तुम जाने क्या-क्या कहते हो?
शब्दों से आकाश गिराकर, धरती सिंचित कर दोगे l
सूरज की किरणें बरसाकर, तम के परकोटे भर दोगे ll
जाने कितनी सदियाँ बीती, अंधकार भी व्याकुल है l
दीपों की बाती कहती है, लौ से ही बाती आकुल है ll
शीतल मन से जला करोगे, कभी-कभी ऐसा कहते हो l
तुम जाने क्या-क्या कहते हो?
धरती का यह छोर अल्प है, नापोगे ब्रम्हांड विलक्षण l
शक्ति भुजाओं में ले करके, तोड़ोगे अणुओ के कण-कण ll
जल कण की तपती बूंदों में, अग्नि लपट की शीतलता है l
सागर की बूंदें कहती हैं, लहरों में कितनी समता है !
मिलने पर भी पृथक रहेंगे, जिसको तुम अपना कहते हो l
तुम जाने क्या-क्या कहते हो?
पर्वत से चट्टान तोड़कर, नीड़ों को संचित करना है l
आशाओं की प्रत्याशा में, प्रेम सुमन अंकित करना है ll
किन्तु अभी तो जल बूंदों ने, तृण की नोक सजाई है l
अभी-अभी तो बाल अरुण ने, उषा की छवि पाई है ll
अभी कहां रवि हँस पायेगा, जाने तुम कितना कहते हो l
तुम जाने क्या-क्या कहते हो?
विश्व हलाहल में निमग्न है, तुम अमृत की चाह लिए हो l
मर्यादित व्यभिचारों में, तुम मर्यादा की थाह लिए हो ll
अभी कहाँ तुम कर पाओगे, स्थिर मानव को गतिमान l
सुन्दर रूप, कुरूप सभी हैं, उनके अपने हैं प्रतिमान ll
यह सब तो सपने जैसा है, जिसको तुम सच्चा कहते हो l
तुम जाने क्या-क्या कहते हो?
✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'