गृह आलय हैं भवन प्रेम के, निलय कुटी से नाम हैं l
सम्बन्धों के रक्त प्रफुल्लित, बहते आठों याम हैं ll
प्रात सूर्य सँग उदित रहे जो, दिन भर श्रम को बुनता है l
बाहर खग सा व्यस्त रहे वो, तिनका-तिनका चुनता है ll
संध्या की ढलती किरणों सा, थकित पथों पर चलता है l
दीवालों की सरल परिधि में, व्याकुल तन-मन पलता है ll
घर सुख वंचित घर के बाहर, जाने कितने काम हैं l
सम्बन्धों के रक्त प्रफुल्लित, बहते आठों याम हैं ll
घर की महिमा, घर की गरिमा, घर अद्भुत संसार है l
घर से शिक्षा, घर से दीक्षा, घर से मिलता प्यार है ll
घर ही मन्दिर, देवालय सा, यदि नारी सम्मानित हो l
नर्क सदृश घर कहलायेगा, यदि नारी अपमानित हो ll
बड़े भाग्य से घर मिलता है, जिसमें चारों धाम हैं l
सम्बन्धों के रक्त प्रफुल्लित, बहते आठों याम हैं ll
त्यागी हो वह भरत ह्रदय सा, भ्रात प्रेम अनुरागी हो l
चौदह वर्षो का वनवासी, अनुज लखन वैरागी हो ll
घर से मोह त्याग निकला है, कर्मठ कर्म महान बने l
जहाँ रहें वह घर बन जाए, नैतिक धर्म महान बने ll
कहाँ बनेगा अयन प्रेम का, जहाँ बसें प्रभु राम हैं l
सम्बन्धों के रक्त प्रफुल्लित, बहते आठों याम हैं ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'