ह्रदय में नित भाव सरिता, सरल-रस सी बह रही है l
मन अकिंचन बंध गया है, चेतना यह कह रही है ll
तुम प्रणय के गीत गाकर, ह्रदय में अभिसार दो l
यदि भुजाओं में प्रलय हो, वीर रस का प्यार दो ll
हँस रही पीड़ा ह्रदय में, सुखद मन अभिसिक्त है l
जो नहीं आया अभी तक, प्राण चित में सिक्त है ll
है प्रतीक्षा में गगन भी धरा भी तो सह रही है l
मन अकिंचन बंध गया है, चेतना यह कह रही है ll
ह्रदय घातों में हमारे मधुरतम संगीत है l
दुःख भरे इस वक्ष से अविरल निकलता गीत है l
अरुण के नेपथ्य में काली विभा की यवनिका l
श्वेत वर्णों में बिखेरे दीप के कण दीपिका ll
ओस के उन रजत कण को, सरल-उर में गह रही है l
मन अकिंचन बंध गया है, चेतना यह कह रही है ll
वीतरागी जो हुआ उसने ह्रदय का दान देकर l
त्याग कर सब मान वैभव, चुप रही संतान देकर ll
पल्लवित होती लता भी, शिखर तरु के ह्रदय में l
अग्नि भी जलती पवन वातायनों के सदय में ll
कौन कहता है अरुण से साँझ-चादर दह रही है l
मन अकिंचन बंध गया है, चेतना यह कह रही है ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'