सलिल पयोधर विचरण करते नभ के वे अभिमान हैं l
स्वर्ण रूप हैं प्रलय समेटे जीवन धन प्रतिमान हैं ll
तैर रहे हैं निश्छल प्रतिपल धरती के श्रंगार बने हैं l
अाच्छादित नभ में विस्फारित धरती के अधिकार बने हैं ll
नयनों से बहते अविरल कण धरती के वक्षस्थल पर l
शोभित मस्तक की स्मृतियां वसुंधरा के जल-थल पर ll
दूर-दूर से चल कर आते जन-जीवन की खान हैं l
सलिल पयोधर विचरण करते नभ के वे अभिमान हैं ll
मेघ सघन सरिता से बहकर रत्नाकर में मिलते हैं l
पुनः उसी जल की महिमा से नभ आँगन में खिलते हैं ll
चक्र निरंतर चलता रहता शुष्क धरा नभ नम रहते हैं l
तरह-तरह की आकृति वाले बादल हैं हम सब कहते हैं ll
टकराकर चपला चमकाते अद्भुत उनके गान हैं l
सलिल पयोधर विचरण करते नभ के वे अभिमान हैं ll
कालिदास के मेघदूत बन प्रेम सरस बरसाते हैं l
तुलसी के घनश्याम विरह में राघव को तरसाते हैं ll
प्यास जगी है धरती की अब नभचर के घिर जाने से l
प्रलय कहीं न आ जाए अब नभचर के गिर जाने से ll
ये बादल हैं इनका क्या है कब छायें अनजान हैं l
सलिल पयोधर विचरण करते नभ के वे अभिमान हैं ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'