टालिका उनकी पड़ोसी
क्यों हो जाती?
आग से खेलने वाली लकड़ी
पानी से कैसे बुझ जाती?
प्रलय लाने वाला पानी
अग्नि में भाप बन कर
क्यों उड़ जाता?
धरती को बहलाने वाला बादल
यह कह कर कि पानी बरसायेगा
सभी तालाबों, नदियों, पोखरों, सागरों
से नमी तक
सोख लेता है और
दोष देता है कि
धरती सूखी है
सुखी नहीं है l
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'