क्या हुआ कि जनता आती है?
क्या नहीं हैं अपमानों के धंधे?
शोषित नहीं हैं राजाओं के बंदे?
फुटपाथों पर सोता नहीं है बचपन?
रोटी में खोता नहीं है बचपन?
प्रजातंत्र की नारी को क्या-क्या नहीं दिखाती है?
क्या हुआ कि जनता आती है?
धनी-निर्धन का भेद नहीं है?
आपस में मतभेद नहीं है?
खादी में राजा है, तो क्या?
संताप में प्रजा है, तो क्या?
रोज नए वादे तो सुनाती है l
क्या हुआ कि जनता आती है?
चेहरों पर चेहरों का आना-जाना है l
हम जो चाहें वही तो दिखाना है ll
ये रेत का मार्ग है, चलते जाओ l
निकल पाओ तो निकलते जाओ ll
ये बड़ी आतताई है कितना सताती है !
क्या हुआ कि जनता आती है?
अपने सपनों में ही सबके सपने हैं l
हमारे पूरे हों तभी सबके अपने हैं ll
शोषित मन अब आसमान छूते हैं l
कोई राजा नहीं पर राजाओं के मान छूते हैं ll
ये जनता है बहुत कुछ बताती है l
क्या हुआ कि जनता आती है?
विवशता आज भी है, कल भी थी l
समरसता आज भी है, कल भी थी ll
राजसिंहासन तो आज घर-घर है l
फिर भी बेबस मानवता की डगर है ll
मैं कैसे कहूं कि बहुत कुछ आत्मघाती है l
क्या हुआ कि जनता आती है?
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'