विडंबना
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प्रश्नों के उत्तर का, मैं व्यास खोजता रहा l
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
नित्य नव अति चेतना होती प्रफुल्लित l
राग-वाणी संकलित अविरल प्रबल नित ll
नयन कण में बिम्ब का मैं आस खोजता रहा l
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
धूम प्रावृट सलिल बन मोहित ह्रदय से l
रश्मियां मंगल हरित पूरित सदय से ll
वल्लरी तन मध्य पल्लव श्वास खोजता रहा ll
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
सरल सद्यः स्नात उषा विकल होकर l
अंशुमाली स्वर्ण प्रतिपल प्रबल होकर ll
तूलिका रचती किरण प्रतिमास खोजता रहा l
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
प्राण के उत्सर्ग शोणित, कर्म नित व्याकुल रहे l
विश्व में अभिधान के अवसर विकल आकुल रहे ll
लेखनी लिखती रही उपहास खोजता रहा l
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
श्वेत वल्कल, अग्नि-पथ अंतिम नहीं प्रारब्ध है l
ज्यों संवरता लेखनी से चित्र-अभिनय शब्द है ll
मिट गया जीवन अभी रनिवास खोजता रहा l
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
हास से परिहास की अंतिम छटा में व्यस्त है l
रो रहा दिनकर धरा की आपदा से त्रस्त है ll
उड़ गए तिनके सभी उल्लास खोजता रहा ll
जीवन के स्वप्नों का, प्रवास खोजता रहा ll
परिवाद
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तब क्यों देते सर्वस्व त्याग,
जब त्याग दिया तुमने विकार l
अब शांत-चित्त जल के आसव l
प्रमुदित निर्मित हैं श्लाघा नव ll
आनंदित नव-किसलय अनुपम l
कीलित किरणे लेती हर तम ll
प्रातः किरणों से पथ बुहार l
उज्जवल अरुणोदय विस्फारित l
रजनी की आशा में पालित ll
फिर से जागेगा नव-प्रभात l
पुलकित होगा चिर स्वर्ण गात ll
कितना होगा वह मिलनसार l
अपनी अंतिम छाया के प्रति l
जर्जर तरु माया के प्रति ll
निःशब्द खड़े विकराल अडिग l
नन्ही टहनी को पाल अडिग ll
कितना हाथों का है विस्तार l
आँखों से झरते नभ के कण l
वे त्याग नहीं पाए थे प्रण ll
संचित कर जीवन के विराग l
सब बिखर गए अम्बुज पराग ll
गुंथने को ले हाथों में हार l
तब क्यों देते सर्वस्व त्याग,
जब त्याग दिया तुमने विकार l
अंत प्रतीक्षा
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कब जागोगे?
अभी तो नहीं प्रलय का अंत,
अभी पथ रोते भर-भर नीर l
अभी हाथों से जाता छूट,
अभी ह्रदयों में रहती पीर ll
सुलगती रहती है यह मही,
देख लो ! कब आओगे?
बिलखते जल आँखों से दूर,
मिला ही नहीं उन्हें विश्वास l
समय के साथ चले थे वे,
उन्हीं को मिली नहीं थी आस ll
अश्व सूरज के रहते क्षीण,
कहो ! कैसे पाओगे?
छोड़ कर बैठ गए हम व्यस्त,
तुम्हीं पर सब कुछ है आधार l
भरोगे वही करोगे जो,
कहां से हो जाओगे पार ll
सलिल का अपना कोई नहीं,
अरे ! इसमें क्या खोवोगे l
माना तुम भी हो बड़े अधीर,
चाहते हो अपनी ही जीत l
किन्तु, पथ वही तुम्हारे भी,
जहाँ से निकली उनकी प्रीत ll
समय का नहीं कोई विश्वास,
तब क्या ! जो तुम हारोगे ll
दर्प का नहीं कोई आधार,
रहेगा दर्पण तेरे पास l
देख यदि चकित न हो प्रतिबिम्ब l
किसी पर होगा न विश्वास ll
कलंकित हो जाओ यदि तुम,
कैसे ! फिर वापस लाओगे ll
क्या है अधिशेष !
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तुम नदियों के ही सागर हो......
