मन सहज होता नहीं है l
प्रेम बंधन अब नहीं है, प्रेम व्याकुल हो रहा है l
रेत के पथ चल रहे हैं, प्रेम आकुल हो रहा है ll
तुम समय के पार जाकर, ह्रदय के उपहार दे दो l
कह चलूँ दे कर तुम्हें मैं, अब मिलन के हार दे दो ll
दूर होता हूं ह्रदय से किन्तु पल खोता नहीं है l
मन सहज होता नहीं है ll
सुरभि सा बहता रहा हूं, पुष्प खिलने के लिए l
मन किनारो में बँधा हो, सलिल बहने के लिए ll
फिर ना जाने क्यों बिखरता जारहा जो पास है l
कुछ रहे सांसों में अपने अब यही विश्वास है ll
आँख के कोरों में आंसू, मन कभी सोता नहीं है l
मन सहज होता नहीं है ll
वो गगन कहता नहीं विस्तार कितना हो गया l
ये धरा कहती नहीं स्वीकार कितना हो गया ll
वे समय की चाह में मिलते नहीं अविराम तक l
वे उलझ कर रह गए हैं खो गए हैं नाम तक ll
रख लिया मन में सहज ही, मन कभी रोता नहीं है l
मन सहज होता नहीं है ll
कौन अपना और कितना वह पराया हो गया l
देखते ही देखते उसका प्रणय भी सो गया ll
कल अभी तो रोटियां मैंने उसी के साथ खायी l
आज जाने क्यों उसी ने पीठ पर गोली चलायी ll
पौध नन्हे प्रेम के क्यों अब कोई बोता नहीं है l
मन सहज होता नहीं है ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'