क्या कहें किससे कहें?
देखता हूँ गगन में, अम्बार लगता जा रहा है l
कर्म के व्यापार का, विस्तार जगता जा रहा है ll
कर्म करके फल न मांगो, स्वयं ही मिल जायेगा l
डूबती धरती गगन भी, प्राण भी हिल जायेगा ll
अब समय के क्रूर-घातों को सहें ll
क्या कहें किससे कहें?
चीखते हैं मार्ग, सांसों में घुटन सी हो रही है l
सोचता हूँ यह धरा, अब जाने क्या-क्या खो रही है l
क्या नया है और क्या-क्या, हम नया करते रहेंगे l
बस पुरानी ही प्रथा को, अंत तक भरते रहेंगे ll
अब समय की क्रूर लहरों में बहें ll
क्या कहें किससे कहें?
नित निरन्तर बढ़ रहे, अवसाद मानव के यहाँ l
गूंजते हैं मूर्ख मन के, नाद मानव के यहाँ ll
क्यों यहाँ निर्माण के पल, मानवों के हाथ हैं l
स्वार्थ भूषित गर्व मन भी, मानवों के साथ हैं ll
अब प्रमादों के सृजन में हमें रहें ll
क्या कहें किससे कहें?
वो प्रलय भी सोचता है, क्या यहाँ आना लिखा l
नष्ट होते इस भंवर में, और क्या मुझको दिखा ll
तुम समय को जीत कर, अपनी कहानी के लिए l
क्यों निलय को तोड़कर, अपनी निशानी के लिए ll
अब बिखरते खंडहर से हम लगें ll
क्या कहें किससे कहें?
बुद्धि है विज्ञान है, तुमको समय का भान है l
सभ्यता में सभ्यता, की ही तुम्हें पहचान है ll
तुम हिला दो इस धरा को, कांप जायेगा गगन l
इस तुम्हारे कृत्य से, क्या प्रकृति होगी मगन?
अब बिलखती यह धरा कैसे मिलें?
क्या कहें किससे कहें?
कुछ यहाँ कहना नहीं है, क्या यहाँ सहना नहीं है l
कौन ऐसा कह रहा है, अब यहाँ रहना नहीं है ll
वो संभल कर चल रहा, कि देव-दानव सा लगे l
वो न था निश्छल प्रकृति में, काल मानव सा लगे ll
आँधियों के मध्य रहते पुष्प वे कैसे खिलें?
क्या कहें किससे कहें?
विकृतियां तो मिल गयीं हैं, संस्कारों से यहाँ l
श्वेत वर्णों में मिलें हैं, नर विकारों से यहाँ ll
इस तरह कुछ बन गई, धरती समय की चाह में l
यह पिघलती जा रही है, क्यों समय की आह में ll
कामना के जल रहे अंगार अब कैसे रुकें?
क्या कहें किससे कहें?
सौहार्द है तो प्रेम से मिलना हमारी कामना है l
सौहार्द है तो ह्रदय में खिलना हमारी कामना है ll
किन्तु बोकर विष ह्रदय में कर रहा हमको विकल l
सर्द की ठंडी हवाएं चल रही प्रत्येक पल ll
मार्ग है तो रेत का, चलें तो कैसे चलें?
क्या कहें किससे कहें?
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'