तुम रिक्त कोष के अधिकारी l
तुम जाने कैसे व्यापारी ll
चुरा लिया नयनों से अंजन l
लूट लिए नीडों से खंजन ll
तुम अपनों के ही चाकर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
तुम धर्म ध्वजा के रक्षक हो l
तुम पाप कर्म के भक्षक हो ll
दिखा दिए थे स्वर्ग भुवन को l
भ्रम में अब भी सभी नमन को ll
तुम कितनों के ही नागर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
तुम वाक-शक्ति के नायक हो l
जो चूके न वो सायक हो ll
धरती से लेकर अंबर तक l
मिटा रहे हो तुम घर तक ll
तुम विष वाले ही गागर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
तुम स्वप्न देखते राम राज्य का l
तुम देख रहे हो काम राज्य का ll
तुम से ही आशा जन-जन की l
तुम से ही भाषा जन-जन की ll
मैं देख रहा नटनागर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
संभल-संभल कर चलना तुम l
बच कर यहाँ निकलना तुम ll
यह अग्नि कुंड का घेरा है l
यह स्वार्थ युक्त बस तेरा है ll
तुम बड़े-बड़े भवसागर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
बस एक नीति का स्वर लेकर l
रग-रग में पीड़ा देकर ll
यह जाने कैसा भ्रम छाया l
हमने ही अपना न पाया ll
तुम तृप्त हुए सब पाकर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
तुम हुए विपन्न यही कहते l
तुम घर-घर दौड़ो सब सहते ll
तुम लेते नहीं सभी देते l
तुम देते नहीं सभी लेते ll
सब कहते तुम रत्नाकर हो l
तुम नदियों के ही सागर हो....
विवशता
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वृक्ष से पत्ते गिरे अब कौन पूछेगा इन्हें?
शाख से वैभव छिना अब कौन देखेगा इन्हें?
अब नहीं वो कोपलें है अब नहीं वो डाल है l
अब नहीं वो हड्डियां हैं न रही वो खाल है ll
सूखकर जलती जड़ों को देखकर सबने कहा,
अब नये सब लोग हैं, इनका नहीं अब काल है l
नष्ट होती हैं जड़े अब कौन सींचेगा इन्हें?
वृक्ष से पत्ते गिरे अब कौन पूछेगा इन्हें?
नष्ट होती सम्पदायें और उनका रूप है l
नष्ट होते दर्प हैं ज्यों बादलों में धूप है ll
फिर नई धरती बनेगी, वृक्ष भी होंगे नए,
कर्म में दुविधा रहेगी, जो बनेगा भूप है ll
हंस तो फिर हंस ही है कौन मानेगा इन्हें?
वृक्ष से पत्ते गिरे अब कौन पूछेगा इन्हें?
जीवितों में भ्रम रहेगा, कौन जीवित है यहां l
कौन व्यापक हो गया है कौन सीमित है यहां ll
जो नियम की धार पर सीधा खड़ा चलता रहा,
है वही कर्तव्य पालक वह अनियमित है यहां ll
कर्म-पथ के मरुस्थल में, कौन जानेगा इन्हें l
वृक्ष से पत्ते गिरे अब कौन पूछेगा इन्हें?
अनकहा बचपन.........
सोचता है,
मन के घोड़े, हैं सूरज के घोड़े;
सलाखें, कभी तीखी, कभी-
मृदुल, हवा के पँखों पर
सवार, प्रातः से
संध्या तक एक दौड़ है
डामर की सड़कों पर,
कभी खेतोँ की अल्हड़
पगडंडी नापना,
आम को बौने हाथों से
छूना,
दौड़ती सड़कों से
डर जाना,
हवा पर उड़ते हुए
धरती को ध्यान से निहारना l
गाँव के तालाबों को सूरज
से हँसाना l
सूरज को आग से बुलाना l
आग को आग से बुझाना,
जल को बरसात में,
आंसुओं से सुखाना l
नींद के बिस्तर पर,
रात को जगाना l
रात की अंगड़ाई को,
सुबह-सुबह, सुलाना l
किसी पेड़ की छाँव में,
आँखें मीच सो जाना,
फिर लौट आना,
अपनी बुनी चादर पर
चैन से सोने l
क्योंकि चादर जर्जर है l
कौन पूछेगा?
किसके लिए?..............!!!!
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'