समय के आलिंगन मे,
मैं दूर-दूर छिटका रहा l
न जाने कब सिमट गया,
पाकर अपनी
बांहों में,
एक चित्र
जिसमें मैं-मेरा चित्र-मेरी संकल्पना,
मेरे चारों ओर अपना घेरा
बनाकर बैठे मुझसे पूछते हैं l
तुम किसके मध्य में हो?
मैंने उत्तर दिया -
समय और काल के,
जीवन को जीने के लिए,
इसी के मध्य दौड़ता
रहता हूँ l
किन्तु काल का भय,
समय के साथ चलता हुआ
मेरे अस्तित्व को चुनौती देता है l
तभी तो मैं जीवो के मध्य,
उस सत्य को खोजता हूँ,
जिसके लिए सभी अपने
अस्तित्व को मानते हैं,
और निरंतर एक अंतहीन,
सत्य का पीछा करते हैं ll
ऐसा नहीं कि उनको,
ज्ञात नहीं कि काल निश्चित है,
उसकी जिजीविषा, उसकी-
सत्यनिष्ठा, उसका मोहहीन,
कठोर निर्णय सद्य है l
समय प्रश्न नहीं करता,
केवल देखता है,
हमारे कर्म को,
निर्णय तो केवल
काल करता है l
समय कहता है कब
आना है?
काल कहता है कब
जाना है?
कब होगा स्पंदन का
शेष अंत?
और हम होंगे अनंत l
यह काल
बताता है, समय नहीं l
समय के पार तो
मैं गया,
किन्तु काल के पार
न जा सका l
इसीलिए मैं समय और
काल के मध्य
दौड़ता हूँ l
केवल दौड़ने के लिए
और कुछ भी नहीं l
कुछ नहीं l
-------------
अजय श्रीवास्तव 'विकल'