पता नहीं तुम कैसे जीते l
मैंने तो धरती को नापा l
और गगन को भी हैं भांपा ll
निसि-बासर जाग्रत हो करके l
सुरभित कलियों को खो करके ll
तुमको देखा तुम पहले थे l
बीत गए पल आंसू पीते l
पता नहीं तुम कैसे जीते ll 1ll
कल तुम जब साथ चले थे l
मन में कितने स्वप्न पले थे ll
तभी अचानक हाथ छोड़कर l
बरसों का था साथ छोड़कर ll
बाट जोहता मैं पीछे हूँ l
और प्रतीक्षा में सुख बीते l
पता नहीं तुम कैसे जीते ll 2 ll
षड्यंत्रों के भंवर-जाल में l
कर्म खो गए इसी काल में ll
पल-पल मैंने धर्म निभाया l
सुख को त्यागा दुःख ही पाया ll
कर्म-प्रधान विश्व को देकर l
वन-वन भटका हूँ मैं सीते l
पता नहीं तुम कैसे जीते ll 3 ll
पत्थर पथ के मैंने तोड़े l
और दूर करता था रोड़े ll
तपती धरती रहा बिछौना l
गगन मुझे लगता था बौना ll
और तुम्हारे लिए जगत में l
सब कुछ कितना रहा सुभीते l
पता नहीं तुम कैसे जीते ll 4 ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'